भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में विभिन्न समुदायों का अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है, किंतु समय के साथ कुछ समुदाय अपने मूल मुद्दों से भटककर अपनी स्वतंत्र पहचान और प्रभाव को खोते चले गए हैं। महाराष्ट्र में महार समुदाय इसका एक ज्वलंत उदाहरण है। कभी स्वतंत्र राजनीति और आत्मसम्मान के प्रतीक रहे महार, अपने मुद्दों से विमुख होकर दूसरों के पिछलग्गू बन गए। आज महाराष्ट्र की राजनीति में उनकी स्वतंत्र सत्ता और महत्त्व लुप्तप्राय हो चुका है। वे केवल सहायक की भूमिका तक सीमित रह गए हैं, जिसका कारण उनकी दिशाहीनता और अपने मूल आंदोलन से दूरी है।
ठीक इसी प्रकार उत्तर भारत—दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल आदि क्षेत्रों में—मुस्लिम समुदाय भी अपने मुद्दों को परिभाषित करने में असफल रहा है। 1990 के दशक के पश्चात्, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से, मुस्लिम समाज भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एजेंडे पर चलता प्रतीत होता है। इस खेल में समाजवादी पार्टी (सपा), राष्ट्रीय जनता दल (राजद), तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) जैसे क्षेत्रीय दल भी हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को बढ़ावा देकर भाजपा के सहयोगी बन गए हैं। परिणामस्वरूप, उत्तर भारत में मुस्लिम समाज, जो कभी राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाता था, जिसके विधायक और सांसद सत्ता के गलियारों में गूंजते थे, वह अपनी वह महत्ता खो चुका है। आज जिन्हें मुस्लिम मत देता है, वे भी मुस्लिम हितों के प्रति उदासीन हो गए हैं, क्योंकि उन्हें यह विश्वास हो चला है कि बिना कुछ दिए भी मुस्लिम मत उनके खाते में आता रहेगा। संक्षेप में, मुस्लिम समुदाय भी महाराष्ट्र के महारों की भाँति अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता से वंचित हो गया है।
इस शृंखला की अगली कड़ी में उत्तर भारत का दलित समुदाय भी उसी पथ पर अग्रसर होता दिखाई देता है। स्वयं को विजयी बनाने और अपनी राजनीतिक महत्ता को संरक्षित करने के बजाय, दलित अब दूसरों को हराने-जिताने की राह पर चल पड़ा है। इसका परिणाम वही होगा, जो महाराष्ट्र में महारों का हुआ और उत्तर भारत में मुस्लिमों का हुआ—अस्तित्व का संकट और प्रभाव का ह्रास।
यदि गहन अवलोकन करें, तो यह स्पष्ट होता है कि जब से मुस्लिम दूसरों को हराने-जिताने के खेल में उलझा, तब से उसके ऊपर अत्याचारों में वृद्धि हुई है। इसी प्रकार, पिछले बारह वर्षों में दलित समुदाय भी अपनी राजनीतिक पहचान और महत्त्व को धीरे-धीरे खोता जा रहा है। दलित भी मुस्लिमों की भाँति “भाजपा को हराओ” और “कांग्रेस को लाओ” के द्वंद्व में फंस गया है। यह भटकाव ही पिछले बारह वर्षों से दलितों पर बढ़ते अत्याचारों का मूल कारण बन गया है। उनकी ऊर्जा अपने आंदोलन को सशक्त करने के बजाय दूसरों के खेल में नष्ट हो रही है।
वर्तमान में उत्तर भारत का दलित, विशेष रूप से चमार/जाटव समुदाय, बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के आंदोलन का ध्वजवाहक है। इसे किसी को हराने-जिताने के षड्यंत्र से परे रहकर अपने आंदोलन और राजनीतिक महत्त्व को संरक्षित करना होगा। यदि यह समुदाय अपने मूल लक्ष्य पर केंद्रित रहता है, तो वह न केवल अपनी पहचान को बचा सकता है, बल्कि अपने अधिकारों की रक्षा भी कर सकता है।
यदि दलित अभी भी सजग न हुआ, तो मुस्लिम समुदाय के पश्चात् अगला नंबर उसी का है। यह एक चेतावनी है, जो समय की गहराइयों से उद्घोषित हो रही है। इस संदर्भ में कुछ पंक्तियाँ इस भाव को और भी स्पष्ट करती हैं:
जलते घर को देखने वालों, फूस का छप्पर आपका है।
आपके पीछे तेज़ हवा है, आगे मुकद्दर आपका है।
उसके क़त्ल पे मैं भी चुप था, मेरा नंबर अब आया।
मेरे क़त्ल पे आप भी चुप हैं, अगला नंबर आपका है।
ये पंक्तियाँ उस सत्य को उजागर करती हैं कि निष्क्रियता और भटकाव का परिणाम केवल विनाश है। जब एक समुदाय अपने हितों से विमुख होकर दूसरों के खेल का हिस्सा बनता है, तो वह स्वयं अपने पतन का मार्ग प्रशस्त करता है। महारों और मुस्लिमों का इतिहास इसका साक्षी है। अब दलितों के समक्ष यह अवसर है कि वे इस चक्र को तोड़ें, अपने आंदोलन को पुनर्जनन दें और अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहचान को पुनर्स्थापित करें। समय की पुकार है कि वे सजग हों, संगठित हों और अपने लक्ष्य की ओर दृढ़ता से बढ़ें, अन्यथा इतिहास उन्हें भी विस्मृति के गर्त में धकेल देगा।