भारतीय राजनीति का वर्तमान परिदृश्य एक गहन और दुखद विडंबना को उजागर करता है, जहाँ साम्प्रदायिकता का जहर न केवल सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करता है, बल्कि कुछ राजनीतिक दलों के लिए सत्ता और प्रभुत्व का स्रोत भी बनता है। यह विचार प्रबल रूप से उभरता है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), जो अपनी वैचारिक नींव और रणनीतिक कौशल के लिए जानी जाती है, साम्प्रदायिकता को अपनी राजनीतिक खुराक के रूप में उपयोग करती है। इस खुराक की आपूर्ति, एक सुनियोजित और स्वार्थपूर्ण गठजोड़ के तहत, समाजवादी पार्टी (सपा), राष्ट्रीय जनता दल (राजद), तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), शिवसेना, और आम आदमी पार्टी (आप) जैसे दल करते हैं। यह लेख इस कटु सत्य की पड़ताल करता है कि ये दल, अपने संकीर्ण स्वार्थों और भ्रष्टाचार में लिप्त परिवारवादी राजनीति के कारण, न केवल साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं, बल्कि मुस्लिम, दलित, पिछड़े, और आदिवासी समुदायों को एक बंधुआ मतदाता में तब्दील कर उनके हितों को अपूरणीय क्षति पहुँचाते हैं। इस परिदृश्य में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) एकमात्र ऐसी शक्ति के रूप में उभरती है, जो इस दुष्चक्र की जड़ों को समझती है और साम्प्रदायिकता की आपूर्ति करने वाली इन ताकतों पर प्रहार करती है।
साम्प्रदायिकता: भाजपा की जीवनरेखा
साम्प्रदायिकता, जो धर्म, जाति, और क्षेत्रीय पहचानों के आधार पर समाज को खंडित करने का हथियार है, भारतीय राजनीति में एक शक्तिशाली उपकरण रही है। भाजपा, अपनी संगठनात्मक क्षमता और हिन्दुत्व की वैचारिक दृढ़ता के बल पर, इस उपकरण का उपयोग न केवल अपने मतदाता आधार को एकजुट करने में करती है, बल्कि अपने विरोधियों को रणनीतिक रूप से कमजोर करने में भी करती है। यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तब और प्रभावी हो जाता है, जब विपक्षी दल, जैसे सपा, राजद, टीएमसी, और आप, अपने क्षेत्रीय और सामाजिक आधार को मजबूत करने के लिए ऐसी नीतियों और बयानों का सहारा लेते हैं, जो साम्प्रदायिकता को हवा देते हैं जोकि एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है, जिसमें ये दल जानबूझकर धार्मिक और जातिगत तनाव को भड़काते हैं, ताकि एक विशेष समुदाय—विशेष रूप से मुस्लिम—का वोट उनके पक्ष में आए। इस ध्रुवीकरण का परिणाम यह होता है कि यदि इन दलों को सत्ता न भी मिले, तो विपक्ष में एक सम्मानजनक स्थान अवश्य सुरक्षित हो जाता है, जिससे इनके परिवारवादी राजनीतिक कारोबार का निर्वाह होता रहता है।
विपक्ष की स्वार्थपूर्ण रणनीति: मुस्लिम समुदाय का शोषण
सपा, राजद, टीएमसी, और अन्य क्षेत्रीय दलों की यह रणनीति न केवल साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती है, बल्कि मुस्लिम समुदाय को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाती है। इन दलों ने मुस्लिम समुदाय को एक बंधुआ मतदाता में तब्दील कर दिया है, जिसकी अपनी स्वतंत्र राजनीतिक आवाज को दबा दिया गया है। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव द्वारा 1990 में अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाने, बिहार में लालू प्रसाद यादव द्वारा आडवाणी की रथयात्रा को रोकने, और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी द्वारा मुस्लिम समुदाय में भाजपा का भय पैदा करने जैसे कदमों ने देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को अभूतपूर्व बल दिया। ये कदम, जो सतही तौर पर मुस्लिम हितों की रक्षा के लिए उठाए गए प्रतीत होते हैं, वास्तव में इन दलों के स्वार्थपूर्ण एजेंडे का हिस्सा थे जिनसे मुस्लिम और अति पिछड़े वर्गों का भारी नुक़सान हुआ है।परिणामस्वरूप, मुस्लिम समुदाय न केवल अपनी राजनीतिक स्वायत्तता खो चुका है, बल्कि सामाजिक और आर्थिक रूप से भी हाशिए पर धकेला जा रहा है।
यह विडंबना और भी गहरी हो जाती है, जब हम देखते हैं कि ये दल केवल मुस्लिम समुदाय के ही नहीं, बल्कि दलित, पिछड़े, और आदिवासी समुदायों के भी शत्रु हैं। इन समुदायों को बार-बार झूठे वादों और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के जाल में फँसाकर, ये दल उनके वास्तविक विकास और सशक्तिकरण को अवरुद्ध करते हैं। इन दलों को वोट देना, जैसा कि उपरोक्त जानकारी में सटीक रूप से कहा गया है, उनके विष को बढ़ावा देना है, जो अंततः इन समुदायों को ही डसकर अपना विष दलितों आदिवासियों पिछड़ों और मुस्लिम समाज के ज़हन में उड़ेल देता है।
परिवारवादी भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता का गठजोड़
सपा, राजद, टीएमसी, और आप जैसे दलों की साम्प्रदायिक रणनीति के पीछे एक और कड़वा सच छिपा है – इनका परिवारवादी और भ्रष्टाचार में लिप्त चरित्र। ये दल, अपने परिवारों के राजनीतिक और आर्थिक हितों को सुरक्षित रखने के लिए, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को एक सुनियोजित हथियार के रूप में उपयोग करते हैं। इस ध्रुवीकरण से प्राप्त मुस्लिम वोट उन्हें सत्ता या विपक्ष में एक मजबूत स्थिति प्रदान करते हैं, जिससे उनके भ्रष्टाचार और परिवारवादी कारोबार पर कोई आँच नहीं आती। यह एक ऐसा दुष्चक्र है, जिसमें ये दल न केवल साम्प्रदायिकता को पोषित करते हैं, बल्कि समाज के सबसे कमजोर वर्गों—मुस्लिम, दलित, पिछड़े, और आदिवासी—का शोषण भी करते हैं।
बसपा का दूरदर्शी दृष्टिकोण
इस जटिल और निराशाजनक परिदृश्य में, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) एक ऐसी शक्ति के रूप में उभरती है, जो साम्प्रदायिकता के इस दुष्चक्र को तोड़ने का साहस और दूरदर्शिता रखती है। बसपा, अपनी सामाजिक परिवर्तन और समावेशिता की नींव पर खड़ी, यह समझती है कि भाजपा की ताकत का मूल स्रोत साम्प्रदायिकता है, और इस साम्प्रदायिकता को पोषित करने वाली जड़ें वे विपक्षी दल हैं, जो अपनी स्वार्थपूर्ण रणनीतियों के कारण इसे हवा देते हैं। इसलिए, बसपा सीधे भाजपा पर प्रहार करने के बजाय, उन जड़ों—सपा, राजद, टीएमसी, और अन्य—पर हमला करती है, जो साम्प्रदायिकता की आपूर्ति करती हैं।
बसपा की यह रणनीति, जो दीर्घकालिक और समावेशी दृष्टिकोण पर आधारित है, प्रायः गलत समझी जाती है। जब बसपा इन दलों की आलोचना करती है, तो उसे अवसरवादी या विभाजनकारी करार दिया जाता है। परंतु वास्तव में, बसपा का दृष्टिकोण साम्प्रदायिकता के खिलाफ एक प्रभावी और रणनीतिक कदम है, जो सामाजिक समता और शोषित-वंचित वर्गों के सशक्तिकरण को बढ़ावा देता है। यह दुखद है कि नफरत, जातिवाद, और भ्रष्टाचार के पैरोकार बसपा के इस दूरदर्शी दृष्टिकोण को समझने में असमर्थ हैं और उस पर अनर्गल टिप्पणियाँ करते हैं।
निष्कर्ष: एक नई दिशा की आवश्यकता
भारतीय राजनीति के समक्ष आज सबसे बड़ी चुनौती साम्प्रदायिकता के इस दुष्चक्र को तोड़ना है। इसके लिए शोषित-वंचित समुदायों—मुस्लिम, दलित, पिछड़े, और आदिवासी—को यह समझना होगा कि सपा, राजद, टीएमसी, और आप जैसे दल उनके मित्र नहीं, बल्कि उनके शत्रु हैं। इन दलों की स्वार्थपूर्ण और भ्रष्टाचार में लिप्त रणनीतियाँ केवल साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देती हैं और समाज के सबसे कमजोर वर्गों का शोषण करती हैं। दूसरी ओर, बसपा का समावेशी और रणनीतिक दृष्टिकोण इन समुदायों के सच्चे सशक्तिकरण का मार्ग प्रशस्त करता है।
यदि भारत को साम्प्रदायिकता के इस जहर से मुक्त करना है, तो समाज के सभी वर्गों को एकजुट होकर उन दलों का बहिष्कार करना होगा, जो भाजपा जैसे संगठनों को साम्प्रदायिकता की खुराक सप्लाई करते हैं। साथ ही, बसपा जैसे दलों को मजबूत करना होगा, जो सामाजिक समता और सामाजिक परिवर्तन हेतु अम्बेडकरी वैचारिकी के सिद्धांतों पर अडिग हैं। तभी हम उस भारत का निर्माण कर पाएंगे, जो साम्प्रदायिकता के दंश से मुक्त हो, और जहाँ हर नागरिक की पहचान उसकी मानवता से हो, न कि धर्म, जाति, या क्षेत्र से। यह एक कठिन, परंतु आवश्यक यात्रा है, जिसके लिए समाज को अपनी चेतना को जागृत करना होगा और अपने सच्चे हितैषियों को पहचानना होगा।