बसपा: शोषित समाज के उद्धार का आंदोलन और उसकी चुनौतियाँ
किसी भी महान, सृजनात्मक और सकारात्मक परिवर्तन के आंदोलन को अपने उद्भव और विकास के मार्ग में असंख्य चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यह चुनौतियाँ न केवल तात्कालिक व्यवस्था और इसके लाभार्थियों से उत्पन्न होती हैं, बल्कि उस शोषित समाज से भी उभरती हैं, जो इस व्यवस्था का शिकार होते हुए भी इसके आदी हो चुका है। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) जैसे आंदोलन, जो सामाजिक न्याय और समता के स्वप्न को साकार करने के लिए संकल्पबद्ध है, के समक्ष यह द्वंद्व और भी प्रखर रूप में प्रकट होता है।
इस आंदोलन की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इसका सर्वाधिक प्रतिरोध उसी शोषित समाज—दलित, ओबीसी, आदिवासी और अल्पसंख्यक—से मिलता है, जिसके उत्थान और सम्मान के लिए यह संग्राम लड़ा जा रहा है। यह समाज, जो सहस्राब्दियों से जातिवादी व्यवस्था के जुए तले पिसता आया है, प्रायः इस व्यवस्था के लाभार्थियों—उच्च जातीय समूहों—के बहकावे में आकर अपने ही मुक्ति के मार्गदर्शक आंदोलन (बसपा) के विरुद्ध खड़ा हो जाता है। यह एक ऐसी त्रासदी है, जो इस आंदोलन की राह को और भी कंटकाकीर्ण बना देती है।
इस संदर्भ में सबसे हृदयविदारक पहलू यह है कि बसपा के प्रबल विरोध का नेतृत्व वह तबका करता है, जो इस आंदोलन के फलस्वरूप सर्वाधिक लाभान्वित हुआ है। सामाजिक प्रतिष्ठा, सांस्कृतिक हैसियत, आर्थिक समृद्धि और राजनीतिक रसूख—ये वे उपहार हैं, जो बसपा ने अपने अथक संघर्ष से इस तबके को प्रदान किए। किंतु लाभ प्राप्त करने के पश्चात् यह तबका प्रायः चमचागिरी की राह पर चल पड़ता है। यह अपनी उपलब्धियों को आंदोलन की देन न मानकर, स्वयं की काबिलियत, मेधा, श्रम और विद्वता का परिणाम समझने लगता है। परिणामस्वरूप, यह अपने ही उद्धारक आंदोलन (बसपा) का विरोध करने में संकोच नहीं करता।
ऐसी परिस्थिति में बसपा जैसे आंदोलन को एक साथ अनेक मोर्चों—सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक—पर संग्राम लड़ना पड़ता है। यह एक कठिन और जटिल यात्रा है, जिसमें कभी-कभी आंदोलन की गति मंद पड़ जाती है। ऐसे क्षणों में शोषित समाज का वह लाभान्वित तबका, जो अब चमचा बन चुका है, अपने ही आंदोलन को कोसने लगता है। यह न केवल आलोचना करता है, बल्कि दुष्प्रचार का ऐसा ताना-बाना बुनता है, जो राजनीतिक रूप से बसपा को गहरी क्षति पहुँचाता है। यह दुष्प्रचार आंदोलन की नींव को कमजोर करने का प्रयास करता है, जिससे इसके समक्ष संकट और गहरा हो जाता है।
ऐसे कठिन समय में बसपा के कार्यकर्ताओं और समर्थकों की जिम्मेदारी कहीं अधिक बढ़ जाती है। यह उनका दायित्व है कि वे आंदोलन को सतत गतिमान रखें, इसे हर संभव त्वरण प्रदान करें और इसके मूल लक्ष्यों को जीवित रखें। यह स्मरण रखना आवश्यक है कि बसपा कोई साधारण राजनीतिक दल नहीं, बल्कि महात्मा ज्योतिबा फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज और बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के सपनों का जीवंत स्वरूप है। यह बहुजन समाज की सामूहिक चेतना और संघर्ष का प्रतीक है। इसकी रक्षा और संवर्धन केवल बसपा के नेतृत्व का ही नहीं, बल्कि समस्त बहुजन समाज का कर्तव्य है।
इसलिए, यह समय है सजग होने का, संगठित होने का और उस आंदोलन को बल देने का, जो शोषण के अंधेरे से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। बसपा का यह संघर्ष केवल एक राजनीतिक लड़ाई नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और सामाजिक क्रांति है, जो शोषित समाज को उसकी खोई हुई गरिमा और शक्ति वापस लौटाने के लिए संकल्पित है। इसे कमजोर करने वाले दुष्प्रचार के मायाजाल को तोड़ना होगा और इसके मूल उद्देश्य को पुनर्जनन देना होगा। यह आंदोलन तब तक जीवित रहेगा, जब तक बहुजन समाज इसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहेगा। यह एक ऐसी मशाल है, जिसे बुझने न देना हम सबकी साझा जिम्मेदारी है।
(13.03.2024)