बहुजन आंदोलन का संकट: अपने ही बुद्धिजीवियों से खतरा
प्रस्तावना: एक आत्मघाती प्रवृत्ति का उभार
आज बहुजन समाज के बीच एक ऐसी चर्चा आम हो चली है, जो चिंतन को मजबूर करती है। तथाकथित बहुजन बुद्धिजीवी, कार्यकर्ता, और समर्थक आपस में संवाद करते हुए अक्सर कहते हैं कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) भटक गई है, कमजोर हो गई है, डर गई है, और खत्म हो गई है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 में बसपा को मात्र एक सीट मिलने का हवाला देकर ये लोग इसे प्रमाण मानते हैं। यदि कोई सच्चा आंदोलनकारी इनके बीच मौजूद हो, तो ये तथाकथित लोग उस पर भूखे भेड़ियों की तरह टूट पड़ते हैं। यह प्रवृत्ति न केवल बसपा के लिए, बल्कि पूरे बहुजन आंदोलन के लिए खतरे की घंटी है। यह लेख इस आत्मघाती सोच की पड़ताल करता है और बहुजन समाज के बुद्धिजीवियों के दोहरे चरित्र को उजागर करता है, जो अपने ही नेतृत्व को कमजोर कर मनुवादियों का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं।
बहुजन बुद्धिजीवियों का स्वार्थ: आंदोलन पर प्रहार
हर समाज में बुद्धिजीवी वर्ग अपने प्रभाव क्षेत्र के माध्यम से सकारात्मक या नकारात्मक माहौल बनाता है। बहुजन समाज में भी ऐसा वर्ग मौजूद है, परंतु यहाँ यह वर्ग स्वार्थ और निर्लज्जता की चरम सीमा पर पहुँच चुका है। ये तथाकथित बुद्धिजीवी, साहित्यकार, लेखक, पत्रकार, यूट्यूबर, और बौद्धाचार्य अपने नेतृत्व—मान्यवर कांशीराम साहेब और बहनजी—का खंडन करने में जुटे हैं। ये लोग बसपा के खिलाफ मोर्चा खोलकर नकारात्मक प्रचार करते हैं और विरोधियों को बढ़ावा देते हैं। इनके इस व्यवहार से बहुजन समाज की एकता और स्वतंत्र पहचान खतरे में पड़ रही है। सवाल यह उठता है—क्या इन लोगों ने कभी अपने समकक्ष मनुवादी बुद्धिजीवियों से अपनी तुलना की? यदि ऐसा किया होता, तो वे समझते कि उन्होंने आंदोलन को मजबूत करने में योगदान नहीं दिया, बल्कि मनुवादियों से भी अधिक रोड़े अटकाए हैं।
दो खेमों की तुलना: निष्ठा और समर्पण का अंतर
बसपा की स्थिति यदि भाजपा से तुलनात्मक रूप से कमजोर दिखती है, तो इसके पीछे दोनों खेमों के बुद्धिजीवियों की सोच और कृत्यों का अंतर स्पष्ट है। मनुवादी बुद्धिजीवी अपने नेतृत्व—चाहे वह नरेंद्र मोदी हों या अन्य—के प्रति अटूट निष्ठा और समर्पण दिखाते हैं। वे हर परिस्थिति में अपनी पार्टी के साथ खड़े रहते हैं, उसके गलत कृत्यों को भी देशहित में प्रचारित करते हैं, और संगठन को मजबूत करने में तन-मन-धन से जुटे रहते हैं। इसके विपरीत, बहुजन समाज के तथाकथित बुद्धिजीवी बसपा और बहनजी का विरोध करते हैं, उनकी सकारात्मक उपलब्धियों को भी नजरअंदाज करते हैं, और चुनावों में सपा, राजद, जदयू जैसे मनुवादी दलों का समर्थन करते हैं। जहाँ मनुवादी खेमा एकजुट होकर बसपा से लड़ता है, वहीं बसपा को भीतर और बाहर दोनों मोर्चों पर संघर्ष करना पड़ता है। यह असमान लड़ाई बसपा की चुनौतियों को कई गुना बढ़ा देती है।
स्वार्थ बनाम समर्पण: व्यवहार का अंतर
बहुजन बुद्धिजीवियों का व्यवहार स्वार्थ से प्रेरित है। वे राजनीति से डरते हैं, बहनजी से सलाह देने की उम्मीद रखते हैं, पर उनके आदेशों का पालन नहीं करना चाहते। वे बसपा की आर्थिक आत्मनिर्भरता को कमजोरी बताते हैं, लेकिन धन्नासेठों से चलने वाली भ्रष्ट पार्टियों को पसंद करते हैं। वे नेतृत्व का खंडन करते हैं, सकारात्मक उपलब्धियों को सेलिब्रेट नहीं करते, और नकारात्मकता में डूबे रहते हैं। इसके उलट, मनुवादी बुद्धिजीवी अपने नेतृत्व के हर आदेश का पालन करते हैं, नकारात्मक कृत्यों को भी सकारात्मक प्रचारित करते हैं, और संगठन के लिए स्वयंसेवक बनकर कार्य करते हैं। जहाँ बहुजन खेमा अतीत में खोया रहता है, वहीं मनुवादी खेमा भविष्य के लिए सृजन करता है। यह अंतर बहुजन आंदोलन की कमजोरी और मनुवादी शक्ति का मूल कारण है।
आंदोलन का अंदरूनी संकट: केकड़ा बनाम मधुमक्खी
बहुजन समाज के तथाकथित बुद्धिजीवी ‘केकड़ा प्रवृत्ति’ के प्रतीक हैं—वे अपने नेतृत्व के बढ़ते कदमों को रोकते हैं, एक-दूसरे को नीचे खींचते हैं, और संगठन को कमजोर करते हैं। वे बाबासाहेब, फुले, शाहू, और बहनजी की उपलब्धियों को प्रचारित करने के बजाय विरोधियों की चर्चा करते हैं। दूसरी ओर, मनुवादी बुद्धिजीवी ‘मधुमक्खी प्रवृत्ति’ के हैं—वे एकजुट होकर अपने नेतृत्व को मजबूत करते हैं, चाहे वह सावरकर हों, गोलवलकर हों, या मोदी। बहुजन खेमा सैकड़ों संगठनों में बंट गया है, जबकि मनुवादी खेमा लाखों संगठनों के बावजूद एकजुट है। यह विडंबना है कि बहुजन बौद्धाचार्य तक अपने नेतृत्व के लिए एक शब्द नहीं बोलते, जबकि मनुवादी धर्मगुरु अपने नेतृत्व के गलत कृत्यों को भी देशहित में प्रचारित करते हैं।
निष्कर्ष: आत्मचिंतन और पुनर्जागरण की आवश्यकता
बहुजन समाज को खतरा केवल मनुवादियों से नहीं, बल्कि अपने ही तथाकथित बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, लेखकों, पत्रकारों, और बौद्धाचार्यों से भी है। ये लोग बहुजन समाज की स्वतंत्र पहचान को दीमक की तरह खोखला कर रहे हैं और मनुवादियों का कार्य आसान बना रहे हैं। यदि शोषित समाज को अपनी मुक्ति चाहिए, तो उसे इन आंतरिक शत्रुओं से सावधान होना होगा। बसपा और बहनजी का विरोध करने के बजाय, उनकी सकारात्मक उपलब्धियों को सेलिब्रेट करना, उनके संघर्ष को प्रचारित करना, और उनके नेतृत्व के साथ एकजुट होना समय की माँग है। यह आंदोलन तब तक सफल नहीं होगा, जब तक बहुजन समाज अपने स्वार्थी बुद्धिजीवियों से मुक्ति नहीं पाता और ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की नीति पर अडिग नहीं रहता। यह लेख एक पुकार है—आत्मचिंतन करें, एकजुट हों, और अपने आंदोलन को उसकी मंजिल तक पहुँचाएँ।