दलित समाज की राजनीति को समझना इतना आसान नही है क्योंकि ये समाज मानसिक गुलामी से बाहर आने को अभी तक तैयार नही दिखता. ये समाज हमेशा तैयार रहता है कि इनको कोई बेवकुफ बना दे ताकि ये औरों के गाने पर नागिन डांस कर सके.
75 सालों से अच्छे खासे वोटों वाले राज्यों में भी ये समाज नागिन डांस करने में ही व्यस्त है. कुछ लोगों को दलित राजनीति का मतलब मलाई खाना लगता है जबकि ये संघर्ष और एलान-ए-जंग है. सदियों पुरानी मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ़.
अब अगर सबको हर कदम पर मलाई ही मलाई चाहिये तो बेचारा वोटर ही क्यों लाइन में लगकर वोट करें? मैं तो कहता हूँ कि चुनाव की जरूरत ही क्या है, विचारधारा की भी क्या जरूरत है जब नजर मलाई पर ही है!
बाबासाहेब जब आजादी के 20 साल पहले भी अछुतों के अधिकारों के लिए लड़ रहे थे तो क्या वो मलाई के लिए लड़ रहे थे? क्या उनको सच मे ही पता था कि उनके जीते जी देश आजाद भी हो जायेगा और वो कानून मंत्री भी बन जायेंगे?
मान्यवर जब साठ वाले दशक मे नौकरी छोड़कर दलितों-शोषितों को सामाजिक रूप से जागरूक करने के लिए चले तो क्या वो मलाई के लिए नौकरी छोड़ कर गए थे?
बहनजी सत्तर वाले दशक में जब मान्यवर के सामाजिक जागरूकता मिशन से जुड़ी (जब पार्टी तक नही बनी थी) तब क्या उनके दिमाग में मलाई खाने का ही सवाल था?
किसी भी पार्टी में जो लोग आज पदाधिकारी है, सही काम नही करेगा तो कल कोई दूसरा होगा. लेकिन, ये मलाई-वलाई के मुद्दे पर तो मान्यवर का मिशन ही दारू के पव्वों में बिकता नजर आयेगा. दलितों के सामाजिक और राजनैतिक उत्थान का मिशन मलाई खाने के लिए नही होता, ये समाज के दुख-दर्द, समस्याओं को समझने का मिशन है; और राजनैतिक सत्ता के जरिये उनके स्थाई समाधान का रास्ता तैयार करने का मिशन है. मलाई-वलाई करते रहने वाले बाघड़बिल्लों से भी सावधान रहने की जरुरत है, इन्ही अफवाहों ने सत्ता दलितों से कोसों दूर कर रखी है.
आप जब घर में बैठे कई-कई साल क्रिकेट मैच देखकर खुश होते हो तो क्या सचिन, गांगुली, सहवाग, कोहली आदि से मलाई मिलती है? सच्चे अम्बेड़करवादी की परख तो बिना पद के ही की जा सकती है. अपनी ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग की आदत डालिये. एक दिन की गलती पूरे पाँच साल तक भुगतनी है, ये वोटिंग वाले दिन भुलना नही चाहिए.
(लेखक: एन दिलबाग सिंह; ये लेखक अपने विचार हैं)