बात 1977-78 की है, जिन दिनों साहेब दिल्ली में सरगर्म थे. लेकिन दिल्ली में साहेब की बात कोई भी सुनने को तैयार नहीं था. वजह यह थी कि दिल्ली का हरेक शख्स खुद को दादा समझता था. साहेब दिल्ली से निकलकर उत्तर प्रदेश में अपनी विचारधारा को ले जाना चाहते थे, लेकिन उसके लिए कोई स्रोत नहीं मिल रहा था.
एक दिन बाहरी दिल्ली के दरियापुर गाँव में साहेब को 8-10 लोग नज़र आये. जब साहेब ने उनसे कुछ बातचीत करने की कोशिश की तो उनमें से एक कँवर सिंह नाम के शख्स ने कहा, ‘आपकी बातें हमारे पल्ले नहीं पड़ रहीं हैं. आप पालिका बाज़ार में जय भगवान दास जाटव नाम के आदमी के पास चले जाओ. उसका इंदिरा गाँधी से लेकर संजय गाँधी, जोगिन्दर मकवाना, ज्ञानी जैल सिंह और वी.पी.सिंह जैसे लोगों के साथ उठना-बैठना है. वह आपकी हर तरह से मदद भी कर सकता है. और वह है भी आपकी चमार जाति से संबंधित.’
साहेब ने बस पकड़ी और जय भगवान के पास जा पहुंचे. साहेब ने जय भगवान को कहा कि, ‘मैं देश की व्यवस्था को बदलना चाहता हूँ और समाज में परिवर्तन लाना चाहता हूँ. इसीलिए मैंने शादी नहीं की और यहाँ तक कि मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी और घर ना जाने का फैंसला भी किया है. मैं दबे-कुचले समाज को जहालत भरी ज़िन्दगी से निकालकर मान-सम्मान वाली ज़िन्दगी देकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा हुआ देखना चाहता हूँ.’
साहेब के शब्द सुनकर जय भगवान जाटव ने कहा कि, ‘जिस शख्स के पैरों में ढेढ़ रुपये की टूटी हुई प्लास्टिक की चप्पल हो, कमीज़ फटी हो, पैंट के पहुंचे घिसे हुए हो, तो वह शख्स समाज में परिवर्तन क्या ख़ाक लाएगा?’
लेकिन जब साहेब ने गंभीर होते हुए कहा, ‘मैं समाज को बदलने का ईरादा करके चला हूँ. अब इस बात के लिए चाहे मुझे अपनी ज़िन्दगी ही दाव पर क्यूँ न लगानी पड़ जाये.’ तो साहेब के इन स्वाभिमानी शब्दों को सुनकर जय भगवान जाटव कुछ हिल से गए. क्यूंकि भले ही उसके राजनीति से जुड़े चोटी के लोगों से संबंध रहे थे लेकिन इस तरह का शख्स पहली बार उसके सामने खड़ा था जिसके शब्दों में सदियों से पीड़ित समाज के लिए सच्चा और पाक दर्द जोर मार रहा था.
इसके बाद जय भगवान ने साहेब को अपने तजुर्बे के आधार पर कहा, ‘देखो! यदि आप दबे-कुचले समाज के लिए कुछ करना चाहते हो तो दिल्ली छोड़कर उत्तर प्रदेश पर ध्यान केन्द्रित करो. क्यूंकि दिल्ली का हर इंसान अपने आप को दादा समझता है. और वह आपकी बात को सुनने के लिए तैयार नहीं होगा. और यदि सुन भी लेगा तो पीठ पीछे आपका मज़ाक उड़ाएगा. दूसरी बात, मेरी उत्तर प्रदेश में काफी जान-पहचान भी है. मैं वहाँ आपकी मीटिंग्स वगैरा का प्रबंध भी कर सकता हूँ.’
साहेब ने कहा, ‘ठीक है! एक तो मेरी मीटिंग्स बंद कमरे में होनी चाहिए. दूसरा, मेरी मीटिंग्स में केवल 30-35 साल के नौजवान ही शामिल होने चाहियें क्यूंकि इससे ज्यादा उम्र के लोग न तो खुद कोई काम करेंगे और न ही मुझे करने देंगे.’
जय भगवान जाटव समझ गए और साहेब की हर तरह से मदद करने का भरोसा दिया. सबसे पहले उन्होंने साहेब के करोल बाग़ स्थित (रैगर पुरा) दफ्तर के लिए अपनी जेब से 2200 रुपये खर्च करके फर्नीचर और कुछ और सामान लेकर दिया. उसके बाद उत्तर प्रदेश में अपने ख़ास आदमियों को चिट्ठियाँ लिखने का काम शुरू किया. जिसमें लिखा था कि- मेरा ख़ास दोस्त कांशीराम आपकी मीटिंग्स लेने आ रहा है और आप उन्हें हर तरह का सहयोग दो.
इस तरह साहेब ने छोटी-छोटी मीटिंग्स को संबोधन करना शुरू किया. साहेब जिस मीटिंग को भी संबोधित करते, उसमें अपनी पूरी बात रखने के बाद, एक और बात नौजवानों को कहनी कभी भी ना भूलते. वह थी, ‘अपना काम भी करते रहो, परिवार का भी ख्याल रखो. बस दिन में एक बार साइकिल के हैंडल पर नीला झंडा बाँधकर 15-20 किलोमीटर जाना है और वापिस आना है.’
जब नौजवान ऐसा हर रोज़ करने लगे तो एक दिन ऐसा आया कि सत्ता के गलियारों में हाहाकार मच गई. उत्तर प्रदेश के हर गाँव, शहर और हर घर में साहेब कांशीराम की तूती बोलने लग गई.
(स्रोत: मैं कांशीराम बोल रहा हूँ का अंश; लेखक: पम्मी लालोमजारा, किताब के लिए संपर्क करें: 95011 43755)