BSP News: आजकल मीडिया, सोशल मीडिया और अखबार वाले एकतरफा विश्लेषण करके बसपा को हमेशा-हमेशा के लिए खत्म करने की कोशिश कर रहे है. उनके अनुसार इंडी गठबंधन (INDI Alliance) की सरकार नहीं बनने की मुख्य कारण बसपा का यूपी में चुनाव लड़ना हैं जिसके कारण वो 16 सीटें हार गई. इस चुनाव में बसपा के 10% से भी कम वोट रहे और वो शुन्य सीट के साथ लोकसभा में बिना सांसदो वाली पार्टी बन गई है.
मैंने भी बसपा के लोकसभा चुनाव 2024 में आए परिणाम की समीक्षा करने की एक कोशिश की है और बसपा की हार के संभावित कारणों को जानने का प्रयास किया है.
#1 कोर वोटर में भिखराव
हर पार्टी का एक कोर वोटर होता हैं, उन पर पार्टी की पकड़ मजबूत न होने पर पार्टी का कमजोर होना तय है. जैसे भाजपा का कोर वोटर सवर्ण हैं, ऐसे ही बसपा का कोर वोटर दलित समाज है. यूपी बसपा का सबसे मजबूत गढ़ रहा है. यूपी में 22% दलित हैं जिसमे 14% चमार/जाटव और 7-8% अन्य दलित जातियाँ है.
पश्चिम यूपी की लगभग 27 सीटों पर अक्सर पहले चरणों में चुनाव होता हैं और इस इलाके में दलित 26% के आसपास हैं जिसमें से जाटव या चमार ही लगभग 20-22% के आसपास है. इस पूरी बैल्ट में बसपा को 13-14% वोट मुश्किल से आए हैं, इस 13-14% वोट में से कुछ वोट कैंडिडेट के रुतबे और उसकी जाति के हिसाब से भी मिलता है. यानि 2% वोट भी अगर सवर्णों, पिछड़ो, मुसलमानों का मान लिया जाए तो दलितों का 11-12% ही वोट 26% में से आया है.
इन दलितों में से 10-11% वोट चमारों का हैं और चमारों का बाकी 15% के आसपास वोट सपा कांग्रेस के खाते में संविधान और आरक्षण बचाने के नाम पर मुर्ख बनाकर लिया गया है. इस चुनाव में बहन जी के सबसे प्रबल समर्थक कोर वोटर चमार भागने के कारण कोई और समुदाय भी बसपा से क्यों जुड़ना चाहेंगा. इसलिए बसपा को खत्म करने का पहला कारण चमार वोटरों का मैदान छोड़कर सपा कांग्रेस गठबंधन की तरफ भागना रहा है.
#2 गैर चमार जातियाँ भी छिटकी
पश्चिम यूपी के अलावा दूसरे भागों में चमारों के अलावा पासी, धोबी, खटीक, बाल्मिकी आदि जातियाँ भी हैं जो बसपा की ही समर्थक रही हैं. लेकिन, चमारों से कुछ प्रतिशत कम ही रही है. बसपा को उसके पीक टाइम में चमारों के 90% तक वोट आये हो तो उस दौर में गैर चमार दलितों के 80% तक वोट आए हो सकते हैं.
पूरी यूपी मे 14% के आसपास चमार हैं और 7-8 % बाकी गैर चमार दलित जतियाँ जैसे पासी धोबी और बाल्मिकी आदि है. जब बसपा को चमार छोड़ कर भाग रहे है, ऐसे में कमजोर बसपा से पासी, धोबी, बाल्मिकी तो उनसे पहले भागने को तैयार खड़ा था. चमारों के ज्यादा अम्बेडकरवादी होने के फितूर ने भी दूसरी जातियों को बसपा से मोहभंग करने का काम किया है.
ऐसे में अगर चमार 50% भागे हो तो बाकी 70% भाग खड़े हुए है. जिन क्षेत्रों में चमार कम है और पासी आदि अच्छी खासी मात्रा में है वहाँ भी बसपा को लगभग 10% के आसपास ही वोट आने का मतलब है कि बसपा से कम या ज़्यादा गैर चमार दलित भी मजबुती से जुड़ा हुआ हैं. इसलिए ही मै कह रहा हूँ कि चमारों के फितूर ने ही बाकी दलित समाजों के अपनेपन को कम करने का काम किया है.
#3 सोशल मीडिया पर बदनामी
बसपा की हार का सबसे बड़ा कारण बसपा के रायबहादूर और हर बात का विरोध सोशल मीडिया पर परोसने वाले हवा-हवाई लोग है. ये सारा साल पदाधिकारियों को गाली बकते रहते हैं, रायबहादूर बनकर पूरी बदनामी फैलाते है कि इसको क्यों टिकिट दिया, इसको क्यों पद दिया, इसने पैसा खा लिया, उसने टिकट बेच दी, वो AC में बैठते हैं, वो ये नही करते, वो ऐसा क्यों नही करते, वैसा क्यों नही करते, मिशन बेच दिया वगैरा-वगैरा. और ये जो दुष्प्रचार फैलाने वाले रायबहादूर है, ये 30% तो बसपा को वोट दे भी देते होंगे वरना 70% तो ये बसपा को वोट तक नहीं डालते होंगे, इनका वोट सपा, भाजपा, कांग्रेस आदि को ही जाता है, ये इनके स्लीपर सैल की तरह काम करते है.
#4 मैन स्ट्रीम मीडिया और जातिवाद
बसपा के खिलाफ दोनों प्रकार के मीडिया वाले यानि भाजपा गुट वाले और भाजपा के खिलाफ कांग्रेसी गुट वाले दोनों ही बसपा के खिलाफ ऐजेंडे चलाते हैं. ताकि दलित राजनीति/अम्बेडकरवादी राजनीति खत्म हो जाए और किसी एक गुट को ही अपना सर्वोच्च मानकर चले जैसे पासवान, अठावले, उदित राज, मेश्राम, चन्द्रशेखर या मांझी करते है. बसपा इन ताकतवर मीडिया के दुष्प्रचारों से 2013 के बाद से लड़ने में पूरी तरह सक्षम नहीं हैं क्योंकि पहले मीडिया थोड़ा न्युट्रल दिखकर काम करने की पॉलिसी पर काम करता था. लेकिन, अब खुलकर ऐजेंडो पर काम कर रहा है.
बद से बदनाम बुरा जिसके चलते जैसे राहुल गांधी को एक मीडिया द्वारा पप्पू प्रचारित करवाने पर काम किया गया, उसी प्रकार बहनजी को भ्रष्टाचार की देवी, दौलत की देवी, टिकट बेचने वाली और भाजपा की बी टीम के रूप में दुष्प्रचारित किया गया. कांग्रेस पैसे वाली धनाड्य पार्टी हैं, वो तो धीरे-धीरे इस दुष्प्रचार का मुकाबला कर सकती है लेकिन बसपा किसी धन कुबेरों से हजारों-करोड़ों का चन्दा नहीं मिलता, इसको उबारने में या तो दलित समाज ही खुद एक्टिव हो या फिर आदर्शों की राजनीति छोड़कर बसपा पैसा कमाने के लिए सत्तापक्ष से जुड़कर कुछ जुगाड़ करे, ये दोनों ही काम मौजूदा समय में मुश्किल लग रहा है. बसपा को बदनाम करने के काम में सोशल मीडिया पर डॉ अम्बेड़कर और मान्यवर कांशीराम के नाम का सहारा लेकर बड़ी-बड़ी बाते करने वाले लेखकों, यूट्यूबर्स, प्रोफेसरों को प्रलोभन देकर इनका ढंग से इस्तेमाल किया गया. बिकाऊ लोगों ने अम्बेडकरवादी चोला पहनकर समाज के अन्दर खलबली पैदा करने का काम किया है.
#5 बसपा समर्थकों की खामखा की चर्चा
टिकट बटवारें पर बसपा समर्थक पागल हाथियों के झुंड की तरह व्यवहार करते दिखे है जिन्होंने बसी-बसाई बस्तियों को ही तबाह करने का काम किया है. भाजपा दूसरे प्रदेशों से अरुण गोविल, हेमामालिनी, रविकिशन शुक्ला, कृपाशंकर सिंह, निरहुआ, सन्नी देओल, धमेन्द्र आदि को 20 दिन पहले लाकर चुनाव लड़वाती है, और भाजपा वाले उनको जीताने की जी तोड़ कोशिश करते हैं. लेकिन, बसपा वाले जी तोड़ आरोप प्रत्यारोप लगाते-लगाते नहीं थकते. दोनों पार्टियों में ये बड़ा अन्तर है. बहनजी ने अब की बार यूपी में 23 टिकट मुसलमानों को ये सोचकर दिए थे कि अगर दलित वोटों में 20% मुसलमान आधा भी जुड़ गए तो भी कम से कम 20-25 सांसद अवश्य जीतायें जा सकते हैं लेकिन जीताना तो दूर पूरे चुनावों में बसपा के टिकट बटवारे पर सवाल कर करके आधे से ज्यादा दलित सपा कांग्रेस गठबंधन में चले गए और दलितों को भागता देखकर भाजपा हराने के अपने लक्ष्य को साधने 90-95% मुस्लिम भी सपा कांग्रेस में चले गए. पागल हाथियों ने अपना जंगल ही उजाड़ डाला.
#6 दलितों की नेतागिरी और राय बहादुरी
जिस दिन दलितों को ये समझ आ जायेंगा कि जब दलित मुस्लिम गठजोड़ पर नगीना से चन्द्रशेखर को मुसलमान जीता सकते हैं, तो वो बसपा कैंडिडेटो को भी जीता सकते थे. बसपा ने तो उनको बेहतरीन दंगा रहित शासन भी दिया हैं. हर समाज का ज्यादातर आदमी शांति से रोजी-रोटी कमाना चाहता हैं, मुसलमान भी दंगो में अपना घर नही जलवाना चाहता और ना ही अपने बच्चों को मरवाना चाहता हैं. चमारों के वोट जब सपा कांग्रेस गठबंधन में एकतरफा गए हैं तो भला हार में मुसलमान क्यों वोट खराब करेंगा. दलितों की ज्यादा नेता गिरी, राय बहादुरी और दुष्प्रचारों ने मुसलमानों को पुरे चुनावों मे बसपा से जुड़ने ही नहीं दिया. हर तीसरा दलित खुद को बहनजी से ज्यादा बड़ा नेता समझने लगा है और अब बसपा को गड्डे में डालकर समझ नही आ रहा कि वो सपाईयों और कांग्रेसियों द्वारा मारे गए अपमानजनक शब्दों की मार को प्रसाद समझकर स्वीकार करे या उनका प्रतिकार करें.
#7 बहनजी का सिर्फ रैलियाँ करना
संविधान बचाओ और आरक्षण बचाओं वाला ऐजेंडा सपा कांग्रेस का सफल प्रयोग रहा जबकि बहनजी का दलित मुसलमान गठजोड़ का प्रयोग बुरी तरह दलितो की आलोचनाओं और रायबहादुरी के चलते असफल रहा. बसपाईयों ने खुद अपने नरेटिव को खराब कर दिया जैसे किसी आदमी ने अपनी ही कुल्हाड़ी की धार चैक करने के लिए अपने ही परिवार वालो के पैर काटकर देख लिए हो और बाद में कुल्हाड़ी को अपशकुन मानकर रो रहा हो.
बहनजी की अब की बार काफी सक्रियता रही थी लेकिन उनको कुछ समय निकालकर आम जनता के बीच हर रैली के बाद थोड़ा-थोड़ा समय देने की समय की भी डिमांड बसपाईयों में है, इस विषय में भविष्य मे सुधार की आवश्यकता पड़ेगी.
#8 बहनजी का कड़ा अनुशासन
जनता में इस बात से भी नाराजगी देखी गई है कि बहन जी बहुत कठोर अनुशासन को फोलो करती हैं, किसी को भी बिना कारण बताओ नोटिस दिए पार्टी से निकाले जाने से विरोधियों को छवि खराब करने का मौका मिल गया और बसपा कार्यकर्ताओ में भी अपने भविष्य के प्रति अनिश्चितिता के चलते रोष देखा गया है. कारण बताओं नोटिस देना आवश्यक होना चाहिये, अच्छा तो ये है कि डाट-डपटकर पार्टी में ही रख लिया जाए.
#9 कैडराइज्ड वोटर्स में उत्साह नही
देखा ये भी गया है कि कैडर न होने का बहाना बनाकर भी लोग आरोप लगाना नही भुलते. जबकि बसपा में कैडर देने वाले बहुत से नेता आज अपने निजी स्वार्थों के चलते ही सपा भाजपा कांग्रेस में विधायक, सांसद और मंत्री बन चुके हैं, क्या उनको भी कैडर देने की जरूरत हैं? क्या चन्द्रशेखर, RS प्रवीण कुमार, योगेश वर्मा और मेश्राम जैसे लोगों को भी कैडर की जरूरत है जो सपा, कांग्रेस, भाजपा आदि के लिए काम करते रहे हैं.
अब करोड़ों वोटों वाली पार्टी को जो हर गली मोहल्ले, ब्याह-शादी और फेसबुक, व्हाटशप व ट्वीटर आदि पर रोज वही बातें हो रही हैं जो कैडरों में समझाई जाती थी, अब लोग सब जानते हैं कि उन्हें अपनी सत्ता पानी हैं, अपने महापुरुषों के विचारो को समझना हैं. कैडरों की जरूरत तब शुरुआती दौर में थी जब बसपा को कोई नहीं जानता था. अब पिछले 40-50 सालों की लगातार मेहनत से बसपा की हर राज्य में वोट आ रही है.
अगर 2 प्रतिशत भी वोट आई है और उस राज्य में 15 प्रतिशत वोटर दलित है, मतलब सबको बसपा का पता है लेकिन विकल्पहीनता की कमी, पैसे की कमी, प्रचार की कमी के चलते वोट नहीं जुड़ पा रहे. बसपा को कम से कम दो तीन हजार करोड़ रुपयों की जरूरत है और लोग 200 रुपये की पर्ची पर भी सक्षम दलित शोषित समाज के लोग महीनों तक 200 सवाल करते देखे गए हैं.
#10 IT Cell की कमी
बसपा का अपना मीडिया और IT Cell नहीं है, पैसे की जरूरत है. ताकि नैगेटिव प्रचार का ढग से खंडन हो सके. लेकिन, पैसा दलित समाज देना नही चाहता सिर्फ हवा हवाई बातें करने को ही क्रांति मान बैठे हैं. सवाल करने वाले 90% लोग एक साल में किसी बसपा की मीटिंग में नहीं गए होंगे किसी बसपा पदाधिकारी या ऑफिस में जाकर 200 रुपये की पर्ची तक नहीं कटवाते होंगे, 100 पर्ची वो खुद बांटकर लोगों से कलैक्शन करके और बसपा के महत्व को बताकर बसपा को वोट देने के लिए पाँच साल भी नही मना पाए होंगे. ऐसे-ऐसे 99% लोग चाहते हैं कि बसपा उनसे पूछकर टिकट बाटें उनसे पूछकर पद बांटे.
#11 सामाजिक संगठनों की बसपा से दूरी
गरीब समाज के वोट बिकते भी है और दबंगो व जमीनदारों के दबाव में भी बसपा से दूर जाते है. सरकार या कोई सामाजिक संगठन ही ग्राउंड लेवल पर इस प्रकार की चीजों को रोक सकता हैं. लेकिन, सामाजिक संगठन के संचालन के लिए भी पैसे चाहिये जो बसपा के पास नहीं है और जो कोई संगठन बनता भी हैं, वो अपनी नीचता भरी स्वार्थी सोच के चलते बसपा को खत्म करने की सुपारी लेकर बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घुमने लगते है और सांसद विधायक बनने के ख्वाब पाल लेते हैं. RSS, VHP और बजरंग दल बिना पैसो के नहीं चलती, उनका समाज पैसा देता है, तभी चल पाई है.
#12 नेताओं का लंबे समय तक नही टिकना
बसपा ने हमेशा पिछड़े व अति पिछड़े वर्गों के बहुत से नेता तैयार किए लेकिन वो अपने निजी स्वार्थों के चलते या तो अपनी अलग-अलग पार्टी बनाकर सपा-भाजपा से सीटों की सौदाबाजी करके सांसद-विधायक बनते हैं और बसपा को ही कमजोर करते आये है. बसपा उनके लिए पहचान बनाने के लिए सिर्फ एक सीढ़ी की तरह इस्तेमाल की गई. आज देखोंगे तो सपा-भाजपा में जितने पिछड़ी जातियों के नेता दिखेंगे, उनमे तकरीबन बसपा से ही निकले या निकाले हुए नेता है. निकाले इसीलिए जाते हैं क्योंकि वो बसपा की बजाय सपा-भाजपा से नजदीकियाँ बढ़ाने में मशगुल पाए जाते है.
#13 मुस्लिम लीडरशिप की मौकापरस्ती
इसी तरह मुस्लिम लीडरशीप तैयार करने में बसपा सबसे आगे रही हैं, जो नेता आज सपा में गए हैं, उनके खानदान का इतिहास टटोलिए ज्यादातर बसपा ने ही मौके देकर तैयार किए गए नेता हैं लेकिन ये भी सवर्णो और पिछड़ो की तरह मौकापरस्त ही निकले.
#14 बहनजी का जनता से सीधा जुड़ाव नही
बहनजी को हर महीने कम से कम एक जनसभा और जनता से सीधा संवाद बनाने की प्रक्रिया चालू कर देनी चाहिये और आकाश आनंद को समय समय पर नसीहतें देकर लोगों के बीच भेजने पर काम करने देना चाहिये, ऐसी बहुत से बसपा समर्थकों की राय देखी गई हैं.
#15 जनता भी समझे हर जय भीम बोलने वाला आपका हितैषी नही
बसपा समर्थको को अपने जहन में बैठा लेना चाहिये कि मीडिया और बड़े बड़े दलित पिछड़े यू ट्यूबर्स दो गुटो में बंट चुके है और वो तकरीबन सभी बसपा के खिलाफ प्रचार करने में ही इस्तेमाल होने है.
बसपा समर्थन में बोलने वाले और फिर सुधार के नाम पर कमियों को उजागर करने वाले हवा-हवाई लोगों को भी बसपा ने खुब मौके दिए जैसे भीम आर्मी के कभी बड़े पदाधिकारी रहे सुप्रीम कोर्ट के वकील सुजीत सम्राट, दिल्ली का चुनाव होने के बाद उनको पार्टी से सपा-कांग्रेस से नजदिकियाँ बनाने के चलते निष्कासित कर दिया. लेकिन, जुबानी जंग में कुछ साल पहले बसपा को बदनाम करने, केजरीवाल को भीम आर्मी की अंदरूनी सपोर्ट करवाने वाले सुजीत सम्राट बसपा को क्यों 1% वोट से आगे नही बढ़ा पाए, ये सबको सोचना चाहिए. इसी प्रकार बड़ी-बड़ी बातें करने वाले आम आदमी पार्टी से निकाले गए विधायक संदीप बाल्मिकी को भी दिल्ली बसपा की कमान सौंप कर देखी थी लेकिन वो भी वोट 1% पर ही लाकर दम लिए थे. एडवोकेट सीमा कुशवाह को भी दिल्ली संभालने का मौका दिया लेकिन वो तो मौका पाते ही भाजपा में चली गई.
#16 लम्बे समय सत्ता से दूरी
बसपा दिल्ली में 14 -15% वोट 2008 में लाई थी, मुख्य कारण था बसपा का 2007 में यूपी में बहन जी का मुख्यमंत्री बनना जिसके कारण पुरे समाज में पोजिटिविटी फैली थी और देश के बहुत से राज्यों में 2007-12 के बीच बसपा ने नई उचाईयाँ छूनी शुरू की थी. बसपा ने हरियाणा में इसी दौर में 16% वोट पाई थी, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उतराखंड, हिमाचल, छतीसगढ़, बिहार आदि सब में बसपा एक विकल्प की तरफ बढ़ती जा रही थी क्योंकि बसपा की यूपी सरकार बनने पर माहौल में पाजिटिविटी बनी थी जो अब अपनी मुर्खता और उतावलेपन के चलते बसपाई ही विरोधियों की धुन पर नैगेटिविटी फैलाने में बिजी हो चुके थे.
#17 घोषणापत्र नही होना
बसपा को भी वो वादे जरूर करने चाहिये जिन पर वो काम करती आई है. जैसे; गरीबों को फ्री शिक्षा, बुढ़ापा पेंशन में बढ़ोतरी, फ्री बिजली, लाखों नौकरी देने का वादा, गरीबों को घर, प्राइवेट सैक्टर में SC-ST- OBC के लिए आरक्षण, सरकारी ठेकों में आरक्षण आदि और ये सब बसपा 80-90% पूरे करने में सक्षम भी होंगी. दलित-शोषित बसपा समर्थक समाज को लगने लगा है कि बसपा कुछ नही देने वाली, वादे करना राजनीति का हिस्सा हैं, सिर्फ आर्दशवादिता के चलते बदनामी के सिवाय कुछ नही मिलना. बी टीम का आरोप जैसे नैरेटिव अपने आप ध्वस्त होकर गिर जायेंगे. बसपा के शासन को लोग सबसे अच्छे शासनों में आज भी गिन रहे हैं, दलित वापसी करेंगा, साथ में मुस्लिम भी आयेंगा और पिछड़ा भी क्योंकि बसपा में वो आज भी विकल्प देखता है.
(लेखक: एन दिलबाग सिंह; ये लेखक के अपने विचार हैं)