विषमतावादी कथाओं का जाल और शूद्रों की गुलामी
भारत का हिन्दू समाज वर्णव्यवस्था पर आधारित सहस्रों जातियों और उपजातियों में विखण्डित है। मैक्स मूलर और मैक्स वेबर जैसे विद्वानों ने ऋग्वेद के दशम मण्डल में वर्णित पुरुषसूक्त के भाषिक विश्लेषण से प्रमाणित किया कि ब्राह्मण धर्म में प्रारम्भ में केवल त्रिवर्ण—ब्राह्मण, क्षत्रिय (राजन्) और वैश्य—ही थे। चतुर्थ वर्ण, शूद्र, को इसमें बलात् संनिवेशित किया गया। यह वर्ण उन समुदायों का प्रतिनिधित्व करता है, जिन्होंने सांस्कृतिक द्वन्द्व में ब्राह्मणी संस्कृति को स्वीकार कर लिया। जो इस संस्कृति को अस्वीकार करने व इसका बहिष्कार करने वाले थे—मुख्यतः बौद्ध परम्परा से संनिबद्ध—उन्हें ब्राह्मणी सत्ता के सहयोग से बहिष्कृत और अछूत घोषित कर दिया गया। इस आलेख का उद्देश्य शूद्रों की दासता के कारणों को पौराणिक कथाओं के पात्रों के माध्यम से उद्घाटित करना है।
क्या किसी ने सुना है कि किसी की हत्या कर अथवा छल-कपट से वध कर उसके राज्य को हड़प लेने वाला कृत्य दया और करुणा कहलाया हो? क्या ऐसी दया-करुणा भी होती है? भारत की विषमतावादी संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में, दया-करुणा की आड़ में किया गया यह हत्याकांड दया नहीं, अपितु शूद्र विद्रोह की संभावना को कुचलने का षड्यन्त्र है। यह समतावादी संस्कृति को हाशिये पर धकेलने की सुनियोजित चाल है। इसके प्रमाण भारत के जनमानस में रची-बसी पौराणिक कथाओं, गीतों और पात्रों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं।
इसी नीति के अंतर्गत पौराणिक साहित्य में राम ने रावण का, वामन ने बलि का, नरसिंह ने हिरण्यकश्यप का, और दुर्गा ने छल से महिषासुर का वध कर उनके राज्य को स्वयं हस्तगत किया अथवा अपने किसी सम्बन्धी या दास को सौंप दिया। तदनन्तर इन हत्यारों को नायक घोषित कर उनका जयघोष किया गया, जबकि समतावादी पात्रों को खलनायक ठहराकर आज तक उनकी निन्दा और दहन की परम्परा चली आ रही है। महाराज रावण, महाराज बलि, महाराज हिरण्यकश्यप और महाराज महिषासुर की प्रजा ने विद्रोह तो दूर, संशय तक व्यक्त नहीं किया। उन्हें यह विश्वास दिलाया गया कि उनका राजा दुष्ट था, और उसकी हत्या कर उनके पूर्वजों पर दया की गई, उन्हें स्वर्ग में स्थान और उद्धार प्राप्त हुआ। इससे संतुष्ट होकर उनकी प्रजा और वंशज मौन धारण कर बैठे।
ये कथाएँ भले ही काल्पनिक हों, किन्तु इनका संदेश आज भी जनमानस के चित्त में जीवन्त है। शूद्रों के मन में इन कथाओं का जीवित रहना उनकी दासता का प्रमुख कारण है। इस कारण वे आज भी अपने शत्रु—विषमतावादी संस्कृति और इसके सहयोगियों—को उद्धारक मानते हैं, जबकि अपने सच्चे नायकों और नेतृत्व—बहनजी और बसपा—को खलनायक ठहराकर उनकी निन्दा करते हैं। भारत बुद्ध की भूमि है, दया और करुणा का आलय। यहाँ हिंसात्मक संस्कृति तभी सफल हो सकती है, जब वह दया की चादर ओढ़े। यही कारण है कि विषमतावादी संस्कृति ने सदा दया की आड़ में समतावादियों के पृष्ठ में खंजर घोंपा, ताकि शोषित समाज विद्रोह न कर सके और शोषक अपने कृत्य का गर्व सहित औचित्य प्रस्तुत कर सके। इस प्रकार पीड़ित अपनी हत्या और लूट पर गर्व करता है—यह दासता का आदर्श रूप है। इसी कारण शूद्र समाज ने कभी एकजुट क्रान्ति की कल्पना तक नहीं की।
समतावादी समाज की स्थापना हेतु भारत में लोकवादी क्रान्ति तभी संभव है, जब इन पौराणिक कथाओं और उनके संदेशों के स्थान पर समतावादी और लोकवादी संदेश जनमानस तक पहुँचें। मान्यवर कांशीराम ने कहा था, “हमें अपनी ऊर्जा और समय दूसरों की खींची विषमतावादी रेखा को मिटाने में नहीं, अपितु अपनी समतावादी रेखा खींचने में व्यय करना चाहिए” (स्रोत: बहुजन संगठक, 10 मई 1990)। आन्दोलन में उतार-चढ़ाव स्वाभाविक हैं। अतः अनावश्यक निन्दा से बचते हुए हमें अपने नायकों-नायिकाओं के संघर्ष, संदेश और गौरव गाथाओं को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य निरन्तर करना चाहिए। तभी शूद्र समाज अपनी दासता के बंधनों से मुक्त होकर समतामूलक भारत के सृजन में दलितों का सहयोगी बन सकेगा।
स्रोत और संदर्भ :
- मैक्स मूलर, “ऋग्वेद संहिता: दशम मण्डल,” 1890।
- मैक्स वेबर, “द रिलिजन ऑफ इंडिया,” 1916।
- मान्यवर कांशीराम, “अपनी रेखा खींचें,” बहुजन संगठक, 10 मई 1990, अंक 5, वर्ष 8।
- डॉ. बी.आर. आंबेडकर, “शूद्रों की खोज,” संकलित रचनाएँ, खंड 7, 1946।
- प्रो. विवेक कुमार, “पौराणिक कथाएँ और शूद्र चेतना,” इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 2015।