वैश्वीकरण ने दुनिया को गांव बना दिया है. इस ग्लोबल विलेज में दुनिया सिमट गयी है. लोग करीब आ गये हैं.
सर्वत्र प्रचारित और प्रसारित होने वाला यह वक्तव्य बड़ा लुभावना लेकिन भ्रामक है. गौर से देखने पर यह वैश्वीकरण की अवधारणा विश्वजनित सच्चाई और सार्वभौमिक सत्य नहीं, बल्कि सिर्फ मुट्ठीभर लोगों का व्यावसायिक और व्यापारिक समूह है, जिसने दुनिया को गांव बना लिया है.
बेशक संचार माध्यमों की विस्फोटक क्रांति ने दुनिया को गांव बना दिया है. लोग करीब आ गये हैं, दुनिया सिमट गयी है.
सच पूछें तो वैश्वीकरण ने दुनिया को मण्डी बना दिया है. हर चीज बिकने लगी है. जो कुछ भी बिक रहा है, बस वही दिख रहा है. वही टिक रहा है. जो बिक नहीं सकता, वह दिख नहीं सकता. हर चीज उपभोक्तावाद की चपेट में आ गयी है. धर्म भी प्रदर्शन, प्रचार, विज्ञापन पर आश्रित हो गया है. अब प्रेम भी उसका शिकार है.
वेलेन्टाइन डे (Valentine Day 14 February) मनाया जा रहा है. इस पर्व को जो लोग भारत की संस्कृति पर हमले के रूप में देख रहे हैं और इसका विरोध कर रहे हैं वास्तव में वो उन लोगों की ही सहायता कर रहे हैं. जो इस दिवस के प्रचार, प्रसार व विज्ञापन पर अरबों डॉलर खर्च कर रहे हैं. विरोध से चीजें अक्सर ज्यादा प्रचार व स्थापना पाती हैं. प्रतिबन्धित किताबें और फिल्में ज्यादा हिट हो जाती हैं. भारतीय चिन्तकों को यह बात समझनी चाहिए.
भारत के युवक युवतियाँ एक बात अच्छी तरह समझ लें कि जो शक्तियाँ वेलेन्टाइन डे के प्रचार-प्रसार में सक्रिय हैं उनकी मंशा यह नहीं है कि दुनिया अधिक से अधिक प्रेममय हो जाए. उनका एक मात्र उद्देश्य है कि आपके ह्रदय की कोमलता व सुन्दरतम भावना को अधिक से अधिक भुनाया जा सके. आर्चीज, रेड रोज, क्यूपिड, यूएसए ग्रीटिंग, स्पेड, हार्ट के कार्ड और उपहार सामग्री अधिक से अधिक बेचे जा सकें. यदि यह हो पा रहा है तो व्यवसायिक समूहों की दृष्टि में दुनिया गाँव बन रही है. वैश्वीकरण सफल हो रहा है. यदि उपरोक्त उत्पादों को खरीदे बिना भारत के युवक, युवतियां अपने प्रेम का इजहार कर लें तो व्यापारिक दुनिया कहेगी कि भारतीय युवा समाज पिछड़ा हुआ है, बैकवर्ड है, उसमें निर्भीकता व बोल्डनेस नहीं.
वेलेन्टाइन डे के बारे में अगर गम्भीरता से विचार किया जाए तो यह भौतिक नहीं बल्कि आध्यात्मिक दिवस है. यह एक संत के प्रति श्रद्धा निवेदन का दिवस है. इसकी महत्ता क्रिसमस डे और मदर टेरेसा के जन्मदिन से कम नहीं है. लेकिन उपभोक्तावाद ने इसे हाईजैक कर लिया है. इसने सृष्टि के कोमलतम व सुन्दरतम तत्व प्रेम को इतने विकृत रूप में प्रचारित करना शुरू किया है कि प्रेम के फूल से बारूद की बू आने लगी है, जिसके विस्फोटक परिणाम हमें अपने देश में दिखायी देने भी लगे हैं.
वर्ष 1996 में इंग्लैंड में एक किताब चर्चा में रही थी, पैट्रिक डिक्सन की- ‘राइजिंग प्राइस ऑफ लव.’ प्रमुख पत्र पत्रिकाओं ने इस पर सम्पादकीय लिखे थे.
यह किताब पैट्रिक डिक्सन के सामाजिक सरोकार का एक शोधग्रंथ है. लेखक ने इंग्लैंड की सामाजिक व्यवस्था में उभर रही अव्यवस्थाओं जैसे हिंसा, ड्रग, अपराध, हत्या, आत्महत्या, तलाक, मुकदमेबाजी, अवैध संतान, गिरते हुए नैतिक मूल्य इत्यादि के कारणों का सांख्यकीय आंकड़ों के आधार पर गहरा अध्ययन किया है और चौंकाने वाला कारण पाया सिर्फ प्रेम.
पैट्रिक डिक्सन के शोधानुसार उक्त सारी अव्यस्थाओं का कारण है सिर्फ एक-प्रेम. उन्मुक्त प्रेम, जो पश्चिम की युवा पीढ़ी का आज नारा बन चुका है, जिसे वो निर्भीकता कहते हैं. इस निर्भीकता की, कथित प्रेम की इंग्लैंड को बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है. इसलिए उसने किताब को शीर्षक दिया है- राइजिंग प्राइस ऑफ लव.
आंकड़ों और अध्ययन के आधार पर पैट्रिक डिक्सन ने दर्शाया है कि कथित प्रेम के चलते जो अवैध संताने जन्म लेती हैं उनका कोई वारिस नहीं होता. इन लावारिस संतानों को पालने के लिए सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं को अनाथ आश्रमों की व्यवस्था करनी पड़ती है, जो कि प्रकारान्तर से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर एक अतिरिक्त बोझ बनते हैं.
माता-पिता व परिवार के भावनात्मक संरक्षण से वंचित ये संतानें जब बड़ी होती हैं तो इनमें अनेक मनोविकृतियां जन्म ले चुकी होती हैं, जिनका किसी मनोचिकित्सक के पास कोई इलाज नहीं होता. इनकी किसी पर आस्था नहीं होती। स्वयं पर भी नहीं. ये कोई मूल्य नहीं जानते. ये किसी के नहीं होते क्योंकि कोई इनका नहीं होता. ये आसानी से दिशाहीन हो जाते हैं अथवा किये जाते हैं. सभी तरह के अपराधी तत्व इनका इस्तेमाल करते हैं. यह मूल्यहीन, दिशाहीन पीढ़ी अपराधी बनती है. पुलिस अदालत, अस्पतालों पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है, जो अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय बोझ होता है. ये निरक्षर रह जाते हैं. भिखारी भी बनते हैं, कोई विद्यालय अथवा स्वयंसेवी संस्था इनको शिक्षित करने अथवा श्रेष्ठ नागरिक बनाने के वादे नहीं कर सकती. ये कथित प्रेम पारिवारिक इकाई को भी तोड़ता है जो कि पूरी सामाजिक व्यवस्था को कमजोर करती है. व्यवस्था, समाज व्यवस्था को जर्जर करती है. कमजोर अर्थव्यवस्था और समाज व्यवस्था के साथ राष्ट्र मजबूत कैसे हो सकता है?
भारत के नौजवानों को देखना होगा कि कहीं उनके कदम उसी तरफ तो नहीं बढ़ रहे हैं कि पैट्रिक डिक्सन का अध्ययन भारतीय समाज के लिए सच साबित होने लगे क्योंकि उपभोक्तावाद भारत को भारत बने रहने देना नहीं चाहता है. वह भारत को इंडिया बना देना चाहता है. हालांकि आंशिक रूप से भारत के अन्दर इंडिया विकसित होने लगा है. इस इंडिया में वह सारे तत्व पनपने लगे हैं जिसकी चिंता पैट्रिक डिक्सन को इंग्लैंड के लिए है.
उपभोक्तावाद की शब्दावली में बोल्डनेस का मतलब वैचारिक निर्भीकता नहीं है, अवैज्ञानिक मान्यताओं को नकार सकने की हिम्मत का नाम भी बोल्डनेस नहीं है. समाज की रूढ़ मान्यताओं को तोड़ सकने के साहस का नाम भी निर्भीकता नहीं है. उपभोक्तावाद की शब्दावली में बोल्डनेस का एकमात्र अघोषित मतलब है – बेशर्मी, निर्लज्जता.
सच्ची निर्भीकता का मतलब है झूठ को नकारने की हिम्मत और सच को स्वीकारने का साहस, समाज की रूढ़ मान्यताओं और अवैज्ञानिक परम्पराओं को तोड़ सकने की हिम्मत और अपनी कमजोरियों से उभर सकने का साहस, जिसमें ऐसी निर्भीकता है वह युवा या युवती अपने प्रेम के लिए ज्योतिषियों से परामर्श नहीं लेगें, अपने साथी की जाति नहीं पूछेंगे, प्रेम में मजहब को आड़े नहीं आने देगें.
अगर प्रेम भी कुण्डली मिलान करायेगा, ग्रहों, नक्षत्रों, राशियों की अनुकूलता, प्रतिकूलता विचारेगा, ज्योतिषियों से तिथियां पूछेगा, प्रेमी, प्रेमिका की जाति पूछेगा तो यह प्रेम नहीं है, निर्भीकता नहीं है, बोल्डनेस नहीं हे, सिर्फ प्रेम और निर्भीकता का ढोंग है.
(लेखक: राजेश चंद्र जी; ये लेखक के अपने विचार हैं)