धर्म एक नशा है, भगवान ही उद्धार करेगा – ये सोचकर गरीबी झेल रहे कम पढ़े लिखे समाज भगवान से आखिरी उम्मीद लगाए बैठे होते हैं. पढ़ाई ही इस नशे की दवा है जो सोच भी बदलती है और तरक्की करने के ज्यादा मौके भी उपलब्ध करवाती है. आज पूरे देश मे खुद को झाडू और गटरों की सफाई से जबरदस्ती बांध लेने वाले समाज वाल्मीकि की बात करते हैं जिनको पहले भंगी भी कहा जाता था. महर्षि वाल्मीकि के सहारे खुद को राम से जोड़े रखकर खुद को कट्टर हिन्दु बनाए रखना तो वाल्मीकि समाज मे आम बात रही है.
गाँवों में आज भी शिक्षा में पिछड़ने वाला और जातिवाद व छुआछूत का दंश झेलने वाला अधिकतर वाल्मीकि समाज अशिक्षा के कारण डॉ अम्बेड़कर के भी विरोध में क्यों नजर आता है, ये सोचने वाली बात जरूर है. उनको लगता है कि अम्बेड़कर तो चमारों का ही है. आज भी वाल्मीकि समाज सामाजिक और राजनैतिक तौर पर अन्य दलित जातियों में भी पिछड़ा हुआ नजर आता है, शिक्षा की कमी और महर्षि वाल्मीकि के जरिये राम से जबरदस्ती जुड़़कर हिन्दुत्व को सिर पर ढ़ोना इनकी पहचान बनी हुई प्रतीत होती है. इन्होने झाडू और सुअर पालन से हटकर शायद ढ़ग से सोचना शुरू ही नही किया है.
जातियों के हिसाब से सोचा जाए तो चमार और वाल्मीकि दो वो जातियाँ हैं जिसने सबसे ज्यादा छुआछूत और जातिवाद नाम का आतंकवाद झेला है. ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की जीवनी “जुठन” ऩाम की किताब में इस सामाजिक आतंकवाद को बहुत साफ-साफ शब्दों में ब्यां करने की कोशिश की गई है. लेकिन, आज धरातल पर चमार और वाल्मीकि समाज में बहुत बड़ा अंतर स्पष्ट दिखने लगा है.
25-30 साल पहले तक वाल्मीकि जाति को ऑफिसियली भंगी व चुहड़ा लिखा जाता था जो अब शायद बैन हो चुका है. छुआछात की नीचता करते समाज ने भंगी और चुहड़ा शब्द गाली की तरह इस्तेमाल किया है और गरीबी व संसाधनों की कमी से जूझते इस समाज के लोगों का आत्मसम्मान हर बार, बार-बार ताड़-ताड़ किया है. अपमान सहन करने के मामलों में चमार और वाल्मीकि एक ही माँ के दो सगे भाई जैसे नजर आते थे. लेकिन, आजकल चमार जाति के तो हर महकमे में बड़े-बड़े अफसर तक दिखते हैं. लेकिन, वाल्मीकि समाज आजादी के 74 साल बाद भी मोटेतौर पर वहीं का वहीं खड़ा नजर आता है, आखिर क्यों?
ऐसा इसलिये क्योंकि चमार जाति ने दलितों के हकों के लिए लड़ने वाले बाबासाहेब डॉ अम्बेड़कर को मन से अपनाया है, उनसे प्रेरणा लेकर शिक्षा को अपने घरों में पहुँचाने की जिद्द पर अड़ा है, चमड़े व जूती बनाने के काम को भी छोड़ा है, मृत-पशु उठाने का काम छोड़ा है, रोजगार की तलाश में गाँव भी छोड़ा है, साफ-सुथरा रहने की आदतें डाली हैं, अफसर बनने की हसरते पाली हैं, डॉक्टर, इंजीनियर बनने की लाइन में खड़े हुए हैं और अपने मुद्दों पर बाबासाहेब की विचारधारा पर राष्ट्रीय लेवल पर राजनीति तक खड़ी करने की कोशिश की है. लेकिन, वाल्मीकि समाज ने आज भी शिक्षा से दूरी बनाए रखी है और राम से चिपके रहने की जिद्द में है, डॉ अम्बेड़कर को सिर्फ चमारों का ही मान लिया है, साफ-सफाई झाडू लगाना, मुर्गी-बकरी-सुअर पालना, अपनी बस्तियों में सफाई की जरूरत ना समझना, सुअर मुर्गी बकरा काटकर मीट बेचना, शहरों में रोजगार की तलाश में आकर झाडू पर रूक जाना ही इनकी विशेषता आज भी बनी हुई है जो इनकी सबसे बड़ी कमी है. इनको तो ये भी नही पता कि डॉ अम्बेड़कर की जाति चमार नही थी, वो महार जाति के थे.
उनकी जाति के लालची और टटपुंजिये लोग अगर अपने निजी स्वार्थो के लिए उनको गुमराह करते रहेंगे तो वो वाल्मीकि समाज की अगली जनरेशनों के हाथों में भी झाडू ही पकड़वायेंगे. दलित समाज ने बहुत कुछ झेला है, उनको हिन्दु धर्म की सबसे प्यारी चीज जातिवाद की वजह से बेवजह कष्ट भी खुब मिले है. ऐसे में दलित समाज और खासकर चमार जाति के शिक्षित व कामयाब लोगों की जिम्मेवारी है कि वो अपने वाल्मीकि भाईयों से भी खुद को जोड़ने की कोशिशे करें, उनको शिक्षा का महत्व समझाएं, उनको अपने हक अधिकारों के बारे मे बतायएं. अगर चमार जाति को भी ऊँच-नीच का चस्का लग गया हो तो समझ लेना कि वो संत रैदास, संत कबीर, महामना ज्योतिबा फूले, माता सावित्री बाई फुले, रामास्वामी पेरियार, बाबासाहेब अम्बेड़कर और मान्यवर साहब कांशीराम जैसे महापुरुषों व संतों के सामाजिक संघर्षो का अपमान कर रहे हैं.
(लेखक: एन दिलबाग सिंह, यह लेखक के निजी विचार हैं)