कुछ साथियों का मानना है कि मनुस्मृति या तुलसीदास द्वारा लिखी रामचरितमानस का विरोध बेवजह है. क्योंकि इनको कौन पढ़ता होगा या पढ़ते भी होंगे तो नाममात्र के लोग ही पढ़ते होंगे.
बात तो सही है कि मनुस्मृति या रामचरितमानस आदि तो बहुत कम लोग पढ़ते होंगे या पढ़कर जातिवादी बनते होंगे. लेकिन, जातिवाद तो आज भी है, सोचना होगा कि कहीं पीड़ित समाज की खामोशी ही जातिवादियों की ताकत तो नही हैं?
आपको क्या लगता है भाई कि सदियों पहले जो अछूतों के साथ व्यवहार किया जाता था, हर आदमी पहले मनुस्मृति या रामचरितमानस पढ़कर ही जातिवाद और छूआछात में यकीन करता होगा? पहले तो पूरा समाज ही लगभग अनपढ़ था फिर पूरे देश में ये जहर बिना पढ़े लिखे ही कैसे फैल गया? लेकिन, सच तो यही है कि किसी ने तो ये सब पढ़कर जातिवाद का जहर फैलाया ही होगा, अपने आप तो फैला नही होगा कि सुबह उठे और पूरे देश में ये जहर फैल गया.
विरोध में शक्ति होती है, विरोध करने के लिए भी सबके लिए पहले पढ़ने की जरूरत नही है, बस किस-किस की बातों पर यकीन करके विरोध कर रहे हैं, ये सबसे ज्यादा जरूरी है. बाबासाहेब और मान्यवर साहेब जैसे लोगों पर हमने भरोसा किया क्योंकि यकीन था, क्या हमने उनकी लिखी बातों को चैक करने की कोशिश की कि कहीं उन्होने गलत तो नही लिख दिया. विरोध करने वालों के साथ खड़ा होने से एक फायदा ये है कि इस प्रतिकार से जातिवादी लोगों में जातिवाद के खिलाफ संगठित सोच से खौफ पैदा होगा और जो अच्छे लोग हैं जो अच्छा-बुरा समझते हैं वो जातिवादी सोच पर मनन करना शुरू कर देंगे और पीड़ितों शोषितों का दर्द भी बेहतर तरीके से समझेंगे.
विरोध करने में और किसी जाति या साम्प्रदाय विशेष के प्रति जहर फैलाने में बहुत अंतर होता है, बस उस अंतर को समझकर चलना होगा और वो अंतर एक को मान्यवर बनाता है और दूसरे को किसी मेश्राम बनाता है.
(लेखक: एन दिलबाग सिंह; ये लेखक के अपने विचार हैं)