भारत जातियों का देश है। बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि भारत जातियों का एक बहुमंजिला इमारत है जिसमें ना तो सीढी है, ना ही खिड़की-दरवाजे। जो जिस मंजिल पर पैदा हुआ है उसकों उसी पर मरना है। ये जाति भारत की सबसे बड़ी सच्चाई है। नारी विराधी जातिवादी मनुवादी सनातनी वैदिक ब्रह्मणी हिन्दू धर्म व संस्कृति द्वारा इजाद की गई, पाली-पोषी जा रही इस जाति व्यवस्था ने समाज के हर इंसान के हर पहलू को प्रभावित किया है।
जाति भारत का वह सच है जिसने भारत विकास को सदियों से रोक रखा है। हालांकि, जाति को ख़त्म करने का तरीका बाबा साहेब ने अपनी किताब ‘जाति का उन्मूलन‘ में बता चुके है लेकिन ये भी सच है कि भारतीय समाज में जाति की जड़ इतनी गहरी हो चुकी है कि इसको ह्रदय परिवर्तन से ख़त्म करना गोबर के ढेर पर महल बनाने जैसा है। ऐसे में, मान्यवर समाज कहते हैं कि बहुजन समाज की जातियों को इकट्ठा कर उनकी खोई हुई राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत व अस्मिता को पुनर्स्थापित कर बहुजन समाज को आसमान की उस बुलंदी तक पंहुचा दे कि मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू स्वघोषित उच्च जाति वाले खुद जाति को ख़त्म करने को मजबूर हो जायें।
जैसा कि सर्वविदित है कि कॉर्ल ब्रेक, मैक्स मूलर और बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर के शोध के अनुसार ऋग्वेद में मूलतः तीन वर्ण (ब्रहम्ण, राजन, वैश्य) ही थे। कालांतर में, देश के मूलनिवासी बहुजन राजाओं, सरदारों और कबीलों को छल-कपट से पराजित कर भारत की मूलनिवासी जनसंख्या को शूद्र के तौर पर वर्ण व्यवस्था के सबसे नीचले पायदान पर रखा गया है। देश के बहिष्कृत (अछूत) व शूद्र वर्ग के लोग इस देश के मूलनिवासी है, इनका वजूद, इतिहास, संस्कृति एक ही है। दूसरी भाषा में कहें तो *भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज का वह हिस्सा जिसने ब्रहम्णी व्यवस्था की गुलामी को सहर्ष स्वीकार लिया वो शूद्र कहलाये। और, जिन्होंने ब्रह्मणी व्यवस्था को इन्कार दिया, उनका बहिष्कार कर दिया गया वो ही बहिष्कृत, अछूत (चमार/महार/चांडाल आदि) कहलायें।
फलत: भारतीय समाज दो बडे वर्गों में विभाजित हो गया है! एक, त्रिवर्ण! इस त्रिवर्ण के अन्तर्गत ब्रहम्ण, राजन, वैश्य, जो कि शोषक वर्ग हैं, आते हैं। ध्यान देने योग्य है कि ऋग्वेद में कहीं पर भी ‘क्षत्रिय’ शब्द का जिक्र तक नहीं है। वर्ण व्यवस्था में ‘राजन’ मतलब कि ‘राजा’ का जिक्र है, क्षत्रिय का नहीं। क्षत्रिय शब्द की उत्पत्ति पालि प्रकृत के ‘खत्तिय’ शब्द से मानी जाती है जिसका मतलब होता है खेती से जुड़े लोग जो कि भारतीय समाज का मेहनतकश मजदूर वर्ग (बहुजन समाज) है। अब ये सब कैसे शूद्र हो गये और दूसरे कैसे क्षत्रिय लिखकर खुद राजन की श्रेणी में दर्ज किए गए, यह अलग से शोध का विषय है।
फिलहाल, दूसरा वर्ग है, मूलनिवासी बहुजन समाज है जो कि वंचित-शोषित है, जिसमें हिन्दू व्यवस्था का हिस्सा शूद्र वर्ग और हिन्दू व्यवस्था के बाहर का हिस्सा बहिष्कृत अछूत व आदिवासी समाज आता है। ब्रहम्णी षडयंत्रतों के तहत ही बहुजनों में विखण्डन को बनाये रखने के लिए शूद्र वर्ण को हजारों जातियों में बाँट दिया गया। इस तरह ये वर्ण व्यवस्था ही जातियों की जननी है।
आज भी भारत की पूरी व्यवस्था जाति रूपी कैंसर की गिरफ्त में है। जाति भारत की राजनीति-अर्थनीति-सामाजिक-सांस्कृतिक ढॉचे को प्रभावित करती है। सवर्णों और यहाँ तक की शूद्रों (अहीर, कुर्मी, लोध, कोइरी आदि) के मन में भी वंचित जगत (चमार/महार/चांडाल आदि) के प्रति नफरत समाज के हर क्षेत्र में दिखाई पड़ता है। रोहित-तडवी-मेघवाल आदि बहुजन छात्रों की संस्थानिक हत्या, घोड़ी पर बरात निकालने पर वंचित जगत के साथ मारपीट-बहिष्कार, आये दिन बाबा साहेब की प्रतिमा पर हमला, खेतों में मजदूरी ना करने पर बहिष्कार, गैंग रेप आदि जाति देखकर ही होता है।
आज के कुछ स्वघोषित मेरिटवाले सांस्कृतिक तौर पर अपराधी ब्राह्मण और उनके गुलाम (सवर्ण जिसमें शूद्र भी शामिल हैं) ये प्रचार कर रहे है कि जाति व्यवस्था और जातिवाद एंटी-हिन्दूइज़्म है लेकिन वे इस बात को क्यों नजरअंदाज कर रहे है कि हिन्दूइज़्म की नींव ही जाति व्यवस्था और जातिवाद के कन्धों पर टिकी हुई है। जिस पल जाति व्यवस्था और जातिवाद ख़त्म हो जायेगा ठीक उसी पल सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म / हिन्दूइज़्म का सर्वनाश हो जायेगा। यही वजह है कि ब्राह्मणों और सवर्णों ने नारी मुक्ति, बाल विवाह मुक्ति, विधवा विवाह, शिक्षा आदि के लिए ढोंग ही सही परन्तु आन्दोलन तो चलाया लेकिन जाति उन्मूलन के लिए कभी कोई आन्दोलन नहीं चलाया और न ही ये कभी चलायेगें। इसलिए समाज के पापों के अंत की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सिर्फ और सिर्फ बहुजनों के कन्धों पर है। ध्यान रहें ये लड़ाई मानवता के मुक्ति की लड़ाई है, ये इंसानियत को जिन्दा रखने की लड़ाई है, ये लड़ाई हमारी है, इसलिए इस सामाजिक संग्राम का महासेनापति हमें ही बनना पड़ेगा। इसलिए बाबा साहेब राजनीतिक सत्ता को मास्टर चाबी कहते हैं जिसके द्वारा शोषित वर्ग अपने लिए अवसर (न्याय आदि) के सारे दरवाजे खोल सकता है। यदि सवर्णों ने जाति और जातिवाद से तौबा कर लिया है तो वसुधैव कुटुम्बकम् का जाप करने लोग जाति आधारित जनगणना, जाति आधारित भागीदारी से डरते क्यूँ है?
बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर ने अपराधी समाज के लिए जाति का उन्मूलन लिखा जिसकों नजरअंदाज कर दिया गया। इस पर आज भी अपराधी समाज विमर्श करने को तैयार नहीं है। इसलिए ये बहुजन समाज की जिम्मेदारी बनती है कि वो शोषित जातियों को इकट्ठा कर उनके मुद्दों को केन्द्र में रख कर राजनीति करें। हमारे विचार से बहुजन समाज को चाहिए कि खुद जाति और जातिवाद को इतना बड़ा मुद्दा बना दे कि ब्रहम्णी रोगी खुद अपना इलाज कराने को मजबूर हो जाय। याद रहें, बसपा एक अस्पताल है, राजनीति एक डॉक्टर और जाति जानलेवा कैंसर है। जिस तरह से डाक्टर ही कैंसर का इलाज कर सकता है, ठीक उसी तरह से राजनीति ही जाति का इलाज कर सकती है।
जो जातिवार जनगणना व इसके आकड़ों से घबरायें, जो जाति पर चर्चा करने से कतरायें, जो जाति पर होने वाली राजनीति का विरोध करें, जो जाति को समस्या मानने से इन्कार करें, जो जातिगत बहुजन आरक्षण का विरोध करें, वहीं जातिवाद का पोषक है, वहीं जातिवादी है, ब्रहम्णी रोगी है। इसलिए जाति के मुद्दे पर खुलकर बहस होनी चाहिए, विमर्श होनी चाहिए, सेमिनार-साहित्य के माध्यम से इस मुद्दे पर, इसके हर पहलू पर खुली चर्चा होनी ही चाहिए। आज सांस्कृतिक तौर अपराधी समाज जिसे जाति के नाम पर ही सारी राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक सहूलियतें प्राप्त हैं वो अपराधी समाज जाति के नाम पर विमर्श करने को तैयार नहीं है क्योंकि ये अपराधी समाज ये जानता है कि जाति पर चर्चा जाति को कमजोर करेगी। परिणामतः जाति कमजोर होगी, तो ब्रहम्णी व्यवस्था कमजोर होगी जिसके परिणामस्वरूप अपराधी समाज का वर्चस्व खत्म हो जायेगा।
‘हमें बहुत दुःख होता, जब ये देखता हूँ कि जाति को मिटाने वाली बहुजन कौम आज खुद अपनी जाति पर गर्व कर रही है। बाबा साहेब ने भी कभी हिंदुत्व को नहीं माना, न ही उनके देवी-देवताओं को। बाबा साहेब ने कभी जाति पर न तो गर्व किया और न ही गर्व करने का सन्देश दिया, बल्कि उन्होंने तो जाति का उन्मूलन नामक पुस्तक लिखकर जाति को खत्म करने के उपाय बताये।’ हमारे निर्णय में, ‘सच्चा अम्बेडकरी कभी जाति, जो कि मानवता विरोधी है, पर गर्व नहीं कर सकता है। जाति पर गर्व करना मतलब कि ब्राह्मणवाद व हिंदुत्व को बढ़ावा देना, ब्राह्मणो की गुलामी को सहर्ष स्वीकार करना और ये एक मुक्त मानव के नहीं बल्कि एक ‘हैप्पी स्लेव’ के गुण है।’
बहुजनों के संदर्भ में हमारा मानना है कि जाति उन्मूलन की दिशा में यदि बहुत बड़ा न सही तो छोटे-छोटे कदम उठाकर लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। ये सच कि जाति की जड़ें हमारे समाज में बहुत गहराई तक जमी हुई है लेकिन फिर भी इनको उखाड़ कर फेका जा सकता है। जाति का उन्मूलन में, बाबासाहेब द्वारा, धर्म (हिन्दुत्व) की सत्ता का बहिष्कार करना, पुरोहितवाद को चुनौती देकर और अंतर्जातीय विवाह को स्वीकार करने की बात कही गई है। यदि बहुजन समाज ही इस बात को स्वीकार कर ले तो बहुजन समाज में आपसी भाईचारा जरूर मजबूत होगा। परिणामस्वरूप, उसकी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं राजनैतिक अस्मिता मजबूत होगी जो उसको स्थायी तौर पर शासक बना देगी। शासक बनकर ये अपने और भारत की उन्नति के सभी दरवाजे खोल सकता है, सुन्दर, सुरक्षित, सुदृढ़ और समतामूलक समाज का सृजन कर भारत राष्ट्र निर्माण के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।