सोचो, क्या होता तब…
जब मनुवादी व्यवस्था
आज भी नारी समाज पर थोप दी जाती?
क्या वह छू पाती आसमान?
क्या देख पाती कोई सपना?
क्या खुद के पैरों पर
कभी खड़ी हो पाती?
नहीं… बिल्कुल नहीं।
वो बंद रहती चार दीवारों में,
सदियों पुरानी परंपराओं की कै़द में।
हर रोज जलती
कभी चिता पर,
कभी समाज की सोच पर।
अपने स्वाभिमान की बलि चढ़ाकर,
कभी पत्नी, कभी दासी बन
दूसरों की इच्छाओं का भार ढोती।
कभी सती की आग में झोंकी जाती,
तो कभी मंदिर की सीढ़ियों पर,
ईश्वर के नाम पर उसकी देह को
दान की तरह परोसा जाता।
लेकिन…
धन्य है यह संविधान,
और धन्य हैं वो हाथ
जिसने इसे रचा
बाबासाहेब!
जिन्होंने नारी को
रूढ़ियों की ज़ंजीरों से मुक्त किया,
उसे दिया सम्मान, अधिकार,
और खुला आसमान।
आज अगर वह उड़ रही है
तो उनके कारण।
आज अगर वह जी रही है
तो उनके कारण।
शुक्रिया, राष्ट्र निर्माता बाबासाहेब।
(रचनाकार: दीपशिखा इंद्रा)