हाथी का पतन, बंदर का राज : बहुजन आंदोलन की दिशा
जंगल में शाकाहारी जानवरों का राजा हाथी धीर-गंभीर और बुद्धिमत्ता के साथ शासन करता था। उसने पूर्ण अनुशासन के साथ सभी जानवरों की रक्षा और सुरक्षा सुनिश्चित की, जिससे शाकाहारी प्राणी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। मांसाहारी जानवरों को शिकार के लिए कठिन परिश्रम करना पड़ता था, और परिणामस्वरूप जंगल में अपराध दर में कमी आई। हाथी के चुस्त-दुरुस्त प्रशासन ने मांसाहारियों के आतंक को नियंत्रित किया, जिससे उनके लिए भोजन की समस्या उत्पन्न हो गई। परेशान मांसाहारियों ने एक सभा बुलाई और हाथी को सत्ता से हटाने की रणनीति बनाई। उन्होंने हाथी के खिलाफ दुष्प्रचार शुरू किया, यह अफवाह फैलाकर कि “हाथी कुछ नहीं कर रहा,” जो जंगल में आग की तरह फैल गई। इस झाँसे में आकर शाकाहारी जानवर भी हाथी को हटाने की सोच में पड़ गए।
धूर्त बंदरों ने अवसर देखा और सोचा कि इस बार राजा बंदर को बनाया जाए। किंतु कमजोर होने के कारण बंदर समझ गए कि हाथी को सीधे हराना असंभव है। अतः उन्होंने मांसाहारियों से गुप्त संधि की, जिसमें कहा गया, “आप निर्बाध शिकार करें, किंतु बंदर जाति पर रहम रखें।” मांसाहारियों को यह प्रस्ताव स्वीकार्य लगा। इस अप्रत्यक्ष समर्थन के बल पर बंदरों ने हाथी के खिलाफ दुष्प्रचार तेज किया और शाकाहारियों में असंतोष भड़काया। अंततः शाकाहारियों ने चुनाव की माँग की, जिसे हाथी ने स्वीकार कर लिया। चुनाव में बंदर ने हाथी को चुनौती दी और सभी की रक्षा-सुरक्षा का वादा किया। भोले शाकाहारी इस झाँसे में आ गए और बंदर को जंगल का राजा चुन लिया। परिणामस्वरूप, मांसाहारियों को खुला मैदान मिल गया, और वे बड़े पैमाने पर शाकाहारियों, यहाँ तक कि बंदरों का भी शिकार करने लगे। व्यथित जानवर राजा बंदर के पास पहुँचे और अपनी पीड़ा सुनाई।
राजा बंदर ने कहा, “चलो, कुछ करते हैं,” किंतु वह एक पेड़ पर चढ़कर डालियों पर कूदने-फाँदने लगा। जानवरों ने पूछा, “यह क्या कर रहे हैं?” बंदर बोला, “देखते नहीं, कितनी मेहनत कर रहा हूँ? जो कर सकता हूँ, कर रहा हूँ।” जानवरों ने सोचा, “बात तो सही है, बंदर कुछ तो कर रहा है; हाथी तो कुछ नहीं करता था।” इस प्रकार, वे खुशी-खुशी मांसाहारियों के भोजन बनते रहे, बंदर राज करता रहा, और मांसाहारियों का भी शासन चलता रहा। यह कहानी समाजवाद का प्रतीक है। इसमें हाथी बसपा के शासन का द्योतक है, शाकाहारी जानवर बहुजन समाज का, बंदर सामाजिक न्याय के दलों का, और मांसाहारी मनुवादियों का। बंदर की उछल-कूद को क्रांति कहकर गुमराह बहुजन कहते हैं, “कुछ तो कर रहा है,” जबकि मनुवादी व्यवस्था मजबूत होती जाती है।
बहुजन आंदोलन को सफल बनाने के लिए इसके मूल को समझना आवश्यक है। हर आंदोलन के लक्ष्य, सिद्धांत और सूत्र होते हैं। लक्ष्य भटकाव से बचाते हैं, सिद्धांत उतार-चढ़ाव से उबरने की शक्ति देते हैं, और सूत्र मार्ग की अड़चनों का समाधान प्रस्तुत करते हैं। समय और स्थान बदलें, किंतु यदि आंदोलन का लक्ष्य स्थिर है, तो उसके सिद्धांत और सूत्र भी अपरिवर्तनीय रहते हैं। मान्यवर कांशीराम ने बुद्ध, फुले और आंबेडकर के आंदोलन को सशक्त करने हेतु लक्ष्य निर्धारित किया—“सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति।” इसके लिए पाँच सिद्धांत और दस सूत्र प्रतिपादित किए, जिनके आधार पर बामसेफ, डीएस-4, बीआरसी और अंततः बसपा का गठन हुआ। बसपा का उद्देश्य बाबासाहेब की “मास्टर चाबी”—राजनैतिक सत्ता—के माध्यम से समतामूलक समाज सृजन करना है (स्रोत: बहुजन संगठक, 15 अगस्त 1992)।
किंतु आज का बहुजन नवयुवक—ओबीसी, एससी, एसटी—अपने इतिहास, आंदोलन, लक्ष्य, सिद्धांत, सूत्र और सकारात्मक एजेंडा भूल चुका है। परिणामस्वरूप, यह समाज उन्माद के चक्रव्यूह में फँसकर अपनी ऊर्जा, समय और सीमित संसाधनों का दुरुपयोग कर रहा है। 7 नवंबर 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण को संवैधानिक ठहराया, और इंदिरा साहनी मामले की 50% सीमा को दरकिनार कर दिया (स्रोत: सुप्रीम कोर्ट निर्णय, 2022)। इस फैसले ने सोशल मीडिया पर तथाकथित बहुजन बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और प्रोफेसरों को पुनः चर्चा का आधार दे दिया। वे लाइक, शेयर और सब्सक्रिप्शन के जरिए धन उगाही में जुट गए, और बहुजन युवा उनकी “हाँ में हाँ” मिलाकर बसपा और बहनजी को कोसने लगा, मनुवादी कठपुतली दलों (सपा, राजद, टीएमसी, आप) की पैरवी करने लगा। यह विरोधाभास दर्शाता है कि बहुजन समाज अपनी कब्र स्वयं खोद रहा है।
जब-जब बहुजन समाज अपने लक्ष्य, सिद्धांत और सकारात्मक एजेंडा से भटका, उसे हानि उठानी पड़ी—चाहे वह कमजोर राजनीति हो या 7 नवंबर 2022 का फैसला। यदि बहुजन समाज सामाजिक परिवर्तन (बसपा) के साथ अडिग रहता, तो वह सवर्ण आरक्षण का विरोध करने के बजाय ओबीसी (55%), एससी (25%), और एसटी (10%) के लिए जनसंख्याानुपात में प्रतिनिधित्व की माँग करता। सवर्णों को उनकी 10% जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण से कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, किंतु बहुजन को अपने हक में समुचित प्रतिनिधित्व चाहिए। मान्यवर ने कहा था, “हमें दूसरों की रेखा मिटाने की नहीं, अपनी गहरी रेखा खींचने की जरूरत है” (स्रोत: बहुजन संगठक, 10 मई 1990)। किंतु बहुजन समाज सवर्णों के ईडब्ल्यूएस आरक्षण का विरोध कर मनुवादियों की न्यायिक जीत सुनिश्चित कर रहा है।
बहनजी कहती हैं कि संघर्ष संसद में करना चाहिए, किंतु चमचे ट्विटर ट्रेंड और सड़क पर लाठी-तलवार की बात करते हैं। बहनजी वोट से सत्ता परिवर्तन की बात करती हैं, चमचे क्रांति की। मान्यवर सामाजिक परिवर्तन की बात करते हैं, बहुजन सामाजिक न्याय के लिए बलि दे रहा है। आंदोलन बदलाव चाहता है, बहुजन बदला। बहनजी “सर्वजन हिताय” की नीति की बात करती हैं, बहुजन सवर्णों को देश-निकाला देने की। मान्यवर सकारात्मक एजेंडा सुझाते हैं, बहुजन नकारात्मकता में संसाधन नष्ट करता है। बहनजी धम्म प्रचार की बात करती हैं, बहुजन हिंदू देवताओं का विश्लेषण करता है। बाबासाहेब सत्ता पर कब्जे की बात करते हैं, बहुजन 22 प्रतिज्ञाओं को प्राथमिकता देता है। बाबासाहेब कहते हैं कि – यदि आन्दोलन के लक्ष्य तक पहुँचना है तो आपको आपके सच्चे नेतृत्व के आदेशों को बिना सवाल किए स्वीकरने होगें परन्तु बहुजन समाज है कि बहनजी का आदेश मानने के बजाय रोज सलाह दे रहा है। यह भटकाव ही असफलता का कारण है।
बहुजन आंदोलन की सफलता के लिए अपने इतिहास, लक्ष्य—“सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति”—सिद्धांत, सूत्र और सकारात्मक एजेंडा को समझना होगा। एक विचारधारा (बहुजन), एक नेता (बहनजी), और एक झंडे (बसपा) के अंतर्गत संगठित होकर ही मिशन साकार होगा। बहनजी के नेतृत्व पर अटूट विश्वास और उनके निर्देशों का पालन ही समतामूलक समाज का मार्ग प्रशस्त करेगा।
स्रोत और संदर्भ :
- मान्यवर कांशीराम, “सकारात्मक रेखा,” बहुजन संगठक, 10 मई 1990, अंक 5, वर्ष 8।
- “लक्ष्य: सामाजिक परिवर्तन,” बहुजन संगठक, 15 अगस्त 1992, अंक 12, वर्ष 10।
- सुप्रीम कोर्ट, “ईडब्ल्यूएस आरक्षण निर्णय,” 7 नवंबर 2022।
- डॉ. बी.आर. आंबेडकर, “सत्ता: मास्टर चाबी,” संकलित रचनाएँ, खंड 1, 1936।
- प्रो. विवेक कुमार, “बहुजन भटकाव,” इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 2015।