राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था में किसी नीतिगत बदलाव की जरूरत नहीं, मात्र यह कानून बना दिया जाए कि देश के सभी सरकारी कर्मचारी, शिक्षकों एवं जन प्रतिनिधियों के बच्चे सिर्फ अपने निकटतम सरकारी स्कूलों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में ही पढेंगे. और इसके उल्लंघन पर माता-पिता को सरकारी पद से बर्खास्त कर दिया जायेगा.इस एक कदम से देश में शिक्षा की 99 फीसदी दुर्दशा स्वतः ही समाप्त हो जायेगी.
भारत में नीति नहीं नियत में बदलाव की जरूरत है. हमारा बहुत अच्छा संविधान है एवं हजारों की संख्या में शानदार कानून बने हुए हैं लेकिन 80 फीसदी देशवासी अभी दो वक्त की रोटी नहीं खा पा रहे हैं. देश के सबसे ऊपर के सबसे अमीर 1 फीसदी लोगों के पास देश की सम्पत्ति का 73 फीसदी और नीचे से 68 फीसदी लोगों के पास देश की कुल सम्पत्ति का मात्र 1 फीसदी है.
जबकि संविधान कहता है सरकार को लोगों के बीच आय एवं सम्पत्ति की असमानता को न्यूनतम किया जाना चाहिए.
1947 के बाद अमीरी-गरीबी की यह निर्मम अत्याचारी खाई बेतहाशा बढी ही है, घटी कदापि नहीं, क्योंकि कानून तो हैं, लेकिन कानून लागू करने वाले एवं उसकी रक्षा करने वालो की नीयत ठीक नहीं है.
आम नागरिकों के लिए यही हाल शिक्षा का भी है. पहले अमीर उच्च अधिकारी एवं राजनेता अपने बच्चों को ग्रेजुएशन के बाद विदेश भेजते थे. अब देश की सरकारी शिक्षा के हालात ये हैं कि पांचवी क्लास के बाद ही ये लोग अपने बच्चों को महंगे आवासीय स्कूलों में देश-विदेश भेज रहे हैं.
लगभग सभी सरकारी शिक्षण संस्थाओं की हालत खस्ता कर दी गई है, शिक्षा का बेतहासा निजीकरण और व्यवसायीकरण करके चंद धनपशुओं के हाथ में सम्पूर्ण शिक्षा तंत्र को सौंपा जा रहा है. शायद भारत दुनिया का एकमात्र देश है जहां शिक्षा को राष्ट्र निर्माण का मिशन न बनाकर लाभ अर्जित करने का धंधा बना दिया गया है.
इससे आम भारतीय के लिए अपने बच्चों को अच्छी गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा दिलवाना लगभग असम्भव है. वह अपनी रोज़ी-रोटी के लिए ही इतना संघर्ष कर रहा है कि शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों पर ध्यान देने की उसे फुरसत ही नहीं है.
जब तक शिक्षा और स्वास्थ्य राज्य की ज़िम्मेदारी नहीं होंगी तब तक भारत गरीबी, असमानता और अत्याचार की अंधी गुफ़ा बना रहेगा.
(लेखक: प्रो राजकुमार; यह लेखक के अपने विचार हैं)