लोग कहते हैं कि धर्म इंसानियत सिखाता है लेकिन, इतिहास और वर्तमान दोनों गवाह हैं कि जब-जब लोगों ने धर्म-धर्म चिल्लाना शुरू किया तब-तब निर्दोष लोगों की हत्याएं होना आम बात हो जाती है. मासूम बच्चों तक को भी नही बख्शा जाता और हवस के अंधे लोग औरतों को तो बख्शेगें क्यों?
इतिहास गवाह हैं, धर्म की आड़ में तानाशाही जन्म लेने लगती है और इंसानियत की पैरवी य़ा तार्किक विरोध भी धर्म के खिलाफ साबित करना शुरू कर दिया जाता है. फिर किसी सनकी हिटलर, मुसोलिनी, लादेन य़ा बगदादी के हाथों में किस्मत लिखने को दे दी जाती है. फिर कोई राष्ट्र ईराक या सीरिया की राह पकड लेता है य़ा फिर जर्मनी या इटली की य़ा फिर बर्मा या पाकिस्तान आदि की राह पकड़ कर धार्मिक कट्टरता के अंधे कुंए में देश की जनता और देश के भविष्य को धकेल देता है. भुगतना सिर्फ आम जनता को ही है.
अपने देश में तो धर्म के साथ-साथ जातिवाद भी नफरत के 2 सबसे बड़े कारणों में से एक रहा है. जाति य़ा धर्म के नाम कट्टरता की गंदगी से इंसानियत को मरने के लिए ना छोड़े, सरकारों को चाहिए कि जाति-धर्म के नाम पर कट्टरता फैलाने वालों पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानुन (NSA) के तहत गिरफ्तार करके देश में नफरत फैलाने वालों पर शिकंजा कसे रखना चाहिए वरना देश तरक्की कर ही नही पायेगा.
बड़ी अजीब दांस्तान है देश की, हिंदू-हिंदू एक हैं कहके सत्ता चाहते हैं और अपने जातिप्रेम में फंसकर नफरत को संस्कृति माने बैठे हैं. लोगों से हिंदू तक बना नही जाता – एक अच्छा भारतीय बनना तो बहुत दूर की बात है. अभी तक तो जातिवाद भी लोगों के घरों की दीवारों पर चिपका पड़ा है. 5-7 साल के बच्चे से लेकर मरने की आखिरी घड़ियाँ गिनने वाला 80-85 साल का बुजुर्ग तक भी जाति से चिपका पड़ा नजर आना आम घटना हैं. कहीं-कहीं तो मरने के बाद श्मशान भी अलग-अलग जातियों के अलग-अलग हैं. ऐसे में आग में मृतक का शरीर तो जल जाता है लेकिन उसकी जाति उसी राख में वहीं पड़ी रह जाती है जो बाद में चुपके से फिर घरों की दिवारों से चिपक जाती है.
कुछ गलत कह दिया हो तो प्लीज मुझे करैक्ट करना और अगर सही कह रहा हूँ तो अपनी या अपने परिवार वालों की निहायत छोटी सोच पर रोज शर्मिंदा होना चाहिए ताकि हम सबको ये अहसास रहे कि देश में आपने हमने मिलकर कितनी नफरत भर दी है.
(लेखक: एन दिलाब सिंह; ये लेखक के अपने विचार हैं)