प्रस्तावना: विविधता और जाति व्यवस्था
भारत एक विविधतापूर्ण देश है, जहाँ अनेक भाषाएँ, धर्म और हजारों जातियाँ सह-अस्तित्व में हैं। यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में जाति एक केंद्रीय तत्व रही है। लोकतंत्र का आधार समाज के प्रत्येक वर्ग की सक्रिय भागीदारी और स्व-प्रतिनिधित्व है, जो राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में समावेशिता सुनिश्चित करता है। लेकिन भारत में यह आदर्श अधूरा है।
जातिगत बहिष्करण: एक सहस्राब्दी समस्या
सदियों से नहीं, बल्कि सहस्राब्दियों से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जैसी सांस्कृतिक रूप से प्रभावशाली जातियों का आधिपत्य रहा है। इसके परिणामस्वरूप, दलित, आदिवासी और ओबीसी जैसे हाशिये पर पड़े समुदाय सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में बहिष्करण और अत्याचार के शिकार हुए हैं। यह स्थिति भारत के लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
स्वतंत्र राजनीति पर संकट
दलितों, आदिवासियों और ओबीसी की आत्मनिर्भर राजनीति कई बुराइयों की भेंट चढ़ गई है। निम्न सामाजिक स्थिति, सांप्रदायिकता, साम्यवाद, धन-बल, मीडिया, माफिया और ईवीएम जैसे कारकों ने इन समुदायों के वास्तविक नेतृत्व को कमजोर किया है। नतीजतन, इन वर्गों के सच्चे प्रतिनिधियों के बजाय अवसरवादी और चाटुकार नेता सामने आ रहे हैं। यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है।
वर्तमान चुनावी पद्धति: फर्स्ट पास्ट द पोस्ट
पिछले सात दशकों से भारत ने “फर्स्ट पास्ट द पोस्ट” (एफपीटीपी) चुनावी पद्धति को अपनाया है। आजादी के समय यह निर्णय अशिक्षित आबादी को ध्यान में रखकर लिया गया था। तब 1951 में साक्षरता दर मात्र 18.33% थी, जो 2024 तक बढ़कर 80% हो गई है। यह उपलब्धि हमें नई संभावनाओं की ओर सोचने का अवसर देती है। आज भारत में व्यक्ति से अधिक राजनीतिक दल और उनकी विचारधारा चुनाव लड़ रही है (कुछ अपवादों जैसे बाहुबली और अपराधी नेताओं को छोड़कर)। ऐसे में क्या यह वक्त नहीं कि हम अपनी चुनावी प्रणाली पर पुनर्विचार करें?
आनुपातिक प्रतिनिधित्व: एक बेहतर विकल्प
चुनावी सुधार के तहत “आनुपातिक प्रतिनिधित्व” (Proportional Representation) पद्धति एक संभावनाशील विकल्प हो सकती है। इसमें मतदाता किसी पार्टी को वोट देते हैं, और प्रत्येक पार्टी को प्राप्त वोटों के अनुपात में सीटें आवंटित होती हैं। यह प्रणाली लोकसभा, विधानसभा और पंचायतीराज चुनावों में लागू हो सकती है। इससे दलित, आदिवासी और ओबीसी जैसे मूक समुदायों को उनकी जनसंख्या के अनुरूप प्रतिनिधित्व मिलेगा, जो वर्तमान व्यवस्था में संभव नहीं हो पा रहा।
प्रयोग की आवश्यकता
एफपीटीपी के सात दशकों के अनुभव के बाद, आनुपातिक प्रतिनिधित्व को अपनाने और प्रयोग करने में कोई जोखिम नहीं है। बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा रचित संविधान एक जीवंत दस्तावेज है, जो भारत की बेहतरी के लिए हर संभव उपाय की गुंजाइश देता है। यदि यह प्रयोग सफल होता है, तो यह लोकतंत्र को मजबूत करेगा। यदि नहीं, तो संविधान संसद को बेहतर विकल्प चुनने की शक्ति देता है।
निष्कर्ष: चर्चा की शुरुआत
भारतीय संसद, जनता, शिक्षाविदों और सभी हितधारकों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति पर खुली और स्वस्थ चर्चा शुरू करनी चाहिए। यह सुधार न केवल हाशिये के समुदायों को उनकी आवाज देगा, बल्कि भारत के लोकतंत्र को और समावेशी बनाएगा। यह समय है कि हम संविधान की भावना को साकार करें और एक ऐसे भारत का निर्माण करें, जहाँ हर वर्ग की हिस्सेदारी सुनिश्चित हो।