मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि भारत की राजनीति में बाबासाहेब अम्बेड़कर, मान्यवर कांशीराम या बहनजी जैसे जीवन लुटाऊँ लोगों को राजनीति ने हमेशा हाशिये पर ही क्यों रखा?
फेसबुक पर किसी मित्र/अन्य लोगों की सामाजिक मुद्दों पर पोस्ट या कमेंट्स पढ़ता हूँ तो जातिवाद की मानसिकता से बंधे 100 साल पहले के अछुतों/दलितों की और आज के पढ़े-लिखे दलित समाज के लोगों की मानसिकता को समझने की मैने एक ईमानदार कोशिश की, जो ये साबित करती है कि दलित समाज को जिंदा महापुरूषों को मजबूत करने की बजाय उनको उनके मरने के बाद पूजने की ज्यादा जल्दी रहती है. इसी मानसिकता ने बाबासाहेब डॉ अम्बेड़कर को राजनीति के हाशिये पर रखा, उसके बाद मान्यवर कांशीराम जी को भी सही से उभरने नही दिया और अब यही कुछ मायावती जी के साथ होना भी स्वाभाविक ही है.
1980 में बनी भाजपा की आज केंद्र के अलावा राज्यों में अनेक सरकारें हैं. लेकिन, सालों साल जमीन से जुड़े रहने के बाद मान्यवर और बहनजी को एक राज्य की सत्ता भी बड़ी मुश्किल से मिली थी और उसको भी जड़ से उखाड़ने के लिए दूसरे राज्यों तक के दलित आदिवासी, पिछड़े, सवर्ण, मुस्लिम, बौद्ध आदि कोशिश में लगे रहते हैं.
बाबासाहेब की जो पार्टी थी उसकी तो अस्थियाँ तक बेच खाई हैं लोगो ने. लेकिन, ऐसे-ऐसे लोग जय भीम जय भीम, अम्बेड़करवादी अम्बेड़करवादी होने की गूँज मंगल ग्रह तक पहुँचाने का दावा कर रहे हैं. इस दुर्गति के कारण तो कई हैं लेकिन, आज के दौर में जो सबसे ज्यादा प्रभावी कारण नजर आ रहे है, वो इस प्रकार है:
- मनुवाद से प्रभावित मीडिया का प्रभाव जो किसी भी मायावती या कांशीराम जैसे नेता के विचार पर कभी कुछ अच्छा बोलना ही नही चाहता, उसके प्रभाव में आए दलित, हरि + जन और फर्जी अम्बेड़करवादी दीपक बनकर घर जलाने के शौक पाले बैठे हैं.
- दलित समाज की मानसिकता जो अपने किसी सवर्ण साथी की हाँ में हाँ मिलाने को ही आधुनिक विचारों का होना मानता आया है. ये मानसिक गुलामी है जो बिना कहे ही अपना मालिक ढूँढ़ लेने की आदत से लाचार है. ये लाइलाज बिमारी है, इसी की सनक ने मान्यवर कांशीराम को “चमचा युग” लिखने को प्रेरित किया होगा.
- अम्बेड़करवाद को बिल्कुल भी ना समझकर खुद को अम्बेड़करवादी और आदर्शवादी दिखाने के चक्कर में अपने ही जाति/वर्गो में बहस करके अपनी खीज निकालना चाहता है पढ़ा-लिखा दलित वर्ग, जो बाद मे पर्सनल होकर भी विरोध करने लगते हैं.
- इनसे कोई ठीक से पूछता भी नही है कि वो अम्बेड़कर कांशीराम के विचारों पर मायावती का विरोध करके कांग्रेस, भाजपा, आप, तृणमूल, सपा, वामपंथी दलों आदि में कैसे अपने अम्बेड़करवाद को बचा लेते हैं और वहाँ वो कांग्रेस भाजपा को उनके मिश्राओं और पांडेय या शर्मा आदि से मुक्त करवाने की बात करने की हिम्मत जुटा पाते है या नही?
- ये केकड़ों का समाज रहा है, पहले बाबासाहेब को राजनीति में फेल किया, फिर कांशीराम जी को किया, अब मायावती जी को फेल करने में जुटे हैं. एक युवा नेता तो सिर्फ और सिर्फ यूपी का ही चुनाव लड़ने के लिए पैदा हुआ है, उसके सपोर्टर तो मायावती को भैंसवती, भैंणजी, वैश्या, बिकाऊ, कांशीराम की हत्यारिन और पता नही क्या-क्या बोलने के लिए बिलबिला रहे होते हैं. इतनी गंदी भाषा का प्रयोग तो शुद्ध मनुवादी भी करने से बचने लगा है, शायद अब उनका काम करने वाले फ्री के मजदूर मिल गये हैं.
- तकरीबन को तो ये भी नही मालूम की बाबासाहेब के आरक्षण से हर लोकसभा आम चुनाव मे 130 से ज्यादा सांसद आरक्षण से बनते हैं. सैंकड़ों विधायक राज्य विधानसभाओं से आरक्षण के कारण जीतकर आते हैं. इस दलित समाज की हिम्मत नही की बाबासाहेब के आरक्षण से उन्होने जो गूँगे-बहरे सांसद/विधायक चुने हैं, उनसे भी सवाल पूछे. लेकिन, वहाँ तो वोट देकर भी वो उनसे अम्बेड़करवाद की बात तक नही कर सकते जबकि आरक्षण से चुने हुए लोगों की तो अम्बेड़करवाद को समझने की पहली जिम्मेवारी है वरना वो सांसद विधायक बन जाते, ऐसा नजर तो नही आता.
इसीलिए ये दरिद्र मानसिकता में जी रहा समाज, मनुवादी मीडिया से उर्जा पाकर पहले डॉ अंम्बेड़कर को अंग्रेजों का पीट्ठु और दलाल कहकर हाशिये में डालते थे, फिर मान्यवर कांशीराम को भाजपा का ऐजेंट आदि कहकर उनका चरित्रहनन करते रहे और अब बहनजी की सोच पर सवाल करके राजनीति में सबका काम आसान करते हैं. मायाभक्त कहकर तो वो खुद को मान्यवर से भी बड़ा विचारक समझने लगे हैं. मैं किसी पार्टी का सपोर्टर होने के नाते ये नही कह रहा हूँ बल्कि दलितों की दरिद्र राजनीति का कारण मात्र बता रहा हूँ, मैं पार्टी या आदमी से बंध कर नही सोचता, बस सबसे मानवीय और सबसे प्रैक्टिकल विचारधारा को मानने में यकीन करता हूँ.