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Monday, June 9, 2025

भारत का समाज सभ्य और वैज्ञानिक क्यों नहीं बन पाता?

असल में जब समाज की एकता को स्वाभाविक रूप से बनाए रखने के बजाय षड्यंत्रपूर्वक बनाए रखने का चुनाव किया जाता है तब उस षड्यंत्र के उजागर या असफल होने की संभावना को दबाये रखने में ही पूरी सृजनात्मकता खर्च हो जाती है.

जो लोग वास्तव में इस देश की परम्पराओं और इतिहास पर गर्व करते हैं या करना चाहते हैं उन्हें भारतीय दर्शन के भौतिवाद का अध्ययन करना चाहिए. इस अध्ययन के बाद आप वास्तव में गर्व कर पायेंगे कि भारत में भी सच्चे अर्थों में भौतिकवादियों, श्रमजीवी समाजों और जनजातीय समाजों और स्त्रीयों ने ज्ञान विज्ञान और कला का पहला फूल खिलाया था. हालाँकि बाद में उन्हें मसल दिया गया और तथाकथित आध्यात्मवादी दर्शनों ने सब मटियामेट कर दिया.

इसीलिये स्त्री के सम्मान, भौतिकवाद, लोकतंत्र और विज्ञान के बीच एक सीधा संबंध है. इसी तरह पुरुष सत्ता, धर्मसत्ता, आत्मा परमात्मावाद, और अंधविश्वास के बीच एक सीधा संबंध है. आज आप जिस भारत को देख रहे हैं उसमे स्त्री, भौतिकवाद, सामाजिक समानता और विज्ञान की जो हालत है उसे इस भूमिका के प्रकाश में रखकर देखिये, तब शायद आप भौतिकवाद के सौंदर्य को और भाववाद की असफलता को समझ सकेंगे.

इसी क्रम में जनजातीय समाज और उनके रीतिरिवाजों सहित उनके देवताओं को भी आत्मसात करके उनमे पित्रसत्तात्मक मूल्यों को आरोपित करने का गहरा षड्यंत्र भी उल्लेखनीय है. यह भारत में मातृसत्ता से पित्रसत्ता की तरफ हो रहे षड्यंत्रपूर्ण व बलात संक्रमण का एक अन्य पहलू है. वैदिक समाज जो स्वयं में बहुत अर्थों में जनजातीय समाज ही था जिसके उद्विकास में पित्रसत्ता, सामंतवाद और राज्य का उदय तेजी से हुआ. इस समाज ने अपने विकास की यात्रा में अनेक जनजातीय समाजों के रीति रिवाज और गणचिन्ह सहित उनके देवताओं को भी आत्मसात कर लिया.

इस सन्दर्भ में गणपति या गणेश सबसे उल्लेखनीय बताये जाते हैं. गणपति असल में जनजातीय समाज के गणों के नेता है जो उस समय पूरे भारत में सम्मानित थे और एक अर्थ में विकेन्द्रित सत्ता के सूत्र ये ही संभालते थे. हर जनजातीय और श्रमजीवी समाज का एक गण, गणपति और एक विशेष गणचिन्ह (टोटेम) हुआ करता था. आज जिस गणपति को हम जानते हैं वह हाथी को अपना टोटेम मानने वाली और मूषक को टोटेम मानने वाली जनजाति को जीतने वाले कबीले का गण-नायक था.

इस गणपति की उत्पत्ति जिस तरह से बतलाई गयी है वह भी महत्वपूर्ण है. एक कथा के अनुसार ये पार्वती की विष्ठा से उत्पन्न होते हैं, एक अन्य कहानी में ये उनकी विष्ठा और उबटन से जन्मे हैं. इनका जन्म किसी भी कहानी में इस तरह नहीं बतलाया गया है जिससे कि इन्हें किसी भी वैदिक देवता या चरित्र का रक्त संबंधी बतलाया जा सके. इनका शुरुआती चित्रण एक बेडौल श्रृंगार विहीन भयानक आकृति वाले राक्षस की भाँती मिलता है.

ये आरंभ में संकट पैदा करने वाले और अशुभ माने गए हैं लेकिन जैसे जैसे वैदिक समाज का दायरा बढ़ता है वैसे वैसे अन्य जनजातियों के समाजों को आत्मसात करने की प्रक्रिया भी बढ़ती जाती है. इस प्रक्रिया में हाथी के मुख वाले गणेश धीरे धीरे पूज्य बन जाते हैं और उनके साथ उनके जनजातीय समाज का भी वैदिक या मुख्य धारा के हिन्दू समाज में विलय हो जाता है. ये गणेश या गणपति जो आरम्भ में एक मात्र सत्तात्मक समाज के देवता और विघ्नकर्ता थे वे बाद में वैदिक देवताओं के परिवार में शामिल हो जाते हैं और विघ्नहर्ता बन जाते हैं.

इस तरह भारत में जनजातीय और मातृसत्तात्मक समाज धीरे धीरे पित्रसत्तात्मक समाज में बदलता जाता है और एक केंद्रीकृत धर्म व्यवस्था वाले समाज में विक्सित होता है (यहाँ केंद्रीकृत धर्म व्यवस्था शब्द सांकेतिक है जो जनजातीय समाज की विकेन्द्रित व प्रकृति पूजक व्यवस्था के सापेक्ष है) इस यात्रा में स्त्री की स्वतन्त्रता, समाज निर्माण और संचालन में उसकी सृजनात्मक भूमिका और यौन तथा लैंगिक व्यवहारों में चुनाव की उसकी स्वतंत्रता का ह्वास होने लगता है. इतना ही नहीं इसके स्वाभाविक परिणामस्वरूप समाज एक केंद्रीकृत सामंतवादी या राजतंत्र वादी इकाई में परिवर्तित होता जाता है, कबीलों के स्थान पर राज्यों का उदय होने लगता है. इसी के साथ एक बहुत ही नयी और षडयंत्रकारी प्रक्रिया शुरू होती है जो आज भी हमारे चारों तरफ उसी तरह से जारी है.

जनजातीय और श्रमजीवी जातियों के देवताओं और रीतिरिवाजों को निगलते हुए ये यह अनुभव किया गया कि इन्हें शामिल करते हुए भी इनसे दूरी बनाकर रखी जाए. यह एक तरह की सामरिक और आर्थिक सुरक्षा का पहलू था. नए समाजों को करीब लाना और फिर भी इतना करीब न ले आना कि उनसे रक्त संबंध स्थापित होने लगें या वे समाज की उत्पादन व्यवस्था में या राजनीति में समानता का दावा करने लगे.

इससे नये किस्म के श्रेणीकरण की जो शुरुआत होती है वही समाज को अनेक हिस्सों में तोड़ देती है और उन हिस्सों में आपस में रोटी बेटी के संबंधो का निषेध करने की धर्माग्या में बदल जाती है. इससे भारतीय समाज के हजारों हजार विभाजनों और उंच नींच को समझा जा सकता है.

यह प्रक्रिया एक अन्य आयाम में और अधिक विनाशक साबित हुई है.

समाज को विभाजित करते हुए इसने न केवल एक पाखंडी एकता का झूठा आवरण खडा किया बल्कि इस एकता को बनाए रखने की जिम्मेदारी पूरी तरह से धर्म और धर्मदर्शन पर आ गयी. यह बात गहराई से समझनी चाहिए कि आरंभिक विलय जिस उपाय से संभव होता है उससे उपजी एकता का रक्षण भी उसी उपाय से करना होता है. जैसे कि सैनिक उपायों से विजित राज्य का रक्षण सैन्य उपायों से ही हो सकता है और इस सुरक्षित अवधि में उसकी संस्कृति और धर्म को बदलकर (आत्मसात करके नहीं) उसे स्थायी रूप से अपना अंग बना लिया जाता है.

लेकिन वैदिक समाज ने जो प्रक्रिया अपनाई उसमे सैनिक उपायों की बजाय धार्मिक व समाज-मनोवैज्ञानिक उपायों का इस्तेमाल किया गया. जनजातीय व श्रमजीवी समाजों की मान्यताओं और प्रतीकों को चुराकर उनमे नयी व्याख्याएं आरोपित की गयी. यह कार्य आसान नहीं है इसके लिए बहुत लंबे समय तक समाज को धर्म और धर्म से जुड़े कर्मकांडों में लगातार उलझाए रखने की आवश्यकता होती है.

इसी से समझ में आता है इतने सारे पुराण क्यों रचे गये हैं इतने सारे देवता क्यों हैं और उन देवताओं के विकास क्रम में उनका स्वरुप या मान्यता बदलती क्यों जाती है, और बात बात में धर्म का इतना आग्रह क्यों है ?

इसका अर्थ ये हुआ कि अन्य समाजों को अपने धर्म दर्शन में मनोवैज्ञानिक उपायों से शामिल करने की प्रक्रिया प्रथमद्रिष्टया अहिंसक या सभ्य नजर आती है लेकिन इसके प्रभाव और परिणाम बाद में सभ्यता की परिभाषा को ही खतरे में डाल देते हैं. और भारत में आज हम उसी खतरे के विशाल ढेर पर बैठे हुए हैं. कोई भी धर्म दर्शन या कोई भी कौम जब बहुत तेजी से किसी भी उपाय से अन्य समाजों और धर्म दर्शनों को निगलती जाती है तब उन नए समाजों पर नियंत्रण रखना उसके लिए एक भयानक चुनौती बन जाता है.

जैसे एक पेड़ बहुत तेजी से बड़ा होने लगे तो उसे जमीन पर खडा होना मुश्किल होने लगता है तब वह उंचाई में नहीं बढ़ता बल्कि जमीन पर ही रेंगता हुआ फैलता है. विज्ञान, तर्क और लोकतंत्र की उंचाइयां उसके लिए दुर्लभ होती जाती है और भयानक रूप से केंद्रीकृत राजसत्ता या धर्म सत्ता पर आधारित शासन व्यवस्थाएं आकार लेने लगती हैं. तब एक इश्वर और अद्वैत की धारणाएं विकसित होती हैं वह इश्वर प्रकृति की शक्ति का एक रूप नहीं बल्कि प्रकृति का निर्माता होता है. जिस जिस रूपक या गुणों से एक तानाशाह राजा या धर्मगुरु को सुरक्षा और वैधता मिलती है उस उस गुण का आरोपण उस इश्वर में होने लगता है. इस तरह से धीरे धीरे स्वाभाविक रूप से विज्ञान, लोकतंत्र, मानवाधिकार और स्त्री की स्वतन्त्रता सबसे पहले कुचल दिए जाते हैं. भारत सहित पूरे अरब जगत की स्थिति को इस सूत्र से समझा जा सकता है.

इस पूरी प्रक्रिया का विज्ञान विरोधी पहलू और गहराई से देखना चाहिए. नए समाजों को स्वयं में मिलाते हुए भी उन्हें एक ख़ास दूरी तक बनाए रखना एक खतरनाक और श्रमसाध्य काम है. इसके लिए षड्यंत्र के चाक को लगातार घुमाए रखना होता है. नए नए अवतारों पुराणों देवी देवताओं का आविष्कार करते रहना होता है. हर नए समाज को निगलने के लिए उसके धर्म और रीति रिवाजों को अपने धर्म और रीति रिवाजों से साम्य दिखाकर सम्मोहित करना होता है. साथ ही उनके देवताओं को अपने देवताओं की लगातार लंबी होती जाती लिस्ट में उचित स्थान देना होता है.

इसी कारण लगभग हर एक शताब्दी में एक नया पुराण लिखा जाता रहा है. ताकि नए निगले गए समाज के देवता में दिव्यता का आरोपण भी हो जाए और उसको पूजने वाले समाज में असंतोष या समानता की मांग भी न उठे. इस क्रम में कई बार उस देवता के नाम से काव्य या धर्म ग्रंथ की रचना भी कर दी जाती है. उदाहरण के लिए गणेश के नाम से गणेश गीता पायी जाती है, जो असल में कृष्ण की गीता की ही प्रतिकृति है. इस प्रकार उस निगल लिए गए समाज को उसके देवता की प्रशंसा द्वारा संतुष्ट भी रखा जाता है.

लेकिन इसका विज्ञान और लोकतंत्र सहित स्त्री की स्वतंत्रता से क्या संबंध है? यह एक मजेदार लेकिन जटिल बात है. असल में जब समाज की एकता को स्वाभाविक रूप से बनाए रखने के बजाय षड्यंत्रपूर्वक बनाए रखने का चुनाव किया जाता है तब उस षड्यंत्र के उजागर या असफल होने की संभावना को दबाये रखने में ही पूरी सृजनात्मकता खर्च हो जाती है. इस बिंदु पर आकर हम समझ पाते हैं कि भारतीय दार्शनिक संप्रदायों में दर्शन की इतनी मारकाट क्यों मची है और इतने सारे संप्रदाय व देवी देवता क्यों उभरते रहे है. सीधे सीधे कहें तो समाज को आग्रहपूर्वक एक बनाए रखना (एक सुरक्षित दूरी बनाए रखते हुए) तभी संभव है जबकि धर्म का, इश्वर का और देवता का सम्मोहन बना रहे. यही वो विवशता है जो बहुत ही जहरीले एतिहासिक षड्यंत्रों को जन्म देती रही है.

यही वो केन्द्रीय बात है जिसने भारत में विज्ञान के जन्म की संभावना को हजारों सालों तक क्षीण बनाए रखा.

यह आज भी देखा जा सकता है. गली गली में इतने मंदिर पूजा पंडाल कथाएं भंडारे जगराते और लगभग हर सप्ताह में कोई न कोई व्रत त्यौहार अनुष्ठान चलता रहता है. आश्चर्य होता है कि धर्म की इतनी घनघोर बारिश करते रहने की आवश्यकता क्या है? कोई चीज समाज में इतनी महत्वपूर्ण क्यों है यह अचंभित करता है. धर्म पर यह अति आग्रह असल में समाज को बिखर जाने से बचाने के लिए है. ऐसा समाज जो वास्तव में अपनी प्रवृत्तियों में बहुआयामी और परस्पर विरोधाभासी है, उसे बलात इकट्ठा रखना तभी संभव है जबकि धर्म और ईश्वर का अत्यधिक भय उसके निवासियों में कूट कूट कर भर दिया जाये.

यहाँ आकर हम समझ सकते हैं कि ऐसा भयभीत और अन्धविश्वासी समाज क्यों एक कर्मठ, विचारवान, शूरवीर और वैज्ञानिक समाज नहीं बन पाता है. इसी से समझ में आता है कि भारत ऐतिहासिक रूप से इतने लंबे समय तक गुलाम क्यों रहा और इतने लंबे इतिहास में भी क्यों यहाँ विज्ञान विकसित नहीं हो सका.

(लेखक: संजय श्रमण; यह लेखक के अपने विचार हैं)

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