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Thursday, October 23, 2025

जमींदार धरना प्रदर्शन – 2020 : भंते जी, राजनैतिक नेतृत्व एवं शोषित वर्ग

...देश के असली किसानों (भूमिहीन खेतिहर मजदूरों) का शोषण होना ही है, फिर चाहे यह शोषण छोटे-छोटे जमीदार सामंत करे या फिर कारर्पोरेट घराने करे।

“किसान आंदोलन: भूमिहीन मजदूरों की अनदेखी और सामंती शोषण का सच”

प्रस्तावना

भारत में कृषि कानूनों के विरुद्ध चल रहा आंदोलन आज एक ज्वलंत चर्चा का विषय बन चुका है। इस विरोध प्रदर्शन में समाज के हर वर्ग की अपनी-अपनी राय है, और राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन तथा धार्मिक क्षेत्र के लोग जोर-शोर से भागीदारी कर रहे हैं। परंतु इस आंदोलन की सतह को खुरचने पर एक कटु सत्य सामने आता है—यह आंदोलन ‘किसान’ के नाम पर सामंतों और जमींदारों के हितों की रक्षा का एक सुनियोजित प्रयास है। जो लोग किसानी का चोला ओढ़कर सड़कों पर उतरे हैं, वे वास्तव में वे सामंती शक्तियाँ हैं, जो आज भी भूमिहीन खेतिहर मजदूरों—असली किसानों—का शोषण कर रही हैं। यह लेख इस आंदोलन के पीछे छिपे सामंती चरित्र को उजागर करता है और यह प्रश्न उठाता है कि क्या यह विरोध वास्तव में देश के शोषित अन्नदाताओं के हित में है?


आंदोलन का असली चेहरा: सामंतों का खेल

कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे इस विरोध में शामिल अधिकांश लोग जमींदार और सामंत हैं, जो अपनी जमीनदारी और सामंती व्यवस्था को बनाए रखने के लिए सक्रिय हुए हैं। इनके खेतों में पसीना बहाने वाले भूमिहीन मजदूर—जो वास्तव में खेती का आधार हैं—या तो इस आंदोलन से अनुपस्थित हैं या फिर जमींदारों द्वारा दिहाड़ी पर लाए गए हैं, ताकि ‘किसानी’ का नकाब बरकरार रहे। यह विडंबना है कि कुछ बौद्ध भिक्षु (भंते जी), जो दलित और बहुजन समाज को धम्म का मार्ग दिखाने के लिए समर्पित हैं, इस आंदोलन में जमींदारों के पक्ष में खड़े दिखाई दे रहे हैं। बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने स्पष्ट कहा था कि खेतों में श्रम करने वाला ही असली किसान है। फिर आज यह सवाल अनुत्तरित है कि जिनके पास जमीन नहीं, जो खेतों में मेहनत करते हैं, उनकी आवाज इस आंदोलन में क्यों गुम है? सच तो यह है कि जमीन के मालिक खेती नहीं करते; वे दूर बैठकर वसूली करते हैं और शोषण का यह चक्र अनवरत चलता रहता है।


शोषण का चक्र: सामंत या कॉर्पोरेट

इस आंदोलन का घोषित उद्देश्य कृषि कानूनों को रद्द करना है, परंतु इसका गहरा मकसद जमींदारों की सामंती सत्ता को संरक्षित करना है। यदि ये कानून वापस भी हो जाते हैं, तो क्या भूमिहीन मजदूरों का जीवन बदल जाएगा? नहीं, क्योंकि शोषण का यह खेल जारी रहेगा—बस शोषक का चेहरा बदल जाएगा। आज छोटे-छोटे सामंत और जमींदार यह शोषण कर रहे हैं; यदि कानून लागू हुए, तो यह जिम्मेदारी कॉर्पोरेट घरानों जैसे अडानी और अंबानी के हाथों में चली जाएगी। दोनों ही परिस्थितियों में, असली किसान—जो दलित और बहुजन समुदायों से आते हैं—शोषण के शिकंजे में जकड़ा रहेगा। यह आंदोलन शोषण को समाप्त करने का नहीं, बल्कि शोषक की पहचान बदलने का प्रयास मात्र है।


जमींदारों की सम्पन्नता और असली किसानों की दुर्दशा

इस आंदोलन में जमींदारों की समृद्धि स्पष्ट झलकती है। उनके बच्चे दस लाख रुपये के गर्म कपड़े बांट रहे हैं, ताकि आंदोलन का ‘किसानी’ स्वरूप बना रहे। परंतु यहाँ एक मूलभूत प्रश्न उठता है—क्या देश का असली किसान, वह भूमिहीन मजदूर जो खेतों में हाड़तोड़ मेहनत करता है, इतना समृद्ध हो गया है कि उसके बच्चे लाखों के कपड़े बांट सकें? इसका उत्तर नकारात्मक है। असली किसान आज भी कपड़ों की कमी से जूझ रहा है, जबकि जमींदार अपनी सैकड़ों बीघा जमीन से मोटी कमाई कर रहे हैं। वे अपने बच्चों को अमेरिका तक पढ़ा रहे हैं और इस समृद्धि का श्रेय अपनी जोत को देते हैं, परंतु उन मजदूरों का जिक्र तक नहीं करते, जिनके पसीने से वह जोत उपजाऊ बनती है। यह एक कड़वा सच है कि असली किसान—जो अधिकांशतः दलित और बहुजन हैं—आज भी भूमिहीन और अधिकारहीन हैं।


राजनीतिक परिणाम और असली किसानों की अनदेखी

यदि यह आंदोलन सफल होता है और केंद्र की सत्ता भाजपा के हाथों से निकल जाती है, तो इसका लाभ कांग्रेस जैसे दलों को मिल सकता है। किंतु क्या इससे असली किसानों की स्थिति में बदलाव आएगा? शायद नहीं, क्योंकि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही ऐसी विचारधाराओं के पोषक हैं, जो शोषित वर्गों के हितों को दरकिनार करती हैं। सत्ता बदलने से जमींदारों का रसूख कम नहीं होगा, परंतु भूमिहीन मजदूरों की अनदेखी जारी रहेगी। राष्ट्रहित में सच्चा परिवर्तन तभी संभव है, जब देश में धन और धरती का समुचित बंटवारा राष्ट्रीय मुद्दा बने। जमींदारी उन्मूलन के बाद भी भूमि सुधार के कानून लागू नहीं हुए, जिसके चलते असली किसानों को उनकी हक की जमीन नहीं मिली। यदि भूमिहीन मजदूरों को खेती योग्य जमीन आवंटित की जाए, तो यह वास्तविक क्रांति होगी।


निष्कर्ष: बहुजन समाज की जिम्मेदारी और बसपा का मार्ग

यह आंदोलन बहुजन समाज के लिए एक सबक है। हमें यह समझना होगा कि असली किसान वही भूमिहीन मजदूर हैं, जो दलित और बहुजन समुदायों से आते हैं। इनके हितों की रक्षा के लिए बुद्ध, रैदास, फुले, शाहू और आंबेडकर की विचारधारा पर आधारित बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ही एकमात्र विकल्प है। बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती देश के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने को गहराई से समझती हैं। उनका नेतृत्व ही शोषित समाज को दिशा दे सकता है। साथ ही, भंते जी लोगों का दायित्व धम्म के प्रचार-प्रसार तक सीमित रहना चाहिए, न कि राजनीतिक मंचों पर जमींदारों के पक्ष में खड़े होने तक। यदि हम संवैधानिक दायरे में रहकर अनुशासित होकर कार्य करें, तो एक ऐसा भारत संभव है, जहाँ असली किसानों को उनका हक मिले और समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व की स्थापना हो।


(20 दिसम्बर 2020)


— लेखक —
(इन्द्रा साहेब – ‘A-LEF Series- 1 मान्यवर कांशीराम साहेब संगठन सिद्धांत एवं सूत्र’ और ‘A-LEF Series-2 राष्ट्र निर्माण की ओर (लेख संग्रह) भाग-1′ एवं ‘A-LEF Series-3 भाग-2‘ के लेखक हैं.)


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