“वाणी का संयम, संकल्प का बल: बहनजी की अनकही साधना”
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और बहुजन आंदोलन के विरोधी, विशेषकर चाटुकारिता में लीन और संकीर्ण मानसिकता के लोग, प्रायः बहनजी पर व्यंग्य करते हैं कि वे अपने भाषण लिखकर पढ़ती हैं। कुछ सलाहकार यह भी मत व्यक्त करते हैं कि यदि बहनजी बिना लिखे, सहज भाव से बोलें, तो उनकी वाणी का प्रभाव जनमानस पर अधिक गहरा होगा। यह मनोवैज्ञानिक सत्य बहनजी से भी अछूता नहीं है। फिर भी, वे अपने भाषण लिखकर पढ़ने का मार्ग क्यों अपनाती हैं? इसका रहस्योद्घाटन स्वयं बहनजी ने 14 अप्रैल 2017 को किया था। बहुजन आंदोलन के प्रत्येक सजग और सक्रिय कार्यकर्ता को यह विदित है कि बहनजी न केवल अपने भाषण स्वयं रचती हैं, बल्कि उन्हें स्वयं ही पढ़कर प्रस्तुत करती हैं। प्रश्न उठता है कि जब वे स्वयं लिखती हैं, तो बिना लिखे सहज वक्तव्य क्यों नहीं देतीं?
ऐसा नहीं कि बहनजी ने कभी बिना लिखे भाषण नहीं दिए। इतिहास साक्षी है कि वे तेज-तर्रार और ओजस्वी वक्ता रही हैं। उनकी बेबाकी और विचारों की प्रखरता से संपूर्ण विश्व परिचित है। किंतु 1996 में उनके जीवन में एक स्वास्थ्य संकट आया। गले में गंभीर समस्या के कारण सर्जरी करनी पड़ी, जिसमें उनकी एक ग्रंथि निकाल दी गई। चिकित्सकों ने उन्हें परामर्श दिया कि वे अपने भाषण लिखकर पढ़ें, ताकि गले पर अनावश्यक दबाव न पड़े। तब से बहनजी ने इस सलाह को जीवन का अंग बना लिया। वे मंच पर हों या मीडिया के समक्ष, अपने हाथ में लिखित भाषण लेकर ही उपस्थित होती हैं। यह उनकी शारीरिक सीमा का संयम है, जो उनके संकल्प की अडिगता को और भी उजागर करता है।
फिर भी, जब अन्याय और अत्याचार की आँच उनके हृदय को झकझोरती है, तो यह संयम भी टूट जाता है। ऊना और सहारनपुर में दलितों पर हुए अत्याचार ने उन्हें व्यथित कर दिया। राज्यसभा में उन्होंने इस मुद्दे को प्रबलता से उठाया। बिना लिखे, ओजस्वी शब्दों में अपनी पीड़ा और आक्रोश को व्यक्त किया। उपाध्यक्ष द्वारा बार-बार रोके जाने पर उनका क्रोध और बढ़ा। अंततः, उन्होंने पूरे जोर के साथ कहा, “यदि मैं इस सदन में दलितों, पिछड़ों और शोषितों की आवाज नहीं उठा सकती, तो मेरे लिए इस सदन में बने रहने का कोई औचित्य नहीं।” यह कहकर उन्होंने राज्यसभा से त्यागपत्र दे दिया। इस जोशपूर्ण वक्तव्य के दौरान उनके गले पर अत्यधिक दबाव पड़ा। परिणामस्वरूप, उन्हें असहनीय पीड़ा से गुजरना पड़ा। औषधियों के सहारे भी इस कष्ट से उबरने में उन्हें दो सप्ताह लगे। यह सर्वविदित है कि औषधियों का अधिक सेवन स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। गले पर जोर पड़ने से बचने के लिए चिकित्सकीय परामर्श का पालन उनके लिए अनिवार्य हो गया।
इसके बावजूद, कुछ अल्पबुद्धि और संवेदनाहीन लोग उनकी इस मजबूरी पर तंज कसते हैं। वे यह नहीं समझते कि बहनजी का यह संयम उनकी कमजोरी नहीं, बल्कि उनकी निष्ठा और समर्पण का प्रतीक है। वे समाज की हर व्यथा को समझती हैं, शोषितों और वंचितों के दर्द को अपने हृदय में संजोती हैं। किंतु यह समाज अपनी इस समतावादी नेत्री के त्याग और तपस्या को कब समझेगा? बहनजी का जीवन बहुजन आंदोलन के लिए समर्पित एक दीपस्तंभ है, जो स्वाभिमान और समता की मशाल जलाए रखता है। क्या यह समाज कभी उनके इस महान व्यक्तित्व की गहराई को पहचानेगा? उनकी वाणी का संयम उनके संकल्प का बल है, और यह बल ही वह शक्ति है जो एक दिन समग्र समाज को प्रकाशित करेगा।