आज गाँधी वर्सेज गोडसे फिल्म यू -टयूब पर देखने लगा, फिल्म मे जबरदस्ती गोडसे को गाँधी के समान दिखाने की कोशिश की गई हैं. फिल्म बुरी तरह फ्लॉप हुई थी. लेकिन, इस फिल्म का गाँधी और गोडसे के बीच एक संवाद बहुत जबरदस्त लगा. गोडसे कहता है कि, “उसका गाँधी से वैचारिक युद्ध है, इसके जवाब में गांधी गोडसे से कहते हैं कि विचारों के युद्ध में हथियार नही चलते हैं, शरीर तो नश्वर हैं, गोली से आदमी मरता हैं विचार नही.”
मैं गाँधी को उसके दौर का सबसे बड़ा नेता मानता हुँ, उनकी एक आवाज पर लाखों लोग खड़े हो जाते थे. लेकिन, मैं जब गाँधी को बाबासाहेब के साथ 1927-32 के वैचारिक युद्ध में आमने-सामने देखता हूँ, तो मुझे वो कभी भी महात्मा नजर नही आते, मुझे हमेशा वो कट्टर हिन्दू ही नजर आते हैं. जो अछूतो का भला करने वाली सोच के खिलाफ खड़े दिखते हैं. जिसमे वो तथाकथित उच्च हिन्दूओं की दया के भरोसे अछूतों को छोड़ देना चाहते हैं.
1932 में पुणे की यरवदा जेल में अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन कानून लागू होने की जिद्द में आमरण अनशन पर बैठा गाँधी एक बैरिस्टर तो दिखता हैं, एक मंझा हुआ जननेता भी दिखता हैं. लेकिन, महात्मा नही दिखता. डॉ अम्बेड़कर को गांधी की जिद्द के सामने झुकना पड़ा था, जिसकी कीमत आज भी दलित आदिवासी समाज चुका रहा है.
गाँधी मुझे आज के लाला केजरीवाल की तरह ही नजर आते हैं जो अपने ऑफिस में डॉ अम्बेड़कर की मूर्ति लगाकर दलितों की वोटों के बलबूते दिल्ली और पंजाब तो जीत सकता हैं लेकिन दिल्ली पंजाब से जिताये गए 10 निर्विरोध राज्यसभा सांसदो में 2-3 दलित सांसद फिर भी नही दे सकता, वो सब सीटें सवर्ण हिन्दूओं के लिए ही रखेंगा. वो दलित आदिवासियों की बैकलॉग वैकेंसी नही भरवा सकता. लेकिन, पंजाब में सरकारी अटार्नी पदों पर संविधान के तहत रिजर्वेशन का प्रोविजन होने के बाद भी रिजर्वेशन नही देना चाहता.
इसलिए कहता हूँ कि बाबासाहेब डॉ अम्बेड़कर भी एक विचार है, एक टिकाऊ और तर्कसंगत विचार, मूर्तियों को तोड़ने से विचार नही मरा करते. ये जो दलित समाज के कुछ हुल्लड़बाज आम दलितों को नक्सली बनने का रास्ता दिखाते हैं, वो डॉ अम्बेड़कर का रास्ता नही हैं, लोकतंत्र में बदला और बदलाव हथियार से नही बल्कि वोटों की ताकत से लाया जाता हैं, विचारधारा की ताकत आपकी वोटों की ताकत से मजबूत बनती है, उसे हुल्लड़बाजी से कमजोर करने की चेष्टा न करें.
(लेखक: एन दिलबाग सिंह; यह लेखक के अपने विचार)