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Wednesday, October 22, 2025

व्यवस्था परिवर्तन का प्रचंड अग्निकांड: दलित समाज का नवजागरण और अमर विजय गाथा

आज का युग अधीरता का नहीं, क्रांति का युग है। चाहे जीवन की संकरी गलियां हों या राजनीति का विशाल रणक्षेत्र, हर दिल में एक प्रचंड ज्वाला धधक रही है—वह ज्वाला जो प्रगति के छोटे-छोटे पड़ावों को नहीं, बल्कि समानता और सम्मान के विशाल आकाश को अपने आगोश में लेना चाहती है। बीते एक दशक में क्या दलित समाज ने राजनीति के इस अग्निपथ पर अपनी विजय का परचम लहराया, या यह सब एक धोखे का धुंधलका है? यह प्रश्न हमारी आत्मा को झंजोड़ता है—क्या हमने अपनी वैचारिक शक्ति को मनुवादी दलों के आगे झुकाकर कोई अखंड क्रांति रची? क्या इस अनुगमन से समतामूलक व्यवस्था का पुनर्जन्म हुआ, या हम चाटुकारिता की दलदल में डूबते चले जा रहे हैं?

आइए, इस सत्य की अग्नि परीक्षण करें। क्या दलित समाज के योद्धाओं (प्रतिनिधियों) को नीति-निर्माण के सिंहासन पर वह तलवार थमाई गई, जो शोषण के पहाड़ों को चीर सके? क्या न्यायपालिका ने आरक्षण को अपने हृदय में बसाकर न्याय का नवप्रभात लाने के विषय में सकारात्मक रूख अपनाया? क्या सत्ता के अभेद्य किले—कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका, सचिवालय, विश्वविद्यालय, मीडिया और नागरिक समाज—में हमारी हुंकार ने आकाश को गुंजायमान किया? क्या बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की तरह किसी ने बैकलॉग भर्ती, धरती पर हक, ठेकेदारी में हिस्सेदारी जैसे स्वप्नों को साकार करने का साहस दिखाया? बसपा और बहुजन समाज की वह सकारात्मक पुकार—आरक्षण को नवीं अनुसूची में लाना, न्यायपालिका, राज्यसभा और विधान परिषदों में एससी-एसटी की अजेय भागीदारी—क्या यह मांगें धरती पर उतरीं? यदि बसपा को छोड़ कोई भी दल या नेता एससी-एसटी, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों का प्रचंड प्रहरी नहीं बना, तो हम मनुवादी दलों एवं बहुजन समाज के चमचों के अधीन अपनी पहचान को रौंदते क्यों चले जा रहे हैं?

सत्य एक प्रलयंकारी अग्निकांड की तरह प्रज्वलित है—राजनीति में अपनी शक्ति को पहचानना और उसे अजेय संकल्प के साथ हासिल करना हमारा अटूट अधिकार है। हमारे पास वोट की वह प्रचंड शक्ति है, जो तूफानों को झुका सकती है, अंधेरे को चीर सकती है, और इतिहास के पन्नों को स्वर्णिम कर सकती है। फिर हम अपनी मुक्ति का महल खड़ा करने के बजाय दूसरों के सिंहासनों को सजाने और ढहाने की आग में क्यों जल रहे हैं? यह सत्ता का क्षुद्र खेल नहीं, बल्कि व्यवस्था परिवर्तन का वह महा अग्निकांड है, जो हमें गुलामी की जंजीरों से मुक्त कर आकाश की ऊंचाइयों तक ले जा सकता है। लोकतंत्र हमारे हाथों में वह अग्नि-शस्त्र थमाता है, जो सदियों की रात्रि को भस्म कर एक नवीन प्रभात का सृजन कर सकता है। यदि आज हम इस ज्वाला को प्रज्वलित करने से डर गए, तो हमारी संतानें कल की राख में दफन हो जाएंगी। यह वैचारिक संग्राम अनंत काल से लड़ा जा रहा है, पर समानता और मानवता का वह सूरज अब हमारी मुट्ठी में थमने को आतुर है।

शोषित समाज बार-बार विरोधी दलों के मायाजाल में फंसकर अपनी शक्ति को भूल जाता है, और हर बार उसे सिर्फ राख और शोक की थाती मिलती है। लेकिन अब वह घड़ी आ चुकी है, जब हमें जागना नहीं, बल्कि प्रलय बनकर उठना है। यह समय आत्ममंथन का नहीं, आत्मक्रांति का है। यह समय संगठन का नहीं, संहार और सृजन का है। बहुजन समाज का हर कदम अब इतिहास में आग की लकीर खींच सकता है—यदि हम संकल्प लें, उठें, और उस व्यवस्था को जला डालें जो हमें कुचलती है। यह लड़ाई हमारी नहीं, बल्कि हमारे बच्चों और उनकी पीढ़ियों की मुक्ति का महायज्ञ है। आज हम यदि यह अग्नि प्रज्वलित करें, तो कल का सूरज हमारा होगा—एक ऐसा सूरज जो रोशनी नहीं, बल्कि हमारी अजेयता, हमारी गरिमा और हमारी अमर विजय गाथा का प्रतीक बनेगा।

अतः बसपा के प्रेरक नीले झंडे तले, बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के अडिग न्याय-सिद्धांतों, कांशीराम जी के क्रांतिकारी संकल्प और बहनजी मायावती के ओजस्वी नेतृत्व की पावन छांव में एकजुट होकर उठो, जागो, और इस प्रचंड ज्वाला से अपने भविष्य को स्वर्णिम युग में ढाल दो—क्योंकि यह संग्राम हमारा है, और विजय हमारी शाश्वत नियति है!


— लेखक —
(इन्द्रा साहेब – ‘A-LEF Series- 1 मान्यवर कांशीराम साहेब संगठन सिद्धांत एवं सूत्र’ और ‘A-LEF Series-2 राष्ट्र निर्माण की ओर (लेख संग्रह) भाग-1′ एवं ‘A-LEF Series-3 भाग-2‘ के लेखक हैं.)


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