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Monday, June 9, 2025

कविता: भीम राह – बाबासाहेब के विचारों और अछुतों की स्थिति को बयां करती एक शानदार कविता

इस कविता "भीम राह" में बाबासाहेब के विचारों और उनके द्वारा किए गए कामों के जरिए अछूतों की स्थिति में आया सुधार और भूतकाल का जिक्र बेहद ही शानदार और मार्मिक ढंग से किया गया है. आप भी पढ़िए और सुनिए कविता "भीम राह..."

— भीम राह —

पशु को गोद खिलाने वाले,
मुझको छूने से बचते थे।
मेरी छाया पड़ जाने पर,
‘गोमूत्र का छीँटा’ लेते थे।।

पथ पर पदचिह्न न शेष रहे
झाडू बाँध निकलना होता था।
धरती पर थूक न गिर जाये,
गले हांडी रखना होता था।।

जान हथेली पर रखकर,
मैं गहरे कुआँ खोदता था।
चाहे प्यासा ही मर जाऊँ,
कूपजगत न चढ सकता था।।

मलमूत्र इकट्ठा करके मैं,
सिर पर ढोकर ले जाता था।
फिकी हुई बासी रोटी,
बदले में उसके पाता था।।

मन्दिर मैं खूब बनाता था,
जा सकता चौखट पार नहीं।
मूरत गढता मैं ठोक-ठोक कर,
था पूजा का अधिकार नहीँ।।
अनचाहे भी यदि वेदपाठ,
कहीं कान मेरे सुन लेते थे।
तो मुझे पकड़कर कानों में,
पिघला सीसा भर देते थे।।

गर वेदशब्द निकला मुख से
तो जीभ कटानी पड़ जाती थी।
वेद मंत्र यदि याद किया,
तो जान गँवानी पड़ जाती थी।।

था बेशक मेरा मनुष्य रूप,
जीवन बदतर था पशुओं से।
खा ठोकर होकर अपमानित,
मन को धोता था रोज आँसुओं से।
फुले पैरियार ललई और साहू,
ने मुझे झिँझोड जगाया था।
संविधान के निर्माता ने,
इक मार्ग नया दिखाया था।।

उसी मार्ग पर मजबूती से,
आगे को कदम बढाया है।
होकर के शिक्षित और सजग,
खोया निज गौरव पाया है।।

स्वाभिमान जग जाने से,
स्थिति बदलती जाती है।
मंजिल जो दूर दीखती थी,
लग रहा निकट अब आती है।
दर से जो दूर भगाते थे,
दर आकर वोट माँगते हैँ।
छाया से परे भागते थे,
वो आज मेरे चरण लागते हैँ।।

वो आज मुझसे पढने आते हैं,
जो मुझे न पढने देते थे।
अब पानी लेकर रहे खडे,
तब कुआँ न चढने देते थे।।

“बाबा” तेरे उपकारो को,
मैँ कभी भुला ना पाऊँगा।
“भीम” जो राह दिखायी है,
उस पर ही बढता जाऊँगा।।

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