12 मार्च 1930 को जब गांधीजी ने डांडी यात्रा शुरू की थी तब अंग्रेज उनपर हंस रहे थे क्योंकि नमक कानून के खिलाफ सत्याग्रह करना भी कोई लड़ाई हुई? लेकिन गांधीजी तब तक यह समझ चुके थे कि यह लड़ाई केवल टैक्स छूट तक सीमित नही है. यह भारतीयों के अपने वजूद से जुड़ा सवाल है. प्रकृति से पानी है और पानी से नमक. यह हमारे देश का अपना संसाधन है और इसपर भी हमे कर देना पड़े तो यह केवल मानवता के लिए शर्मसार होना नही बल्कि गुलामी की बेड़ियों को ढोकर चलना भी था.
गांधी, पटेल, खान अब्दुर गफ्फार खां, राजगोपालाचारी आदि अनेकों नेता यहाँ तक कि कुछ अंग्रेज बुद्धिजीवी भी जो गांधीजी के साथ थे लोगों को समझाने में कामयाब हुए नतीजा यह एक ऐतिहासिक आंदोलन बन गया और अंग्रेजों के चुले हिल गये. सभी स्कूलों की किताबों में पढ़ाया गया, आजादी का राष्ट्रीय आंदोलन कहलाया और इसपर फिल्में, नाटक बने तथा अंत में बुराई पर अच्छाई की जीत भी साबित हुई. होनी भी चाहिए थी क्योंकि अंग्रेजों में बुराई तो थी?
गाँधीजी की डांडी यात्रा से भी तीन वर्ष पहले 20 मार्च 1927 को बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर ने ऐसा ही एक आंदोलन किया था, जिसका नाम पड़ा महाड़ चावदार तालाब सत्याग्रह (Mahad Chavdar Talab Satyagrah). मांग क्या थी? एक तालाब जिसमे हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, पशु, पक्षी सब पानी पीते थे लेकिन शुद्र (महार) जाति के लोगों को तालाब के पास जाने की भी इजाजत नही थी. दूर दूर तक पानी का कोई स्रोत्र नही था इसलिए निम्न जाति को अपने पानी पीने का बंदोबस्त कई मीलों दूर दूसरे गांव के सजातीय कुंए से इंतजाम करना पड़ता था. उसमें भी कई झगड़े व लफड़े थे. गर्मियों में बड़ी आबादी और पानी की समस्या से जूझते कई लोग अपनी जान गंवा बैठे थे.
बाबासाहेब अंबेडकर इस समस्या को कई सालों से कई कई बार सरकार के समक्ष उठा चुके थे. अगस्त 1923 को बॉम्बे लेजिस्लेटिव कौंसिल के द्वारा एक प्रस्ताव भी लाया गया, कि वो सभी जगह जिनका निर्माण और देखरेख सरकार करती है, ऐसी जगहों का इस्तमाल हर धर्म, जाति, समाज का व्यक्ति कर सकता है. जिनमें सार्वजनिक कुंए, मन्दिर, मैदान, सड़क आदि शामिल थे. जनवरी 1924 में, महाड जो कि बॉम्बे कार्यक्षेत्र का हिस्सा था. उस अधिनियम को नगर निगम परिषद के द्वारा लागु किया गया. लेकिन हिन्दू सवर्णों ने इसका विरोध किया जिस कारण सरकारी आदेश के बावजूद इसे अमल में नहीं लाया जा सका.
बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर के कई पत्राचार के बाद भी स्थिति ज्यों की त्यों ही बनी रही इसलिए 20 मार्च 1927 को बाबासाहेब ने एक सत्याग्रह के माध्यम से हिंदुओं के इस कानून को चुनौती देने की ठानी. लोगों की पीड़ा को देखते हुए डॉ अम्बेडकर ने अंग्रेज सरकार से सभी वर्गों के लिए पानी के अधिकार हेतु विज्ञप्ति देकर महाड़ सत्याग्रह करने का फैसला किया और स्वयं उस तालाब के पानी को पीकर सभी वर्गों के उद्धार के लिए 20 मार्च 1927 को निकल पड़े. दूर दूर से लोग उनकी इस यात्रा में शामिल होने पहुंचने लगे.
उस दिन बाबासाहेब ने तालाब पहुंचकर तालाब का पानी छुआ और पीया तथा सभी से आह्वाहन किया कि वे भी पीयें तथा आज से, यहीं से पानी भरकर ले जाएं. बस फर्क इतना था कि सवर्ण लोग बाबासाहेब पर अंग्रेजों की भांति हंस नही रहे थे बल्कि सवर्ण वर्ग उस वक्त अपनी लाठी डंडे तैयार कर रहे थे और विद्वान ब्राह्मण वर्ग तालाब शुद्धिकरण हेतु हवन सामग्री जोड़ रहे थे. जैसे ही सभा सम्पन्न हुई और लोग घरों को जाने लगे जिस गांव से जो भी अछूत आये थे उसी गांव के सवर्णों ने सभी दलितों की भयंकर पिटाई शुरू कर दी. किसी की टाँगे टूटी, किसी के सर फूटे और इस तरह महिलाओं और बच्चों को भी नही बख्शा गया.
लोग रोते गिड़गिड़ाते बाबासाहेब के पास पहुँचे और बाबासाहेब उनकी हालत देखकर खुद रो पड़े. पहले उनके धर्म, ईश्वर और उस समाज को कोसने लगे फिर अपनी किस्मत. बाबासाहेब खुद लोगों को मरहम पट्टी करने लगे और लोगों को ढांढस बंधाते तथा उचित कार्यवाही का भरोसा देते रहे. शाम होते होते पास के एक गांव से खबर आई कि वहां के दो सौ परिवार इस्लाम धर्म कबूलने जा रहे हैं क्योंकि मुस्लिम बनने के बाद उन्हें उसी तालाब में पानी पीने का अधिकार भी मिल जायेगा और लड़ने में भी कम से कम मुकाबला बराबरी का होगा. ऐसे कबतक अकेले ही पीटते रहते.
यह संदेश जब साहब के पास पहुंचा तो बाबासाहेब बोल पड़े कि रोको उन्हें ऐसे समय में कोई फैसला लेना उचित नही है. मैं जानता हूँ कि हम जिस समाज में रहते हैं यह सडा गला समाज है. बहशी लोग है जो महिलाओं और बच्चों पर क्रूरता दिखाते हैं लेकिन यह इनके ही धर्म की शिक्षा है. इसका स्थाई समाधान होना चाहिए. मैं यकीन दिलाता हूँ कि आपके लिए बेहतर विकल्प खोजने के लिए प्रतिबद्ध हूँ. कहा जाता है कि धर्म को गहराई से समझने लिए उन्होंने यही से अपने गहन शोध शुरू कर दिए थे.
महाड़ में सवर्णों ने अगले दिन ब्राह्मण विद्वान बुलाये और पूरे तीन दिन और रात तालाब का शुद्धिकरण हुआ, दूध, घी, दही, गोबर, गोमूत्र यानि पंचगव्य से तालाब शुद्ध हुआ. यज्ञ, हवन करके पानी को प्यूरीफाई किया गया और इस तरह धर्म की लाज बच गई. अब तालाब पर वापस सवर्णों का कब्जा हो गया. उस वक्त समाजसेवी या धार्मिक उदारता, प्रगतिशीलता के उदाहरण किसी भी मनुष्य में नहीं मिलते थे. इसीलिये कहते हैं कि शिवजी ने निकाली होगी गंगा अपनी जटाओं से लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी अछूतों के हाथ का गंगाजल अपवित्र ही है. गाय का गोमूत्र भी अछूत के गंगाजल से पवित्र है.
इन मान्यताओं और परंपराओं को बाहरी आवरण से नहीं समझा जा सकता है इसके लिये बेहद अंदर जाना पड़ेगा, इतिहास को ठीक से समझना पड़ेगा फिर परतें खुद ही खुलती जाती है. आप कल्पना कीजिए 1931 में लंदन में गोलमेज सम्मेलन चल रहा है गाँधीजी नहीं गए तो उनके बदलके मालवीय जी थे और सभी नेता बैठे हुए हैं जिसमें ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड अध्यक्षता कर रहे हैं और बैठक का मुद्दा है भारत के अछूतों की समस्या. मदन मोहन मालवीय खड़े उठकर कहते हैं दलित वर्ग हिंदुओं का अभिन्न अंग है और डॉ अम्बेडकर मेरे छोटे भाई जैसे है इसलिए इस मुददे पर अधिक बहस करना ही व्यर्थ है.
डॉ अम्बेडकर जानते थे कि मालवीय जी दुनिया के सामने झूठ बोल रहे हैं इसलिए बाबासाहेब ने एक पानी का गिलास भरा और मदन मोहन मालवीय को थमाते हुए कहा कि यदि आप मेरे बड़े भाई है तो यह मेरे हाथों से छुआ यह पानी पीकर दिखाओ. मालवीय जी पानी पीने की हिम्मत न कर सके फिर डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि यह कैसा भाईचारा जो छोटे भाई के हाथों से बड़ा पानी तक नहीं पी सकता है? इनका धर्म यदि हमारे स्पर्श से भ्रष्ट हो जाये तो फिर भाईचारा कहाँ है? और फिर डॉ अम्बेडकर को तथा हिन्दू धार्मिक व्यवस्था के रेखांकन को विश्व पटल पर जाना गया.
डॉ अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म का त्याग कर 5 लाख अनुयायियों संग बौद्ध बने और आज उसी महाड़ तालाब के बीच में डॉ अंबेडकर की मूर्ति लगी है लेकिन जो शुद्र वर्ग आज भी हिन्दू बने हैं उन्हें आज भी कभी मन्दिर के नाम पर, कभी पानी के नाम, कभी संस्कृति के नाम पर, कभी घोड़ी के नाम पर तो कभी मूंछ के नाम लिंचिंग, एट्रोसिटी जारी है. अंग्रेजों के नमक कानून पर हमने जीत हासिल की है लेकिन आज़ादी के बाद भी अपने देश के जल, जंगल, जमीन, साधन, संसाधनों पर हम आज भी समान अधिकार तो दूर की बात, समान नजरिया भी स्थापित नहीं कर सके. ऐसे न जाने कितने महाड़-पहाड़ आंदोलन की आवश्यकता आज भी बनी हुई है.
(लेखक: आर पी विशाल, ये लेखक के अपने विचार हैं)