35.1 C
New Delhi
Sunday, April 20, 2025

बसपा का सत्ता समीकरण और चमचों का विरोध

बहुजन समाज : सत्ता और जागरूकता का संतुलन क्यों आवश्यक है?

कुछ लोग (चमचे) यह तर्क दे रहे हैं कि पहले बहुजन समाज को मजबूत किया जाए, फिर सत्ता पर कब्जा किया जाए। हमारे विचार से यह दृष्टिकोण बहुजन समाज को उसके मूल मिशन से भटकाने और गुमराह करने वाला है। बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने एकता का मार्ग प्रशस्त किया, जिसे मान्यवर कांशीराम और बहनजी मायावती ने आगे बढ़ाया। लेकिन आज भी कई लोग, विशेष रूप से ओबीसी समुदाय, गांधी और शंकराचार्य जैसे प्रतीकों के प्रभाव में हैं। यदि पहले इन्हें एकजुट करने की बात की जाए और सत्ता को बाद का लक्ष्य बनाया जाए, तो बहुजन आंदोलन की राह में यह सबसे बड़ी रुकावट होगी। इसलिए सामाजिक जागरूकता और राजनीतिक सत्ता के समीकरणों को साथ-साथ चलाना आवश्यक है।

मान्यवर कांशीराम ने इस संतुलन को समझा था। यही कारण है कि उन्होंने तीन बार कांग्रेस, कम्युनिस्ट, लोकदल और अन्य दलों के बिना शर्त समर्थन से सरकार बनाई। इस कदम से बहुजन समाज को क्या नुकसान हुआ? बसपा के आलोचक इसे स्पष्ट करें। इतिहास गवाह है कि 1995 में बसपा ने भाजपा सहित अन्य दलों के समर्थन से सरकार बनाई और गुंडाराज को समाप्त करने में सफल रही (स्रोत: टाइम्स ऑफ इंडिया, 22 जून 1995)। इसके बावजूद, आलोचकों ने इसे “समझौता” करार दिया, जबकि यह रणनीति बहुजन हित में थी।

एक दुखद पहलू यह है कि जब बसपा विधानसभा में सीटें नहीं जीत पाती, तब भी उसका वोट प्रतिशत लगभग स्थिर रहता है—लगभग 20-22% (स्रोत: चुनाव आयोग रिपोर्ट, 2022)। फिर भी लोग कहते हैं कि बहनजी कुछ नहीं कर रही हैं और बसपा कमजोर हो रही है। दूसरी ओर, जब बहनजी सत्ता के समीकरण तय करती हैं, तब भी आलोचना होती है। इस विरोधाभास का कारण क्या है? क्या यह गुलामी की मानसिकता का परिणाम नहीं है? यदि बसपा मनुवादी दलों से समझौता करने के बजाय सीधे जनता के साथ समीकरण बनाकर सत्ता हासिल करने की रणनीति बनाती है, तो लोगों को आपत्ति क्यों होती है?

बाबासाहेब, फुले, शाहू और अम्बेडकरी आंदोलन के वाहक मान्यवर कांशीराम और बहनजी के प्रयासों से बहुजन समाज में सामाजिक जागरूकता तो आई है, लेकिन राजनीतिक समझ का अभाव क्यों बना हुआ है? क्या कुछ लोग जानबूझकर नासमझी का प्रदर्शन कर बसपा को बदनाम करने की ठान चुके हैं? हमारा मानना है कि ऐसी आलोचना करने वाले वही लोग हैं, जिनकी पिछली पीढ़ियों ने बाबासाहेब का नाम लेकर मान्यवर का विरोध किया था। आज वही नस्लें मान्यवर का नाम लेकर बहनजी के खिलाफ खड़ी हैं। यह एक ऐतिहासिक पैटर्न है, जिसे प्रो. विवेक कुमार ने “बहुजन आंदोलन के भीतर आत्मघाती आलोचना” के रूप में परिभाषित किया है (स्रोत: इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 15 अगस्त 2015)।

फिलहाल, यह स्पष्ट है कि बहुजन समाज के लिए सत्ता और जागरूकता एक-दूसरे के पूरक हैं। मान्यवर कांशीराम ने कहा था, “सत्ता ही वह चाबी है जो सामाजिक परिवर्तन के ताले खोलेगी।” (स्रोत: बहुजन संगठक, 10 मई 1990)। यदि बहुजन समाज इस संतुलन को नहीं समझेगा, तो वह अपने ही लक्ष्यों से दूर होता जाएगा। अब समय है कि बहुजन समाज न केवल जागरूक हो, बल्कि राजनीतिक रूप से परिपक्व भी बने और बसपा के नेतृत्व में सत्ता की राह चुने।


स्रोत और संदर्भ :

डॉ. बी.आर. अम्बेडकर, “सत्ता और सामाजिक न्याय,” संविधान सभा भाषण, 25 नवंबर 1949।

“मायावती का मुख्यमंत्री बनना और समर्थन,” टाइम्स ऑफ इंडिया, 22 जून 1995।

चुनाव आयोग रिपोर्ट, “उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022: वोट प्रतिशत,” 2022।

प्रो. विवेक कुमार, “बहुजन आंदोलन और आंतरिक विरोध,” इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 15 अगस्त 2015।

मान्यवर कांशीराम, उद्धरण, बहुजन संगठक, 10 मई 1990।


— लेखक —
(इन्द्रा साहेब – ‘A-LEF Series- 1 मान्यवर कांशीराम साहेब संगठन सिद्धांत एवं सूत्र’ और ‘A-LEF Series-2 राष्ट्र निर्माण की ओर (लेख संग्रह) भाग-1′ एवं ‘A-LEF Series-3 भाग-2‘ के लेखक हैं.)


Buy Now LEF Book by Indra Saheb
Download Suchak App

खबरें अभी और भी हैं...

बहुजन एकता और पत्रकारिता का पतन: एक चिंतन

आज भारतीय पत्रकारिता का गौरवशाली इतिहास रसातल की गहराइयों में समा चुका है। एक ओर जहाँ पत्रकार समाज में ढोंग और पाखंड के काले...

बहुजन आंदोलन: नेतृत्व मार्गदाता है, मुक्तिदाता नहीं

बहुजन आंदोलन की पावन परंपरा का प्रारंभ जगद्गुरु तथागत गौतम बुद्ध से माना जाता है। इस ज्ञानदीप्त परंपरा को सम्राट अशोक, जगद्गुरु संत शिरोमणि...

हुक्मरान बनो: बहुजन समाज के लिए एक सकारात्मक दृष्टिकोण

भारतीय राजनीति के विशाल पटल पर बहुजन समाज की स्थिति और उसकी भूमिका सदा से ही विचार-विमर्श का केंद्र रही है। मान्यवर कांशीराम साहेब...

भटकाव का शिकार : महार, मुस्लिम और दलित की राजनीतिक दुर्दशा

स्वतंत्र महार राजनीति का अंत महाराष्ट्र में महार समुदाय, जो कभी अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहचान के लिए जाना जाता था, आज अपने मुद्दों से भटक...

जगजीवन राम: सामाजिक न्याय और राजनीतिक नेतृत्व की विरासत

जगजीवन राम, जिन्हें प्यार से "बाबूजी" के नाम से जाना जाता था, भारतीय राजनीति, स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक न्याय आंदोलनों में एक प्रमुख व्यक्ति...

बौद्ध स्थलों की पुकार: इतिहास की रोशनी और आज का अंधकार

आज हम एक ऐसी सच्चाई से पर्दा उठाने जा रहे हैं, जो न केवल हमारी चेतना को झकझोर देती है, बल्कि हमारे समाज की...

ओबीसी की वास्तविक स्थिति और उनकी राजनीतिक दिशा

ओबीसी समाज में लंबे समय से यह गलतफहमी फैलाई गई है कि वे समाज में ऊंचा स्थान रखते हैं, जबकि ऐतिहासिक और सामाजिक वास्तविकता...

भारत का लोकतंत्र और चुनावी सुधार: आनुपातिक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता

प्रस्तावना: विविधता और जाति व्यवस्था भारत एक विविधतापूर्ण देश है, जहाँ अनेक भाषाएँ, धर्म और हजारों जातियाँ सह-अस्तित्व में हैं। यहाँ की सामाजिक व्यवस्था में...

इतिहास का बोझ और लोकतांत्रिक भारत

भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जिसका मार्गदर्शन भारत का संविधान करता है। संविधान ने स्पष्ट रूप से यह सिद्धांत स्थापित किया है कि 15...

सपा का षड्यंत्र और दलितों की एकता: एक चिंतन

भारतीय राजनीति का परिदृश्य एक विशाल और जटिल कैनवास-सा है, जहाँ रंग-बिरंगे सामाजिक समीकरणों को अपने पक्ष में करने हेतु विभिन्न दल सूक्ष्म से...

हिंदुत्व, ध्रुवीकरण और बहुजन समाज: खतरे में कौन?

प्रस्तावना: एक गढ़ा हुआ नैरेटिव पिछले कुछ दशकों से भारत में यह नैरेटिव गढ़ा गया है कि हिंदुत्व खतरे में है। इस कथन ने जनमानस...

दलित साहित्य और बसपा: प्रतिरोध से सृजन की संनाद यात्रा

दलित साहित्य और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) भारतीय समाज में शोषित वर्गों के उत्थान और उनकी आवाज को सशक्त करने के दो प्रभावशाली माध्यम...