जीवन मे हम समस्या से डर के भागेंगें तो समस्या हमारे पीछे-पीछे भागेगी. तुम डर से भागते रहोगे लेकिन वो और ज्यादा ताकतवर होकर तुम्हारा पीछा करता रहेंगा. तुम डर कर भगवान की मूर्ती के पीछे खड़े हो जाओंगे लेकिन वो तो सोमरस पीकर कब का सो चुका है, वो तो तब भी नही उठे जब सोमनाथ मन्दिर लुट रहा था, इसीलिए मान लो कि वो तो अब भी नही उठना हैं.
कोई भगवान आकर तुम्हारी समस्या हल करेगा, ऐसा लग तो नही रहा. हो सकता है आपको समस्या से निजात दिलाने के नाम पर पूजा-पाठ, तंत्रमंत्र आदि के नाम पर, हजारों रुपये भगवान के नाम पर ठग लिए जाए और आप खुशी-खुशी इस ठगी में जो पास है वो भी लुटवाते रहो लेकिन समस्या का क्या, वो तो ज्यों की त्यों हैं.
रही बात डर की, लोगों ने हाथों पर कलेवे बाँध के देख लिए, मंत्र जाप करके देख लिए, ताबीज गले में बाँध कर भी देख लिए, हाथों की रेखा और कुन्डली तक सब करके देख लिया. कुछ और बाकी हो तो वो भी करके देख लेना लेकिन एक सच्चाई ये है कि आपके आधे से ज्यादा डर बेवजह हैं.
भगवान से डर है तो कह के देखो कि ये कैसा भगवान जो उनका अस्तित्व नकारने वाले नास्तिकों तक का बुरा नही कर सकता तो मेरा बुरा क्यों करेगा, डर कम हो जायेगा. भूतों से डर है तो सोचो जब जिन्दा था तब पहाड़ नही तोड़ा तो अब जब उसके पास शरीर तक भी नही है तो क्यो डरना है, डर कम हो जायेगा.
अब जो सबसे अजीब डर है दलित आदिवासी जाति में पैदा होने का डर जो तुम शहरों में आकर भी अपनी जातियाँ छुपाकर डरते हो, वैसे तो तुम्हारा कुछ नही हो सकता क्योकि तुमने खुद को ही इतना डरा लिया है कि पेट भरने से आगे कभी अपना गिरा हुआ आत्मसम्मान उठाने के बारे में सोचने की ज़रुरत ही महसुस नही हुई- तुमको ना खुद पर भरोसा है, ना समाज के अच्छे लोगों पर भरोसा है, ना ही उन दलित आदिवासियों पर भरोसा है जो डर से बाहर आत्मसम्मान से जी रहे है, ना तुमको कानून व्यवस्था और संविधान पर भरोसा है- तुम अपनी अर्थी के बोझ से रोज मरो, तुम्हारा कोई इलाज ही नही है.
माना कि समाज में बुराई है लेकिन इसके बावजूद भी तुम आगे बढ़े हो. जातिवाद का आधा जहर तो तुम्हारे डर से ताकतवर हुआ है. तुम आरक्षण से कामयाब होकर भी अपनी अर्थी को शहरों की भीड़ में भी ढ़ोते रहो- ये भी तो सही नही है. माना लड़ाई लम्बी थी लेकिन कुरूतियों और गलत धारणाओं से समाज आगे भी तो बढ़ ही रहा है. तुमने अपने आत्म सम्मान को ही नही मार रखा है बल्कि साथ में बाबासाहेब डॉ अम्बेड़कर, महामना ज्योतिबा फुले व मान्यवर साहेब कांशीराम जैसे महापुरुषों के संघर्षों को भी मारा है- तुम नही डरोगे तो और कौन डरेगा.
सीधा सवाल करना सीखना होगा वरना ये देश यूँ ही आगे भी अपनी अर्थी का बोझ ढ़ोता ही रहेगा. अगर लोकतंत्र भी तुमको डरा रहा है, इसका मतलब ये है कि तुमको अपनी वोट की कीमत आज तक भी पता नही है. डर से बाहर आने का सबसे सिम्पल रास्ता तक समझने में तुम लोगों ने आजादी के बाद के भी 75 साल खराब कर दिये. तुम्हारी वोट से राजा चुना जाता है, राजा चुनना सीखो, पूरे समाज से डर भागेगा क्योकि तुम्हारे साथ अन्याय करने का किसी में हौंसला नही बचेगा.
(लेखक: एन दिलबाग सिंह; ये लेखक के अपने विचार हैं)