बहुजन समाज का पथभ्रष्टिकरण : सकारात्मक एजेंडा ही समाधान
सामाजिक न्याय के स्वघोषित चिंतक, लेखक और पत्रकार, जो बहुजन समाज के हितों की पैरवी का दावा करते हैं, आज एक विडंबनापूर्ण रुख अपना रहे हैं। बहुजन समाज की जनसंख्या के अनुपात में उनके प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने की वकालत करने के बजाय, वे आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए आरक्षण को समाप्त करने की माँग उठा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तक सीमित करने का निर्देश दिया है, किंतु संसद और सरकार ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण के माध्यम से इस अवरोध को तोड़ दिया। इसका तात्पर्य यह है कि ओबीसी, एससी और एसटी के लिए उनकी 85 प्रतिशत जनसंख्या के अनुरूप आरक्षण का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। किंतु इसके विपरीत, कुछ ब्राह्मण चिंतक, प्रोफेसर और यूट्यूब पत्रकार बहुजन आरक्षण की सीमा बढ़ाने की बात छोड़कर “ओबीसी को शंकराचार्य बनाने” और “ईडब्ल्यूएस आरक्षण हाय-हाय” जैसे नारों में उलझे हैं।
वास्तविकता यह है कि यदि बहुजन समाज को उसकी जनसंख्या के अनुपात में सत्ता और संसाधनों के प्रत्येक क्षेत्र में समुचित स्व-प्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित कर दी जाए, तो गैर-बहुजन समुदायों को उनकी आबादी के आधार पर आरक्षण देना—चाहे वह जाति पर आधारित हो या गरीबी पर—हिंदुओं का आंतरिक मामला है। बहुजन समाज को इस पर अपनी बौद्धिक ऊर्जा व्यय करने से बचना चाहिए। गैर-बहुजन समुदाय, जो आज भी शासक वर्ग की भूमिका में हैं, अपने हितों की रक्षा करने में सक्षम हैं।
दुखद विडंबना यह है कि एक ओर ब्राह्मणों की आलोचना की जाती है, तो दूसरी ओर कुछ जातिवादी तत्व ब्राह्मणवाद को सुदृढ़ करने वाले विचारों को बढ़ावा दे रहे हैं। बहुजन समाज के प्रतिनिधित्व को जनसंख्या के अनुरूप सुनिश्चित करने हेतु आवाज उठाने के बजाय, वे कभी ईडब्ल्यूएस आरक्षण के खिलाफ शोर मचाते हैं, तो कभी “ओबीसी शंकराचार्य” जैसे अव्यावहारिक नारों का जयघोष करते हैं। यह विचलन बहुजन समाज को बुद्ध, फुले, शाहू, आंबेडकर, कांशीराम और बहनजी मायावती के समतामूलक समाज सृजन के लक्ष्य से भटका रहा है। इसका प्रमुख कारण वे तथाकथित सामाजिक न्याय के चिंतक और लेखक हैं, जो सूक्ष्म जातिवाद के जाल में उलझे हैं।
इसके परिणामस्वरूप, बहुजन समाज अपने आंदोलन के सकारात्मक एजेंडा से विमुख होकर नफरत और नकारात्मकता का शिकार हो गया है। समतामूलक समाज के निर्माण के बजाय, यह समाज त्रिवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के प्रति विद्वेष पालते हुए अपनी सीमित ऊर्जा और समय को बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार जैसे रचनात्मक कार्यों में लगाने के बजाय ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद को कोसने में नष्ट कर रहा है। मान्यवर कांशीराम ने इस संदर्भ में स्पष्ट निर्देश दिया था: “हमें किसी की खींची रेखा को मिटाकर छोटा नहीं करना है, अपितु उसके समानांतर उससे गहरी, मोटी और लंबी रेखा खींचनी है।” ( (स्रोत: बहुजन संगठक, 15 अगस्त 1992)। किंतु आज बहुजन समाज इस मार्गदर्शन से भटक गया है।
यदि बहुजन समाज अपनी ऊर्जा और समय को ब्राह्मणवाद की आलोचना जैसे नकारात्मक एजेंडा में व्यय करने के बजाय सकारात्मक लक्ष्यों—जैसे बसपा के नेतृत्व में समतामूलक समाज की स्थापना—के लिए उपयोग करता, तो आज केंद्र और राज्यों में बसपा की सरकार होती और समता का सपना साकार होने की दिशा में तीव्र प्रगति होती। प्रो. विवेक कुमार के शब्दों में, “बहुजन आंदोलन तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक वह नकारात्मकता को त्यागकर रचनात्मकता को अपनाए।” (स्रोत: इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 2015)।
निष्कर्ष : सकारात्मकता ही पथ है
बहुजन समाज को अपने मूल लक्ष्य की ओर लौटना होगा। सामाजिक न्याय के नाम पर फैलाए जा रहे भटकाव—चाहे वह ईडब्ल्यूएस आरक्षण का विरोध हो या अव्यावहारिक नारे—से मुक्त होकर उसे अपनी जनसंख्या के अनुरूप प्रतिनिधित्व और सत्ता में भागीदारी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यह तभी संभव है जब वह बुद्ध, फुले, शाहू, आंबेडकर और कांशीराम की समतावादी विचारधारा को आत्मसात करे और नकारात्मकता को त्याग दे। केवल सकारात्मक एजेंडा ही बहुजन समाज को उसके गौरवशाली भविष्य तक ले जा सकता है।
स्रोत और संदर्भ :
- मान्यवर कांशीराम, उद्धरण, “बहुजन संगठक,” 15 अगस्त 1992, अंक 12, वर्ष 10।
- प्रो. विवेक कुमार, “बहुजन आंदोलन और रचनात्मकता,” इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 15 अगस्त 2015, पृ. 34-36।
- सुप्रीम कोर्ट निर्णय, “इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ,” 1992, 50% आरक्षण सीमा।
- भारत सरकार, “ईडब्ल्यूएस आरक्षण अधिनियम,” 2019, राजपत्र अधिसूचना।
- डॉ. बी.आर. आंबेडकर, “बुद्धिज्म और सामाजिक परिवर्तन,” संकलित रचनाएँ, खंड 3, 1950।