बोतल महँगी है तो क्या,
थैली बहुत ही सस्ती है।
ये दलितों की बस्ती है।।
ब्रह्मा विष्णु इनके घर में,
क़दम-क़दम पर जय श्रीराम।
रात जगाते शेरोंवाली की…
करते कथा सत्यनाराण..।
पुरखों को जिसने मारा था,
उनकी ही कैसिट बजती है।
ये दलितो की बस्ती है।।
तू चूहड़ा और मैं चमार हूँ,
ये खटीक और वो कोली।
एक तो हम कभी हो ना पाए,
बन गई जगह-जगह टोली।
अपने मुक्तिदाता को भूले,
गैरों की झाँकी सजती है।
ये दलितो की बस्ती है।।
हर महीने वृन्दावन दौड़े,
माता वैष्णो छह-छह बार।
गुडगाँवा की जात लगाता,
सोमनाथ को अब तैयार।
बेटी इसकी चार साल से,
दसवीं में ही पढ़ती है।
ये दलितो की बस्ती है।।
बेटा बजरँगी दल में है,
बाप बना भगवाधारी
भैया हिन्दू परिषद में है,
बीजेपी में महतारी।
मन्दिर-मस्जिद में गोली,
इनके कन्धे से चलती है।
ये दलितो की बस्ती है।।
शुक्रवार को चौंसर बढ़ती,
सोमवार को मुख लहरी।
विलियम पीती मंगलवार को,
शनिवार को नित ज़हरी।
नौ दुर्गे में इसी बस्ती में,
घर-घर ढोलक बजती है।
ये दलितो की बस्ती है।।
नकली बौद्धों की भी सुन लो,
कथनी करनी में अन्तर।
बात करें हैं बौद्ध धम्म की,
घर में पढ़ें वेद मन्तर।
बाबा साहेब की तस्वीर लगाते,
इनकी मैया मरती है।
ये दलितो की बस्ती है।।
औरों के त्यौहार मनाकर,
व्यर्थ ख़ुशी मनाते हैं।
हत्यारों को ईश मानकर,
गीत उन्हीं के गाते है।
चौदह अप्रैल को बाबा साहेब की जयन्ती,
याद ना इनको रहती है।
ये दलितो की बस्ती है।।
डोरीलाल है इसी बस्ती का,
कोटे से अफ़सर बन बैठा।
उसको इनकी क्या चिन्ता अब,
दूजों में घुसकर जा बैठा।
बेटा पढ़कर शर्माजी, और
बेटी बनी अवस्थी है।
ये दलितो की बस्ती है।।
भूल गए अपने पुरखों को,
महामही इन्हें याद नहीं।
अम्बेडकर, बिरसा, बुद्ध,
वीर ऊदल की याद नहीं।
झलकारी को ये क्या जानें,
इनकी वह क्या लगती है।
ये दलितो की बस्ती है।।
मैं भी लिखना सीख गया हूँ,
गीत कहानी और कविता।
इनके दु:ख दर्द की बातें,
मैं भी भला था, कहाँ लिखता।
कैसे समझाऊँ अपने लोगों को ,
चिन्ता यही खटकती है।
ये दलितों की बस्ती है।।
कविता सुनिए!
(लेखक: सूरजपाल चौहान; ये कविता लेखक के अपने विचार हैं)
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