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Wednesday, October 22, 2025

Ambedkarnama: युवकों, निर्भय बनो, स्वाभिमान डिगने न दो – डॉ.अंबेडकर

हमें स्वाभिमान की बहुत जरूरत है. स्वाभिमान को छोड़कर जो उन्नति हासिल की जाती है वह किसी काम की नहीं होती. हर युवक को अपने मन में एक बात गांठ मारकर रखनी चाहिए कि हम भी औरों की तरह की इंसान हैं.

24 दिसंबर, 1939 को दोपहर में अंकलखोप में सातारा जिला अस्पृश्य युवक परिषद हुई थी. परिषद की अध्यक्षता करना डॉ.अंबेडकर ने स्वीकारा था. सभा के लिए बड़ा जनसमुदाय उपस्थित था. अंकलखोप जाते हुए रास्ते में भिलवडी गांव की महिलाओं ने डॉ.अंबेडकर की आरती उतारकर उनके प्रति अपने मन में बसे अपार भक्तिभाव को व्यक्त किया. स्वागत मंडल के अध्यक्ष मिस्टर पी.टी. मधाले और अन्य सदस्यों ने बड़ा जुलूस निकाल कर डॉ.अंबेडकर के साथ मंडप में प्रवेश किया. सभा में उपस्थित जन समुदाय ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ डॉ.अंबेडकर का स्वागत किया.

परिषद के स्वागताध्यक्ष श्री मधाले ने स्वागत में भाषण किया. उसमें वह बोले, “हम अस्पृश्यों पर डॉ.अंबेडकर के भगवान से भी अधिक उपकार हैं. सज्जनों की रक्षाकर दुर्जनों का परिहार करने के लिए परमेश्वर ने दस अवतार धारण करने की कथा हिंदू धर्म में बताई जाती है. लेकिन इन दस में से किसी एक अवतार को भी हम अस्पृश्यों का तथा हम पर हो रहे जुलमों का ख्याल नहीं आया. आजकल हमें हरिजन कहकर प्यार जताने वाले महात्मा ने भी हमारे स्वाभिमान के लिए पोषक कार्य कभी नहीं किया है. स्वागताध्यक्ष के भाषण के बाद डॉ.अंबेडकर का अध्यक्षीय भाषण हुआ. उन्होंने अपने भाषण में कह- बहनों, युवा मित्रों और भाइयों,

आज की सभा मुख्यतः युवाओं की है. आज की सभा के अध्यक्ष, मेरे मित्र मधाले युवा ही हैं. आपको लगता होगा कि आज की सभा में केवल युवाओं के लिए ही भाषण होगा. लेकिन आज की सभा में युवाओं के साथ-साथ युवाओं में गिने न जा सकने वाले लोग भी हैं. उन्हें भी लगता होगा कि मैं हमारे समाज को जिन विषयों में दिलचस्पी हो उन पर मेरे बोलने की उम्मीद तो होगी ही. इसलिए, पहले इन लोगों से दो शब्द कहकर बाद में मैं युवाओं के सवालों की ओर मुडुंगा. (यहां डॉ.अंबेडकर ने हरेगांव के महार वतनदार कामगारों की सभा में जिन मसलों के बारे में बताया था उन्हें फिर विस्तार से समझाया)

फिर युवाओं को उद्देश्य कर वह बोले- ‘जनता’ (बाबासाहेब द्वारा प्रकाशित अखबार) में मेरे विचार हर हफ्ते प्रकाशित होते रहते हैं. यह अखबार पढ़ने से आपको अपने से जुड़े सवालों की जानकारी मिलती रहेगी.

हमें स्वाभिमान की बहुत जरूरत है. स्वाभिमान को छोड़कर जो उन्नति हासिल की जाती है वह किसी काम की नहीं होती. हर युवक को अपने मन में एक बात गांठ मारकर रखनी चाहिए कि हम भी औरों की तरह की इंसान हैं.

भगवान को कभी यह मंजूर नहीं होगा कि महारों को महारबाड़े में ही रहना चाहिए. हजारों सालों से हम पर जो जुल्म जबरदस्ती होती आई है उसके कारण हमारे समाज की भावनाएं मर-सी गई हैं. ब्राह्मणों के राज्य में हम अगर स्वाभिमान बरतते तो हम पर ‘औकात भूलने’ का आरोप मढ़कर हमें हाथी के पैरों तले कुचलवा दिया होता.

हमें उन्नति का मार्ग खुद बनाना होगा. जो भी आरीव और अमंगल हैं वे सभी रिवाज हमें छोड़ देने होंगे. ‘जो झोली में पड़े वह खाने और रोटी के टुकड़े चबाने’ के दिन अब लद गए हैं. हमारे लोगों को भी समाज के अन्य लोगों की तरह अधिकार के पद मिलने चाहिएं. हमारे लोगों की अब पुलिस में बहुत कम संख्या में ही सही लेकिन भर्ती होने लगी है. आज भी हमारे सुशिक्षित युवाओं को पुलिस विभाग में अधिकार के पद नहीं मिलते यह दुख की ही बात है. सरकार को आज भी यह डर लगता है कि अस्पृश्य को अधिकारी नियुक्त किया तो उसके मातहत काम करने स्पृश्य लोग नाराज हो जाएंगे. क्या यह इस देश का दुर्भाग्य नहीं है?

जरूरत है हमें अपने अंदर निर्भयता को पनपने पलने देने की अपने समाज को दुनिया में सम्मान दिलाने के लिए हमें अपनी जान की कुर्बानी देने तक के लिए तैयार रहना होगा. हम सब इस प्रकार तैयार होंगे तो कोई हमारा अपमान करने की हिमाकत नहीं कर सकता. आप सभी युवाओं से मेरा यही कहना है कि ‘निर्भय बनें और दुनिया पर राज करो.’

अब हमारी राजनीति के बारे में मैं आपको दो-चार शब्दों में बताता हूं. हिन्दुस्तान में अपनी राजनीति का मामला फिर से शुरू होगा, ऐसा लगता है. काँग्रेस पार्टी और अस्पृश्य इन दोनों के बीच मतभेदों का आमने-सामने बैठकर हल नहीं निकल सकता.

हमें मिले हुए राजनीतिक अधिकार नाकाफी हैं. काँग्रेस के राज में भी हमारे हितों की रक्षा नहीं होती. काँग्रेस को जब अधिक अधिकार मिलते हैं तो उनके द्वारा हम पर होने वाले जुल्म भी बढ़ते हैं.

अल्पसंख्यकों का एक दोष है कि वे केवल अपने बारे में सोचते हैं. ब्राह्मणेतर पार्टी का उदाहरण हम लें. जो गैर ब्राह्मण काँग्रेस में शामिल हुए उनसे मेरा सवाल है कि उन्होंने क्या पाया? आगे जो आंकड़े मैं दे रहा हूं उनसे पता चलेगा कि गैर-ब्राह्मणों का काँग्रेस के पीछे चले जाना आखिर केवल भुलावा ही साबित हुआ है. गैर-ब्राह्मणों की जनसंख्या 75 प्रतिशत है, और पक्षों की जनसंख्या ज्यादा से ज्यादा 25 प्रतिशत तक हो सकती है.

मुंबई विधिमंडल में 27 ब्राह्मण सदस्य हैं. मंत्रीमंडल में तीन ब्राह्मण मंत्री हैं. प्रांत के 75 प्रतिशत गैर-ब्राह्मणों के लिए इस मंत्रीमंडल में एक ही ‘दृष्टि मणि’ यानी नजर न लगे इसलिए लगाया जाने वाला टीका है. इसीसे पता चलता है कि काँग्रेस में शामिल हुए गैर-ब्राह्मणों को आखिर क्या मिला?

राजस्व विभाग का भी यही हाल है. इलाके के उत्तर दिशा के हिस्से में चौबीस मामलतदारों में से दस मामलतदार ब्राह्मण हैं. अन्य हिस्सों में भी ऐसी विषमता ही दिखाई देती है. इससे यही बात साबित होती है कि हिंदी राजकाज को फिर भले वह अंग्रेजों द्वारा चलाया जाए या काँग्रेस के हाथ में बागडोर हो जाहिर है कि ब्राह्मणबाधा हुई है. ब्राह्मण्य महाभयंकर विष है. हलाहल से भी वह भयंकर है इसलिए शंकर भी इसे पचा नहीं सकता. इस विष के इलाज के रूप में बुद्ध ने अवतार धारण किया. ब्राह्मणवाद पर हमला किया. आज के काँग्रेसी गैर-ब्राह्मणों को छकाने के लिए ‘रे मार्केट’ को ‘फुले मार्केट’ बनाते हैं. इसी प्रकार बुद्धकालीन ब्राह्मणों ने ‘इंद्र, अग्नि, वरुण’ आदि वैदिक देवताओं की जगह ‘राम, कृष्ण’ आदि क्षत्रिय देवों की रचना की और अपने युग के ब्राह्मण्य विरोधकों को छकाकर अपना आसन स्थिर किया जो हो, अगले चुनावों में अपने विभाग से एक उम्मीदवार को जिता दें और राजनीतिक सत्ता को हासिल करने की राह पर आगे बढ़ें. दरिद्रता के कारण हमारे छात्रों को कई मुसीबतों को झेलना पड़ता है. इस प्रकार मुश्किलों का सामना करने वाले छात्रों को बरगलाकर उन्हें स्वाभिमान शून्य बनाने के लिए श्री भाऊराव पाटील और हरिजन सेवा संघ ने जगह-जगह जाल बिछा रखे हैं. भीष्माचार्य जैसा वीर कौरवों का अनाज खाने के कारण पांडवों के न्यायपूर्ण पक्ष में नहीं आ सका. इस बात को ध्यान में रखें ‘अर्थस्य पुरषे दासः’ जैसी अपनी हालत मत बनाइए. अपने लोगों द्वारा चलाए जा रहे बोर्डिंग के लिए ही मदद दें. उसका फायदा भी लें. सातारा जिले में मेरे मित्र श्री सावंत ने एक बोर्डिंग खोला है.

आप लोग इस संस्था की भरपूर मदद कीजिए. गरीब छात्रों को उसका फायदा दिलाएं. यही मेरी आप सभी से आग्रहपूर्वक विनती है.“

संदर्भ- डॉ.अंबेडकर डॉ.अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय खंड 39 पृष्ठ 252-54

(प्रस्तुती: सत्यवीर सिंह)

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