आठ लाख वेतन फिर भी नही मिल रहे सफाईकर्मी.
यह खबर आस्ट्रेलिया से आ रही है. यहां सफाईकर्मी नही मिल रहे हैं. सफाईकर्मियों को मोटी तनख्वाह देने के बावजूद भी लोग यहां सफाईकर्मी बनने के लिए तैयार नही हो रहे हैं. इसी खबर के संदर्भ में शैलेंद्र फ्लेमिंग आपबीती बता रहे हैं…
जातिव्यवस्था खतरनाक है. यह मानवताविरोधी है. जातिव्यवस्था निर्धारित करती है कि आप अगर सफाई का काम कर रहे हैं तो आपके बच्चों को भी यही करना पड़ेगा. आप अगर मरे जानवर उठाने का काम कर रहे हैं तो आपके बच्चों को भी मरे जानवर ही उठाने पड़ेंगे. आप अगर बाल काटने का काम कर रहे हैं तो आपके बच्चों को भी यही करना होगा और आप अगर पशुपालन कर रहे हैं तो आपके बच्चों को भी स्कूल जाने की बजाय पशुपालन ही सिखाना होगा.
जिन लोगों को इसमें “अस्वच्छ पेशों” तक सीमित कर दिया गया, उन लोगों के प्रति बाकी की जातियों के दिमाग में नफ़रत भी भर दी गई. उन्हें उस गन्दगी से भी गन्दा घोषित कर दिया गया जिसको फेंकने के लिए उन्हें मजबूर किया गया.
देश आज़ाद हुआ और इस वादे के साथ आगे बढ़ा, आज़ाद भारत में प्रत्येक नागरिक को समता का अधिकार मिलेगा, देश के प्रत्येक नागरिक के विकास के लिए काम किया जाएगा. डॉ अम्बेडकर से जितना बन सका उतना अच्छा संविधान उन्होंने देश को दिया. उन्होंने छुआछूत को ख़त्म करने के लिए सख़्त कानून की व्यवस्था की. जातिव्यवस्था को हतोत्साहित करने के लिए जितने उपाय उस समय सम्भव हो सके उन्होंने किए. तमाम उपायों के बाद भी वैसा हो न सका जैसा हमसे आज़ादी के समय वादा किया गया था. ख़ासतौर से अनुसूचित जातियों के साथ होने वाली छुआछूत की घटनाएं आज भी आम हैं. जातीय गर्व में होने वाली उनकी हत्याएं आज भी जारी हैं.
इस जातिव्यवस्था में उनको सबसे निचला दर्ज़ा दिया गया है जिन्हें सफ़ाई कार्यों तक सीमित कर दिया गया है. आश्चर्य की बात यह है कि इनसे वे भी छुआछूत करते हैं जो दूसरी सछूत जातियों के लिए “अछूत” हैं. सफ़ाई कार्यों तक सीमित किए लोगों की दुनिया अपना घर और घर के बाहर वह छोटा सा मोहल्ला होता है जिसमें ये रहते हैं. उस छोटे से मोहल्ले के बाहर क़दम रखते ही इनके लिए दूसरी दुनिया की शुरूआत हो जाती है.
जो गली इनके मोहल्ले को अलग करती है उसमें लोग सारी चिंताओं से दूर चेहरे पर ख़ुशी लिए इधर से उधर निकलते रहते हैं लेकिन इस जाति में घेरे गए लोग जैसे ही उस गली में क़दम रखते हैं इनके चेहरे पर उदासी होती है और दिमाग में डर. इन्हें डर रहता है कि धोखे से किसी को “छू” न जाऊँ.
इनके मोहल्ले की सरहद के उस पार स्थित दुकान जो इन्हीं की खरीददारी से चलती है, पर सबके लिए बैठने को जगह होती है, इनके लिए नहीं. जो दुकान इनके पैसे से चलती है, गर्मियों में उस पर सभी के लिए पानी होता है लेकिन इनके लिए नहीं…
जब ये आगे बढ़ते हैं, इनके मोहल्ले के पास स्थित किसी हलवाई की दुकान पर बैठकर नाश्ता करने की इन्हें इज़ाजत नहीं होती है. आज भी कई ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ हलवाइयों की दुकानों पर नाश्ते के बाद अपने हाथ से ये मग उठाकर पानी पीने की इनकी हिम्मत नहीं कर पाते आख़िर क्यों…?
क्योंकि वे जानते हैं कि अगर उन्होंने यह ज़ुर्रत की तो उन्हें बेरहमी से पीटा जाएगा…
उनके मोहल्ले से बाहर की यह दुनिया इस जाति के अनपढ़ और सफ़ाई पेशे में लगे लोगों के लिए ही क्रूर और अत्याचारी नहीं है बल्कि इस जाति के प्रत्येक पढ़े लिखे व्यक्ति के साथ भी यह उतनी ही मक्कार और क्रूर है. क़दम-क़दम पर जातीय नफ़रत और छुआछूत के ज़हर को बर्दाश्त करके मैंने पढ़ाई की और अध्यापक बना.
बहराइच में 7 साल रहने के दौरान मन हमेशा अपने जनपद में जाकर सफाई कार्यों तक सीमित कर दिए गए लोगों के बच्चों को शिक्षा से जोड़कर उस सफ़ाई पेशे से दूर कर देने का विचार रहा. क़रीब 7 साल बाद उस दृढ़ संकल्प को लेकर मैं अपने जनपद में पहुँचा. पहुँचते ही मैंने वह काम शुरू कर दिया. मेरा लक्ष्य स्कूल जा रहे वे किशोर थे जो कक्षा 8 से ऊपर पढ़ रहे हैं. मुझे पता था अगर इन्हें किसी सामान्य से रोजगारपरक कोर्स से जोड़ दिया जाए तो ये सफाई पेशे से दूर हो जाएंगे. हमारे निःशुल्क कोचिंग सेंटर में बच्चे आने लगे. संख्या लगभग 25 की हो गई. तीन बच्चे फैशन डिजाइनिंग कोर्स के आगरा जाने के लिए तैयार हुए. फ़िर न जाने क्यों धीरे-धीरे बच्चों की संख्या घटने लगी. मेरे पास 5-6 बच्चे शेष रह गए थे. ये सभी मेरे क़रीबी रिश्तेदार थे. मजबूरी में मुझे वह कोचिंग सेंटर बंद करना पड़ा. जो तीन बच्चे फ़ैशन डिजाइनिंग कोर्स के लिए आगरा गए थे, उनमें से एक वापस लौट आया. दो ने कोर्स पूरा किया. कोर्स पूरा करते ही अच्छी जॉब मिल गई. दोनों को आज 15000 से 18000 रुपए प्रतिमाह मिल रहे हैं.
जैसी यह ख़बर ऑस्ट्रेलिया से आई है वैसी ख़बर मैं अपने जनपद से पूरे देश में पहुँचाना चाहता था. जिससे पूरे देश में ऐसा बदलाव हो सकता. मैं ऐसा ही उद्देश्य लेकर बहराइच से अपने जनपद में आया था, ऐसा उद्देश्य जो अगर पूरा हो जाता तो कुछ ऐसी ही ख़बर हमारे जनपद से छपती; “इस जनपद में अधिक वेतन पर भी नहीं मिल रहे हैं सफ़ाई कर्मी.”
समय बढ़ता गया, मेरी ही आंखों के सामने इस जाति के तमाम लड़के लड़कियां एक-एक करके सफ़ाई पेशे में चले गए. जिन्हें मैं शिक्षा से जोड़कर इस अपमानित करने वाले पेशे से अलग करना चाहता था. जिन बच्चों को मैं पढ़ा रहा था उनमें से भी एक ने वही झाड़ू थाम ली जिसके कारण उसकी जाति में घेरे गए लोगों को इंसान भी नहीं समझा जाता….
(लेखक: शैलेंद्र फ्लेमिंग, यह लेखक के निजी विचार हैं)