शिक्षक दिवस : समतावादी संस्कृति का प्रश्न और दिशा
आज प्रभात में जब सोशल मीडिया पर दृष्टि डाली, तो ज्योतिबा फुले, माता सावित्रीबाई फुले, बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर और मान्यवर कांशीराम जैसे समतावादी महानायकों के चित्रों ने मन को आलोकित किया। इन चित्रों के साथ ‘शिक्षक दिवस’ की शुभकामनाएँ संनादति थीं। एक क्षण को ऐसा प्रतीत हुआ मानो जनवरी का शीतल मौसम हो और आज 3 जनवरी, माता सावित्रीबाई फुले का जन्मदिवस। किंतु दिनदर्शिका ने स्मरण कराया कि आज 5 सितंबर है। यह विरोधाभास मन में अनेक प्रश्नों का बीज बो गया।
बहुजन आंदोलन का मूल संकल्प समतामूलक समाज, संस्कृति और उत्सवों का सृजन करना है। यह आंदोलन समता के प्रति संनिष्ठ व्यक्तियों की संस्कृति को समृद्ध करने और समतावादी पर्वों को प्रचारित-प्रसारित करने हेतु संकल्पबद्ध है। इसी संदर्भ में बहुजन समाज ने माता सावित्रीबाई फुले के जन्मदिवस, 3 जनवरी, को ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में अंगीकार करने की पहल की। सावित्रीबाई, जिन्होंने भारत की बहुसंख्यक जनता, विशेषकर नारी जगत, को शिक्षा का दीप प्रज्ज्वलित कर दिखाया, उनके योगदान को सम्मान देने हेतु यह निर्णय लिया गया। देश के लगभग 85 प्रतिशत जनमानस ने इस पहल का समर्थन किया और इसे जन-जन तक पहुँचाने का संनाद किया (स्रोत: बहुजन संगठन रिपोर्ट, 2020)।
किंतु आज, 5 सितंबर को, उसी बहुजन समाज के लोग ‘शिक्षक दिवस’ की शुभकामनाएँ अर्पित कर रहे हैं। प्रश्न उठता है—वे किसका जन्मदिवस मना रहे हैं? 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में अंगीकार कर वे किस विचारधारा और संस्कृति को संवर्धन दे रहे हैं? क्या यह तिथि समतावादी संस्कृति, समाज और उद्देश्यों से संनादति है? सोशल मीडिया पर समतावादी नायकों के चित्र साझा करना एक सकारात्मक कदम हो सकता है, किंतु क्या इस तिथि का चयन उनकी संस्कृति को सुदृढ़ करता है?
5 सितंबर का संबंध भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस से है, जिसे परंपरागत रूप से शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। किंतु बहुजन दृष्टिकोण से यह तिथि और इसके पीछे की विचारधारा समतावाद से कितनी संनादति है? कुछ विद्वानों का मत है कि राधाकृष्णन की छवि मनुवादी प्रतीक के रूप में देखी जाती है, और यह भी आरोप है कि उन्होंने अपने एक छात्र की शोध प्रबंध को अपने नाम से प्रकाशित किया था (स्रोत: प्रो. के.एन. पणिक्कर, “शिक्षा और नैतिकता,” 2005)। ऐसे में, इस तिथि को शिक्षक दिवस के रूप में मनाना समतावादी नायकों के संघर्ष को कितना सम्मान प्रदान करता है? क्या उनके चित्र साझा करने मात्र से 5 सितंबर का ऐतिहासिक संदर्भ परिवर्तित हो जाएगा?
बहुजन समाज के पास संसाधन, शक्ति और समय सीमित हैं। इनका उपयोग अपने नायकों को स्थापित करने, अपनी संस्कृति और विचारधारा को सशक्त करने में होना चाहिए। किंतु इसके विपरीत, परंपरागत पर्वों, नायकों और विचारों को बढ़ावा देने में इनका अपव्यय हो रहा है। यह न केवल निरर्थक है, अपितु समतावादी आंदोलन के मूल संकल्प को क्षीण भी करता है। बाबासाहेब ने कहा था, “शिक्षा वह शस्त्र है जो सामाजिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करती है।” (स्रोत: आंबेडकर, “एजुकेशन एंड सोशल चेंज,” 1945)। इस संदर्भ में सावित्रीबाई का योगदान 3 जनवरी को स्मरण करना अधिक प्रासंगिक है।
समतावादी समाज को अपने नायकों और आंदोलन से संनादति तिथियों का चयन सावधानीपूर्वक करना चाहिए। माता सावित्रीबाई फुले का जन्मदिवस, 3 जनवरी, एक ऐसा अवसर है जो शिक्षा के क्षेत्र में उनके अतुलनीय योगदान को सच्चे अर्थों में अभिनंदित करता है। इस तिथि को प्रचारित-प्रसारित करने हेतु सकारात्मक प्रयास अपेक्षित हैं। विषमतावादी संस्कृति, उसके नायकों, तिथियों और पर्वों को संवर्धन देकर समतामूलक समाज का निर्माण संभव नहीं। मान्यवर कांशीराम ने स्पष्ट किया था, “अपनी संस्कृति को जीवित रखने के लिए हमें अपनी पहचान को प्राथमिकता देनी होगी।” (स्रोत: बहुजन संगठक, 15 अगस्त 1992)।
अंत में, यह आत्ममंथन आवश्यक है कि समतावादी नायकों के चित्र साझा करना तब तक अपूर्ण है, जब तक हम उनकी विचारधारा और संघर्ष से संनादति तिथियों को अंगीकार नहीं करते। 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाने के स्थान पर 3 जनवरी को माता सावित्रीबाई फुले के सम्मान में एकजुट होना समतावादी संस्कृति को सुदृढ़ करने का सच्चा प्रयास होगा। यही बहुजन आंदोलन की प्रगति का मार्ग है।
स्रोत और संदर्भ:
- बहुजन संगठन रिपोर्ट, “3 जनवरी: शिक्षक दिवस प्रस्ताव,” 2020, बहुजन प्रकाशन।
- प्रो. के.एन. पणिक्कर, “शिक्षा और नैतिकता: राधाकृष्णन पर प्रश्न,” जर्नल ऑफ इंडियन एजुकेशन, 2005, पृ. 34-36।
- डॉ. बी.आर. आंबेडकर, “एजुकेशन एंड सोशल चेंज,” संकलित रचनाएँ, खंड 3, 1945, प्रकाशक: भारत सरकार।
- मान्यवर कांशीराम, उद्धरण, बहुजन संगठक, 15 अगस्त 1992, अंक 12, वर्ष 10।
- सावित्रीबाई फुले, “शिक्षा का महत्व,” पत्र संग्रह, 1851, पुणे विश्वविद्यालय अभिलेख।