मार्च 2022 में पंजाब विधान सभा में भारी जीत और दिसंबर 2022 में गुजरात में आंशिक सफलता के बाद जब 10 अप्रैल, 2023 को चुनाव आयोग ने आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिया था. उसके बाद कई सारे राजनीतिक विश्लेषक यह कहने लगे थे कि भविष्य में आम आदमी पार्टी भाजपा का राष्ट्रीय विकल्प बनकर उभरेगी, कम से कम हिंदी पट्टी और पश्चिमोत्तर भारत में. इन विश्लेषकों का यह भी कहना था कि आम आदमी पार्टी का विकास और विस्तार कांग्रेस की कीमत पर होगा. कांग्रेस धीरे-धीरे सिकुड़ती और कमजोर होती जाएगी. स्वयं आम आदमी पार्टी भी खुद को भाजपा के एकमात्र राष्ट्रीय विकल्प के रूप में देखने लगी थी. केजरीवाल खुद को प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार के रूप में देखने लगे थे.
आम आदमी पार्टी के भाजपा के राष्ट्रीय विकल्प बनने की संभावना अब खत्म होती नजर आ रही है. वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य जो आकार लेता हुआ दिख रहा है, उसमें लग रहा है, अब आम आदमी पार्टी के विकास और विस्तार का दौर खत्म हो चुका है. अब आम आदमी पार्टी भारतीय जनता के लिए उम्मीद की कोई किरण नहीं रह गई है. भले ही वह कुछ वर्षों तक दिल्ली की विधान सभा और पंजाब में अपनी उपस्थिति बनाए रखे.
आम आदमी पार्टी के संदर्भ में ऐसी हालत बनने का सबसे पहला कारण यह है कि भारतीय राजनीति इस समय वैचारिक और राजनीति तौर पर ध्रुवीकृत हो चुकी है. इस ध्रुव के दो केंद्र बन रहे हैं. पहला नरेंद्र मोदी और उनके नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी. दूसरा राहुल गांधी और उनके नेतृत्व में कांग्रेस. जहां भाजपा की पूरी राजनीति हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द सिमट गई है. जिसका निशाना मुसलमान हैं. इस प्रक्रिया में लोकतंत्र और संविधान को औपचारिक और अनौपचारिक तौर पर किनारे लगाया जा रहा है.
वहीं दूसरी ओर राहुल गांधी खुद को लोकतंत्र और संविधान के संरक्षक के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं और हिंदुत्व की राजनीति की जगह धर्मनिरपेक्ष राजनीति के पैरोकार के रूप में सामने आ रहे हैं. भारतीय जन का बड़ा हिस्सा भी साफ-साफ दो हिस्सों में बंट गया है. एक हिस्सा खुलकर भाजपा के हिंदुत्ववादी राजनीति के पक्ष में मजबूती से खड़ा है. दूसरा हिस्सा भी उतने ही पुरजोर तरीके से भाजपा की हिंदुत्ववादी राजनीति और विचारधारा के विरोध में खड़ा है. इन दो ध्रुवों के बीच अरविंद केजरीवाल वैचारिक तौर पर भाजपा के साथ हैं, भले ही वे राजीतिक तौर पर इंडिया गठबंधन के हिस्सा हों. इसका प्रमाण वे समय-समय पर मुखर तरीके से देते रहे हैं.
वे समान नागरिक संहिता के नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव के साथ खुलकर खड़े हुए. जय श्रीराम और हनुमान का इस्तेमाल करने में भी गुजरात में भाजपा से होड़ करते दिखे. इसके पहले वे जम्मू-कश्मीर के विभाजन, उसे केंद्र शासित प्रदेश घोषित करने और धारा 370 खत्म करने के मुद्दे पर खुलकर भाजपा का साथ दे चुके हैं. दिल्ली में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा के अभियान (दिल्ली दंगा) में वे पूरी तरह चुप्पी साध रखे थे. गुजरात चुनाव के ऐन बीच उन्होंने हिंदुत्वावादियों, विशेष कर सवर्णों को खुश करने के लिए अपने मंत्री (दलित समुदाय से आने वाले) राजेंद्र पाल गौतम को मंत्री पद छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया. उनका कसूर यह था कि उन्होंने डॉ. आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं को एक निजी कार्यक्रम में दोहरा दिया था.
इस तरह केजरीवाल ने स्वयं के हिदुत्व की राजनीति के दोनों तत्वों (मुस्लिम विरोध और सवर्ण वर्चस्व) के साथ खुलकर अपना स्टैंड लिया. केजरीवाल की इन कारगुजारियों से साफ था कि वे भाजपा को उसकी ही वैचारिक जमीन (मुस्लिम विरोधी सवर्ण वर्चस्व की राजनीति) पर चुनौती देना चाहते हैं.
यहां यह प्रश्न जरूर उठता है कि इसके बावजूद भी दिल्ली, पंजाब और गुजरात में लोगों ने भाजपा के विरोध में केजरीवाल को क्यों वोट दिया. दिल्ली और गुजरात में केजरीवाल के वोट देने वाले दो तरह के लोग थे. पहले वे जो वैचारिक और राजनीतिक तौर पर भाजपा के साथ हैं, लेकिन विकास, जनकल्याण और सापेक्षिक तौर पर साफ-सुथरे प्रशासन के लिए विधानसभा या MCD के स्तर पर केजरीवाल चुने या चुनना चाहते थे. दूसरे वे जो न तो भाजपा के हिंदुत्वादी विचारधारा और राजनीति से सहमत थे और न ही केजरीवाल की हिदुत्वादी विचारधारा और राजनीति से ही सहमत थे, लेकिन वे किसी भी सूरत में भाजपा को हराना चाहते थे और उन्हें सामने विकल्प के रूप में सिर्फ आम आदमी पार्टी दिखाई दे रही थी.
विभिन्न कारणों से कांग्रेस उस समय विकल्प के रूप में नहीं दिखाई दे रही थी. यह स्थिति 2020 के दिल्ली विधानसभा के चुनावों में देखने को मिली. जब केजरीवाल के धुर विरोधी धर्मनिरपेक्ष राजनीति के पैरोकार बहुत सारे लोगों ने केजरीवाल का समर्थन किया और उन्हें वोट भी दिया. यहां तक कि खुद को वामपंथी कहने वाले लोगों ने भी, क्योंकि वे किसी सूरत में दिल्ली में भाजपा को हराना चाहते थे. ऐसा ही कुछ एक हद तक गुजरात में भी हुआ था. भाजपा के लंबे समय के शासन से परेशान और कांग्रेस को पंगु की स्थिति में देखकर केजरीवाल पर दांव लगाया, भाजपा को हराने के लिए. पंजाब में अकाली और कांग्रेस से निराश और ऊबे लोगों ने केजरीवाल पर दांव लगाया.
लेकिन अब यह स्थिति बदल चुकी है, विशेषकर 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद. इसी बीच राहुल गांधी की विश्वसनीयता और लोकप्रियता तेजी से बढ़ी. उन्होंने खुद को जमीन पर संघर्ष करने वाले एक नेता के रूप में प्रस्तुत किया और राजनीति के पूर्णकालिक सिपाही के रूप में भी सामने आए. उन्होंने कांग्रेस को एक हद तक साफ्ट हिंदुत्व के शिकंजे से बाहर भी निकाला.
मल्लिकार्जुन खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष बनना भी कांग्रेस के कायान्तरण की प्रक्रिया को मजबूती प्रदान किया. खड़गे और राहुल गांधी के प्रयासों के चलते कांग्रेस ने खुद को सामाजिक न्याय के पैरोकार के रूप में प्रस्तुत किया है. इस समय कांग्रेस न केवल उदारवादी विचारों के लोगों के आकर्षण केंद्र बनी है, बल्कि वामपंथी, सोशिलिस्ट, गांधीवादी और बहुत सारे बहुजन वैचारिकी के लोगों के लिए उम्मीद का केंद्र बनी है. कांग्रेस के सांगठनिक बिखराव का दौर खत्म हो गया है.
कांग्रेस की इस स्थिति ने विकल्पहीनता की स्थिति को खत्म कर दिया, जिसका फायदा आम आदमी पार्टी को मिल रहा था. इसी जमीन पर आम आदमी पार्टी अपना विस्तार कर रही थी. वैचारिक, राजनीतिक और सांगठनिक तीनों स्तरों पर कांग्रेस खुद को मजबूत विकल्प के रूप में प्रस्तुत करती हुई दिख रही है और भाजपा विरोधी मतदाता भी उसे विकल्प के रूप में देख रहे हैं. इस स्थिति ने आम आदमी पार्टी के विस्तार और विकास के रास्ते को बंद कर दिया है.
भाजपा के विकल्प के रूप में कांग्रेस के मजूबती से उभरने के साथ ही अन्य कई कारक हैं, जिन्होंने केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के विकास और विस्तार का रास्ता बंद किया है. आम आदमी पार्टी विभिन्न कारणों से भारतीय जनता के समाने उम्मीद की किरण के रूप में सामने आई थी. बहुत सारे लोगों विशेषकर मध्यवर्ग-निम्न मध्यवर्ग के नौजवानों के एक हिस्से को लगा था कि यह पार्टी भारतीय राजनीति का चेहरा बदल देगी. राजनीति को जनोन्मुखी बना देगी. उसमें सबसे बड़ी बात उसकी सादगी की बातें और भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति का वादा भी था.
अब यह आकर्षण करीब-करीब खत्म हो चुका है, आम आदमी पार्टी भी परंपरागत सत्ताधारी पार्टी में बदल चुकी है. परंपरागत राजनीतिक दलों के सारे दुर्गुण साफ-साफ उसके भीतर दिख रहे हैं. भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति के उसके दावे की पोल खुल चुकी है. उसके नेताओं और खुद केजरीवाल की सादगी और आम आदमी की तरह जीवन जीने की बातों का सच भी सामने आ चुका है. वे सभी तीन तिकड़म और दांव-पेंच वह भी करती है, जो अन्य पार्टियां करती हैं. हालांकि केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का असली चरित्र बहुत पहले ही सामने आ चुका था, जब एक-एक करके देश-विदेश से नए भारत के निर्माण के लिए उसके साथ आए लोग उसका साथ छोड़ दिए. फिर भी जनता के एक हिस्से में उसका यह आकर्षण बना रहा, लेकिन यह भी धीरे-धीरे खत्म हो रहा है.
पानी, बिजली, दवाई-पढ़ाई और जन-कल्याणकारी कार्यक्रम आम आदमी पार्टी के प्रति आकर्षण का एक बड़ा कारण रहा है, एक हद तक उसने इन वादों को पूरा भी किया. जिसने लोगों के मन में उसके प्रति भरोसा पैदा किया. लेकिन अब यह मुद्दा आम आदमी पार्टी के विकास और विस्तार में मदद नहीं दे सकता है. इसका पहला कारण यह है कि इस मुद्दे को सभी पार्टियों ने अपना घोषणा पत्र और चुनावी वादों का हिस्सा बना लिया है और उसे लागू भी कर रही है.
कांग्रेस ऐसे कार्यक्रम पुरजोर तरीके से विभिन्न राज्यों में लागू कर रही है. ऐसे में यह मुद्दा अब सिर्फ केजरीवाल का मुद्दा नहीं रह गया है, अब वे सिर्फ इस मुद्दे के आधार पर चुनाव नहीं जीत सकते हैं. दक्षिण भारत की राजनीति पहले ही केजरीवाल से बेहतर तरीके से सामाजिक कल्याणकारी योजना को जमीन पर उतार रही थी.
पंजाब चुनाव में भारी सफलता, दिल्ली एमसीडी में जीत और गुजरात में प्रभावी दखल आम आदमी पार्टी के विकास और विस्तार का शिखर था. अब ढलान उसका इंतजार कर रही है. उसके विकास और विस्तार के सारे कारक खत्म हो चुके हैं. अब धीरे-धीरे उसका अवसान होगा.
(लेखक: सिद्धार्थ रामू, वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक. ये लेखक के अपने विचार हैं)