प्रो. विद्या राम कुढ़ावी एक ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होंने लेखनी को केवल भावनाओं की अभिव्यक्ति तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे समाज के उत्पीड़ित, वंचित और शोषित वर्गों की आवाज़ बना दिया। “बहुजन सरोकार (चिंतन, मंथन और अभिव्यक्तन)” उनका ऐसा ही एक विचारोत्तेजक आलेख संग्रह है, जिसमें कुल 55 लेख शामिल हैं। ये सभी लेख बहुजन समाज की सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना को केंद्र में रखकर रचे गए हैं, और एक गहन वैचारिक विमर्श का सृजन करते हैं।
लेखक की विशेषता:
प्रो. कुढ़ावी की सबसे बड़ी ताकत है—जटिल सामाजिक विषयों को बेहद सरल, सटीक और तार्किक ढंग से प्रस्तुत करना। वे न केवल विषय को गहराई से पकड़ते हैं, बल्कि पाठक को भी उस मंथन में शामिल कर लेते हैं। उनके लेखन में न कोई भावनात्मक अतिरंजना होती है, न ही कोई वैचारिक ढिलाई। विषयवस्तु का वैज्ञानिक विश्लेषण, ऐतिहासिक संदर्भों की सटीक प्रस्तुति, और वंचित समाज के पक्ष में मुखर वैचारिक प्रतिबद्धता उन्हें समकालीन बहुजन चिंतकों की अग्रणी पंक्ति में स्थापित करती है।
पुस्तक की विषयवस्तु:
यह संग्रह उन सवालों पर केंद्रित है जो दलित-पिछड़े वर्गों के इतिहास, संस्कृति, वर्तमान संघर्ष और भविष्य की दिशा से जुड़े हैं। “हम भारत के लोग”, “बहुजन एकजुटता”, “क्या तथाकथित बहुजन सुधरेंगे?” जैसे लेख बहुजन चेतना को झकझोरते हैं। वहीं “अम्बेडकर की पुस्तक ‘जाति का विनाश’ के परिप्रेक्ष्य में विभिन्न धर्मों में जातीय असमानताओं का विश्लेषण” या “बुद्ध का धम्म – विश्व का धम्म” जैसे लेख धर्म और दर्शन के माध्यम से बहुजन विमर्श को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते हैं।
“हिन्दुत्व, ब्राह्मणवाद का कवच युक्त आवरण”, “हिन्दुत्व रूपी शतरंज के मोहरे रहे हैं, दलित और ओबीसी” जैसे लेख उन बहुपरतित चालों का भंडाफोड़ करते हैं जिनके माध्यम से वर्चस्वशाली ताकतों ने बहुजन चेतना को दिशाहीन करने की कोशिश की। “आरक्षण विरोधी मानसिकता”, “शोषण”, “क्या विनिवेश की जल्दी में सचमुच कल्याणकारी राज्य की संकल्पना की अनदेखी हुई?” जैसे आलेख समकालीन नीतिगत और प्रशासनिक रवैये की भी गहरी पड़ताल करते हैं।
सामाजिक न्याय का घोषणापत्र
प्रो. कुढ़ावी के लेख केवल विश्लेषण नहीं करते, वे दिशा भी सुझाते हैं। “बहुजन बिखराव ही बहुजनों की दुर्गति का कारण”, “नाम में जातिसूचक टाइटल क्यों?”, “डॉ. अंबेडकर और मान्यवर कांशीराम की वैचारिक समानताएं” जैसे लेख सामाजिक एकता और आत्म-सम्मान की भावना को जाग्रत करने का कार्य करते हैं। उनका लेखन पाठक को केवल पढ़ने नहीं, सोचने, और फिर बदलाव की दिशा में आगे बढ़ने को प्रेरित करता है।
भाषा और शिल्प:
लेखक की भाषा गंभीर होने के साथ-साथ संवादात्मक भी है। जटिल विषयों को सरल भाषा में रखकर उन्होंने इस बात को सुनिश्चित किया है कि सामाजिक न्याय का यह विमर्श केवल विद्वानों के बीच सीमित न रह जाए, बल्कि आम जन की चेतना तक पहुंचे।
निष्कर्ष:
“बहुजन सरोकार” केवल एक लेख-संग्रह नहीं, बल्कि बहुजन आत्म-मंथन, सामाजिक क्रांति और वैचारिक पुनर्रचना का घोषणापत्र है। यह पुस्तक उन सभी के लिए अनिवार्य है जो जाति, धर्म, समाज और राजनीति के बहुजन परिप्रेक्ष्य को जानना और समझना चाहते हैं।
तीन पंक्तियों में सार:
- यह पुस्तक बहुजन समाज के दृष्टिकोण से सामाजिक-राजनीतिक विमर्श को गहराई से सामने लाती है।
- लेखक की लेखनी तार्किक, तथ्यात्मक और चेतनाशील है, जो पाठक को भीतर तक झकझोरती है।
- “बहुजन सरोकार” न केवल एक संग्रह है, बल्कि बहुजन मुक्ति का वैचारिक और सांस्कृतिक दस्तावेज है।
पढ़ें, सोचें और बदलें—यही इस पुस्तक की आत्मा है।
(—डॉ. लाला बौद्ध, लखनऊ, ये लेखक के अपने विचार हैं)