भारत का मीडिया चुनावों के समय हमेशा बताता आया है कि फलां-फलां सीट दलित बाहुल्य है, मुस्लिम बाहुल्य है, यादव बाहुल्य है लेकिन ये कभी नही बताता कि कौन- कौनसी सीट ब्राह्मण बाहुल्य है, ठाकुर बाहुल्य है या बनिया बाहुल्य है. जबकि, आधी से ज्यादा सीटों पर तो आज तक हमेशा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आदि ही जीतकर संसद व विधानसभाओं मे पहुँचते आए हैं.
सच्चाई ये है कि देश मे ऐसी बहुत ही कम सीटें, या यूँ कहिये कि उंगलियों पर गिनती की सीटें ऐसी होंगी जो ब्रह्मण, क्षत्रिय या वैश्य बाहुल्य सीटें हैं. फिर भी ये मीडिया वाले कौन सा जाल फेंकते है, कौन सा नरैटिव लोगों के दिमाग मे फिट करते है कि जनता को ही जातिवादी भी साबित कर देते है और देश की सबसे कम संख्या वाली आबादी को ही तकरीबन हर बार एकतरफा जीतवा कर संसद व विधानसभाओं में भी भिजवा देते हैं. अगर आपको लगता है कि कुछ फैक्टस् पर गलत लिखा है तो प्लीज आप अपने वाला फैक्टस् बता दीजिये. उजूल-फिजूल बकवास करने से बेहतर है कि आप तथ्यों को काउंटर करें.
मुझे लगता है कि देश मे दलित, आदिवासी, पिछड़े और मुस्लिम वर्गो मे राजनैतिक चेतना शून्य बराबर है. यही कारण है कि भीमाकोरेगाँव, चैत्यभूमी आदि में हर साल लाखों की भीड़ खड़े करने वाले व खुद को क्रांतिकारी और अम्बेड़करवादी बताने वाले लोगों के पास आज तक महाराष्ट्र के 48 सांसदों व 288 विधायकों में 10% सीट भी जीताने का दम नही बन पाया है और ना ही 10% वोट लाने का दम कभी बन पाया है. यही हाल एक तिहाई दलित आबादी वाले पंजाब का है जो ना तो दलितों के स्वतंत्र नेतृत्व के नाम पर दलितों के 10-15% वोट ही एक जगह डलवा पाता है और ना ही इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद अपने बलबुते कोई मुख्यमंत्री का चेहरा ही सामने टक्कर में ला पाया है.
ऐसी ही हालात एक तिहाई मुस्लिम आबादी वाले पश्चिम बंगाल और आसाम जैसे राज्यों की भी है जिसमे मुस्लिम समाज हमेशा गैर भाजपा दलों की पूँछ बनकर ही रहा है जबकि वो इन राज्यों में बड़ी राजनैतिक ताकत बनकर उभर सकते हैं. पिछड़ों की तो बात करना ही बेकार है, वो तो तकरीबन हर राज्य में बड़ी आबादी होने के बावजूद तकरीबन हर राज्य मे पिछड़ चुका है. आदिवासी समाज का भी कोई बड़ा नेता नही बन पाया है.
दलित समाज के लोग तो अपने ही बड़े नेताओं को बौना साबित करने में जी जान से लगे रहते है. इनको कौन समझाये कि राजनीतिक पार्टी और सामाजिक संगठन मे बहुत से बुनियादी अंतर होते है. जो काम कोई संगठन बिंदास कर देता है, वो काम राजनीतिक पार्टी अक्सर नही कर पाती. ये बात सबकी समझ मे आ जानी चाहिए कि छोटी-छोटी पार्टियाँ बनाकर खुद को राष्ट्रीय अध्यक्ष कहने से या बिना बात मुँछो पर मरोड़ी देते रहने से ना मुँछे लम्बी होती है और ना ही किसी समस्या का समाधान निकलता है. अपनी पार्टी बना बनाकर बहुत से लोग राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके है लेकिन वो पिछले 75 सालों से अपनी कहीं जमानत तक नही बचा पाये हैं.
कोई कुछ भी कहो, इतनी कम आबादी के बावजूद जो राजनीति की समझ और राजनैतिक चेतना ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य समाज में है. ऐसी राजनैतिक चेतना दलित आदिवासी, पिछड़े और मुस्लिमों में आने में कम से कम सौ साल लग जायेगे. मेरी नजर में भारत सही मायने मे लोकतंत्र की समझ वाला देश तब माना जाना चाहिए तब इसके हर वर्ग यानि दलित, आदिवासी, पिछड़े, सवर्ण, मुस्लिम, बौद्ध, सिख व ईसाई को बिना किसी हो हल्ले के आबादी के अनुपात के आसपास हर वर्ग के सही नुमाइंदे चुनने की समझ विकसित हो जाये, इससे पहले मौजूदा लोकतंत्र को वोटो से चुनी गई राजशाही कहना बहुत ज्यादा गलत नही है.
(लेखक: एन दिलबाग सिंह; ये उनके निजी विचार हैं)