बहुजन समाज पार्टी (बी.एस.पी.) ने अपनी स्थापना से ही दलितों, पिछड़ों, और अन्य वंचित समुदायों के उत्थान और सशक्तिकरण को अपना प्रमुख लक्ष्य बनाया है। 25 मार्च 2025 को जारी प्रेस विज्ञप्ति में बी.एस.पी. की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुश्री मायावती ने एक बार फिर दलित-पिछड़ा गठजोड़ को मजबूत करने और इस एकता को राजनीतिक शक्ति में बदलने का आह्वान किया है। यह रणनीति न केवल बहुजन समाज के मनोबल को बढ़ाने का प्रयास है, बल्कि 2027 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सत्ता की “मास्टर चाबी” हासिल करने की दिशा में एक ठोस कदम भी है। इस लेख में प्रेस विज्ञप्ति के आधार पर बी.एस.पी. के इस अभियान के संभावित चुनावी लाभ, बहुजन मनोबल पर प्रभाव, आंदोलन की गति और भविष्य के परिदृश्य का शोधपरक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।
ऐतिहासिक संदर्भ और दलित-पिछड़ा गठजोड़ की नींव
बी.एस.पी. का गठन और उसका आंदोलन बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विचारों पर आधारित है, जिन्होंने दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) को एकजुट होकर अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ाने की सलाह दी थी। प्रेस विज्ञप्ति में इस बात का उल्लेख है कि बाबा साहेब ने 1948 में लखनऊ की एक जनसभा में ओबीसी और अनुसूचित जातियों को अपनी समान समस्याओं के समाधान के लिए एकजुट होने का आह्वान किया था। बी.एस.पी. ने इस दृष्टिकोण को अपनाते हुए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कराने से लेकर उत्तर प्रदेश में अपनी सरकारों के दौरान ओबीसी समुदाय के लिए ऐतिहासिक कदम उठाए हैं। इनमें 27% आरक्षण, पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग की स्थापना, और ओबीसी महापुरुषों के सम्मान में स्मारक निर्माण जैसे कार्य शामिल हैं।
यह गठजोड़ पहले भी प्रभावी रहा है। 2007 के विधानसभा चुनाव में बी.एस.पी. ने दलित-पिछड़ा और सर्वसमाज की रणनीति के आधार पर पूर्ण बहुमत हासिल किया था। हालांकि, 2012 के बाद जातिवादी पार्टियों की साजिशों और वोटों के बंटवारे के कारण यह गठजोड़ कमजोर हुआ। 2025 का यह अभियान उस गठजोड़ को पुनर्जनन देने का प्रयास है, जो 2027 के चुनाव में निर्णायक साबित हो सकता है।
(A) संभावित चुनावी लाभ
(I) वोट बैंक का सुदृढ़ीकरण
उत्तर प्रदेश की आबादी में दलित (लगभग 21%) और ओबीसी (लगभग 40-45%) का संयुक्त योगदान राज्य की राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। बी.एस.पी. का नया अभियान गांव-गांव तक पहुंचकर कांग्रेस, भाजपा और सपा जैसी पार्टियों के “दलित-पिछड़ा विरोधी चाल, चरित्र और चेहरे” को उजागर करने पर केंद्रित है। यदि यह अभियान सफल होता है, तो बहुजन वोटों का ध्रुवीकरण बी.एस.पी. के पक्ष में हो सकता है।
(I(A)) संभावना: 2007 की तरह यदि बी.एस.पी. ओबीसी के बड़े हिस्से (यादवों को छोड़कर, जो सपा के साथ हैं) और दलितों को एकजुट कर लेती है, तो यह 403 विधानसभा सीटों में से 150-250 सीटों पर निर्णायक बढ़त बना सकती है।
(II) जातिवादी पार्टियों का कमजोर होना
प्रेस विज्ञप्ति में कांग्रेस को “गांधीवादी”, भाजपा को “आरएसएसवादी”, और सपा को “परिवार डेवलपमेंट अथॉरिटी” करार देकर बी.एस.पी. ने इनके बहुजन विरोधी रवैये को निशाना बनाया है। ओबीसी और दलित मतदाताओं के बीच यह संदेश प्रभावी हो सकता है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां सपा और भाजपा के बीच वोटों का बंटवारा होता है।
(II(B)) संभावना: पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल में ओबीसी मतदाता (कुर्मी, कोइरी, निषाद आदि) बी.एस.पी. की ओर आकर्षित हो सकते हैं, जिससे सपा और भाजपा का वोट प्रतिशत कम हो सकता है।
(III) महंगाई और बेरोजगारी का मुद्दा
विज्ञप्ति में मौजूदा सरकारों की गलत नीतियों के कारण “अति गरीबी, बेरोजगारी, और अशिक्षा” का जिक्र है। यह मुद्दा ग्रामीण बहुजन मतदाताओं को भावनात्मक रूप से जोड़ सकता है, जो 2027 तक और गहरा सकता है।
संभावना: यदि बी.एस.पी. इस मुद्दे को प्रभावी ढंग से उठाती है, तो यह शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में समर्थन बढ़ा सकती है।
(B) बहुजन मनोबल पर प्रभाव
(I) आत्म-सम्मान और जागरूकता
बी.एस.पी. का यह अभियान बहुजन समाज को उनकी उपेक्षा और शोषण के प्रति जागरूक करने के साथ-साथ उनके ऐतिहासिक योगदान और अधिकारों की याद दिलाता है। मायावती द्वारा ओबीसी और दलितों को “अच्छे दिन” का सपना दिखाना और बाबा साहेब के संघर्ष को प्रेरणा बनाना मनोबल को ऊंचा उठा सकता है।
(II) प्रभाव
यह भावना मतदाताओं में विश्वास पैदा कर सकती है कि उनकी एकता ही उनकी मुक्ति का रास्ता है।
(III) संगठनात्मक मजबूती
प्रेस विज्ञप्ति में परिवार और युवा पीढ़ी को आंदोलन से जोड़ने का निर्देश है। इससे बहुजन समाज में नई ऊर्जा का संचार होगा और बी.एस.पी. का कैडर आधार मजबूत होगा।
प्रभाव: युवा मतदाताओं का जुड़ाव 2027 में सोशल मीडिया और जमीनी स्तर पर प्रचार को गति दे सकता है।
(C) भविष्य के परिदृश्य
(I) सकारात्मक परिदृश्य
यदि बी.एस.पी. दलित-पिछड़ा गठजोड़ को मजबूत करने में सफल होती है और 2027 तक संगठनात्मक ढांचा तैयार कर लेती है, तो यह उत्तर प्रदेश में सत्ता में वापसी कर सकती है। मायावती का “आयरन लेडी” नेतृत्व और बहुजन समाज की एकता इस जीत का आधार बन सकती है। इसके बाद बी.एस.पी. राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी स्थिति मजबूत कर सकती है।
(II) चुनौतियां
(II(A)) वोटों का बंटवारा: सपा और भाजपा जैसे दल ओबीसी और दलित वोटों को बांटने के लिए छोटे संगठनों और जातिगत नेताओं का इस्तेमाल कर सकते हैं।
(II(B)) संसाधन और प्रचार: बी.एस.पी. को भाजपा जैसे दलों की वित्तीय और मीडिया शक्ति का मुकाबला करना होगा।
(II(C)) गठबंधन की संभावना: यदि बी.एस.पी. अकेले चुनाव लड़ती है, तो विपक्षी गठबंधन उसकी राह मुश्किल कर सकता है।
(II(D)) दीर्घकालिक प्रभाव: यह अभियान न केवल 2027 के लिए, बल्कि भविष्य में बहुजन समाज के राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए एक मॉडल बन सकता है। यदि बी.एस.पी. जातिवादी पार्टियों को परास्त कर सत्ता हासिल करती है, तो यह भारत में सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति के आंदोलन को नई दिशा देगा।
निष्कर्ष
बी.एस.पी. का दलित-पिछड़ा गठजोड़ आधारित अभियान 2027 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यह अभियान बहुजन समाज के मनोबल को बढ़ाने, आंदोलन को गति देने और चुनावी लाभ हासिल करने की क्षमता रखता है। हालांकि, सफलता संगठनात्मक मजबूती, निरंतर जागरूकता अभियान, और विपक्षी रणनीतियों का प्रभावी जवाब देने पर निर्भर करेगी। मायावती के नेतृत्व में बी.एस.पी. यदि इस अवसर का लाभ उठाती है, तो यह न केवल उत्तर प्रदेश की राजनीति, बल्कि भारतीय लोकतंत्र में बहुजन शक्ति का एक नया अध्याय लिख सकती है। बाबासाहेब के सपनों को साकार करने की यह पहल भविष्य में सामाजिक न्याय का आधार बन सकती है।