30.1 C
New Delhi
Wednesday, October 22, 2025

एन दिलबाग सिंह का कॉलम: वाल्मीकि समाज (भंगी) और अम्बेड़कर

धर्म एक नशा है, भगवान ही उद्धार करेगा – ये सोचकर गरीबी झेल रहे कम पढ़े लिखे समाज भगवान से आखिरी उम्मीद लगाए बैठे होते हैं. पढ़ाई ही इस नशे की दवा है जो सोच भी बदलती है और तरक्की करने के ज्यादा मौके भी उपलब्ध करवाती है. आज पूरे देश मे खुद को झाडू और गटरों की सफाई से जबरदस्ती बांध लेने वाले समाज वाल्मीकि की बात करते हैं जिनको पहले भंगी भी कहा जाता था. महर्षि वाल्मीकि के सहारे खुद को राम से जोड़े रखकर खुद को कट्टर हिन्दु बनाए रखना तो वाल्मीकि समाज मे आम बात रही है.

गाँवों में आज भी शिक्षा में पिछड़ने वाला और जातिवाद व छुआछूत का दंश झेलने वाला अधिकतर वाल्मीकि समाज अशिक्षा के कारण डॉ अम्बेड़कर के भी विरोध में क्यों नजर आता है, ये सोचने वाली बात जरूर है. उनको लगता है कि अम्बेड़कर तो चमारों का ही है. आज भी वाल्मीकि समाज सामाजिक और राजनैतिक तौर पर अन्य दलित जातियों में भी पिछड़ा हुआ नजर आता है, शिक्षा की कमी और महर्षि वाल्मीकि के जरिये राम से जबरदस्ती जुड़़कर हिन्दुत्व को सिर पर ढ़ोना इनकी पहचान बनी हुई प्रतीत होती है. इन्होने झाडू और सुअर पालन से हटकर शायद ढ़ग से सोचना शुरू ही नही किया है.

जातियों के हिसाब से सोचा जाए तो चमार और वाल्मीकि दो वो जातियाँ हैं जिसने सबसे ज्यादा छुआछूत और जातिवाद नाम का आतंकवाद झेला है. ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की जीवनी “जुठन” ऩाम की किताब में इस सामाजिक आतंकवाद को बहुत साफ-साफ शब्दों में ब्यां करने की कोशिश की गई है. लेकिन, आज धरातल पर चमार और वाल्मीकि समाज में बहुत बड़ा अंतर स्पष्ट दिखने लगा है.

25-30 साल पहले तक वाल्मीकि जाति को ऑफिसियली भंगी व चुहड़ा लिखा जाता था जो अब शायद बैन हो चुका है. छुआछात की नीचता करते समाज ने भंगी और चुहड़ा शब्द गाली की तरह इस्तेमाल किया है और गरीबी व संसाधनों की कमी से जूझते इस समाज के लोगों का आत्मसम्मान हर बार, बार-बार ताड़-ताड़ किया है. अपमान सहन करने के मामलों में चमार और वाल्मीकि एक ही माँ के दो सगे भाई जैसे नजर आते थे. लेकिन, आजकल चमार जाति के तो हर महकमे में बड़े-बड़े अफसर तक दिखते हैं. लेकिन, वाल्मीकि समाज आजादी के 74 साल बाद भी मोटेतौर पर वहीं का वहीं खड़ा नजर आता है, आखिर क्यों?

ऐसा इसलिये क्योंकि चमार जाति ने दलितों के हकों के लिए लड़ने वाले बाबासाहेब डॉ अम्बेड़कर को मन से अपनाया है, उनसे प्रेरणा लेकर शिक्षा को अपने घरों में पहुँचाने की जिद्द पर अड़ा है, चमड़े व जूती बनाने के काम को भी छोड़ा है, मृत-पशु उठाने का काम छोड़ा है, रोजगार की तलाश में गाँव भी छोड़ा है, साफ-सुथरा रहने की आदतें डाली हैं, अफसर बनने की हसरते पाली हैं, डॉक्टर, इंजीनियर बनने की लाइन में खड़े हुए हैं और अपने मुद्दों पर बाबासाहेब की विचारधारा पर राष्ट्रीय लेवल पर राजनीति तक खड़ी करने की कोशिश की है. लेकिन, वाल्मीकि समाज ने आज भी शिक्षा से दूरी बनाए रखी है और राम से चिपके रहने की जिद्द में है, डॉ अम्बेड़कर को सिर्फ चमारों का ही मान लिया है, साफ-सफाई झाडू लगाना, मुर्गी-बकरी-सुअर पालना, अपनी बस्तियों में सफाई की जरूरत ना समझना, सुअर मुर्गी बकरा काटकर मीट बेचना, शहरों में रोजगार की तलाश में आकर झाडू पर रूक जाना ही इनकी विशेषता आज भी बनी हुई है जो इनकी सबसे बड़ी कमी है. इनको तो ये भी नही पता कि डॉ अम्बेड़कर की जाति चमार नही थी, वो महार जाति के थे.

उनकी जाति के लालची और टटपुंजिये लोग अगर अपने निजी स्वार्थो के लिए उनको गुमराह करते रहेंगे तो वो वाल्मीकि समाज की अगली जनरेशनों के हाथों में भी झाडू ही पकड़वायेंगे. दलित समाज ने बहुत कुछ झेला है, उनको हिन्दु धर्म की सबसे प्यारी चीज जातिवाद की वजह से बेवजह कष्ट भी खुब मिले है. ऐसे में दलित समाज और खासकर चमार जाति के शिक्षित व कामयाब लोगों की जिम्मेवारी है कि वो अपने वाल्मीकि भाईयों से भी खुद को जोड़ने की कोशिशे करें, उनको शिक्षा का महत्व समझाएं, उनको अपने हक अधिकारों के बारे मे बतायएं. अगर चमार जाति को भी ऊँच-नीच का चस्का लग गया हो तो समझ लेना कि वो संत रैदास, संत कबीर, महामना ज्योतिबा फूले, माता सावित्री बाई फुले, रामास्वामी पेरियार, बाबासाहेब अम्बेड़कर और मान्यवर साहब कांशीराम जैसे महापुरुषों व संतों के सामाजिक संघर्षो का अपमान कर रहे हैं.

(लेखक: एन दिलबाग सिंह, यह लेखक के निजी विचार हैं)

Download Suchak App

खबरें अभी और भी हैं...

Opinion: समाजिक परिवर्तन के साहेब – मान्यवर कांशीराम

भारतीय समाज सहस्राब्दी से वर्ण व्यवस्था में बंटा है. लिखित इतिहास का कोई पन्ना उठा लें, आपको वर्ण मिल जायेगा. ‌चाहे वह वेद-पुराण हो...

एससी, एसटी और ओबीसी का उपवर्गीकरण- दस मिथकों का खुलासा

मिथक 1: उपवर्गीकरण केवल तभी लागू हो सकता है जब क्रीमी लेयर लागू हो उपवर्गीकरण और क्रीमी लेयर दो अलग अवधारणाएँ हैं. एक समूह स्तर...

कर्नाटक में दलित आरक्षण का 6:6:5 फॉर्मूला तय; जानिए किसे कितना मिला आरक्षण?

बेंगलुरु: कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने मंगलवार रात लंबी कैबिनेट बैठक में अनुसूचित जाति (एससी) के लिए 17% आरक्षण को तीन हिस्सों में बांटने...

स्वतंत्र बहुजन राजनीति बनाम परतंत्र बहुजन राजनीति: प्रो विवेक कुमार

"स्वतंत्र बहुजन राजनीति" और "परतंत्र बहुजन राजनीति" पर प्रो विवेक कुमार का यह लेख भारत में दलित नेतृत्व की अनकही कहानी को उजागर करता...

गौतम बुद्ध, आत्मा और AI: चेतना की नयी बहस में भारत की पुरानी भूल

भारत की सबसे बड़ी और पुरानी समस्या पर एक नयी रोशनी पड़ने लगी है। तकनीकी विकास की मदद से अब एक नयी मशाल जल...

आषाढ़ी पूर्णिमा: गौतम बुद्ध का पहला धम्म उपदेश

आषाढ़ी पूर्णिमा का मानव जगत के लिए ऐतिहासिक महत्व है. लगभग छब्बीस सौ साल पहले और 528 ईसा पूर्व 35 साल की उम्र में...

बाबू जगजीवन और बाबासाहेब डॉ अम्बेड़कर: भारतीय दलित राजनीति के दो बड़े चेहरे

बाबू जगजीवन राम का जन्म 5 अप्रैल, 1908 में हुआ था और बाबासाहब डॉ. अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 में. दोनों में 17...

सामाजिक परिवर्तन दिवस: न्याय – समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का युगप्रवर्तक प्रभात

भारतीय समाज की विषमतावादी व्यवस्था, जो सदियों से अन्याय और उत्पीड़न की गहन अंधकारमयी खाइयों में जकड़ी रही, उसमें दलित समाज की करुण पुकार...

धर्मांतरण का संनाद: दलित समाज की सुरक्षा और शक्ति

भारतीय समाज की गहन खोज एक मार्मिक सत्य को उद्घाटित करती है, मानो समय की गहराइयों से एक करुण पुकार उभरती हो—दलित समुदाय, जो...

‘Pay Back to Society’ के नाम पर छले जाते लोग: सामाजिक सेवा या सुनियोजित छल?

“Pay Back to Society” — यह नारा सुनने में जितना प्रेरणादायक लगता है, व्यवहार में उतना ही विवादास्पद होता जा रहा है। मूलतः यह...

प्रतिभा और शून्यता: चालबाज़ी का अभाव

प्रतिभा का वास्तविक स्वरूप क्या है? क्या वह किसी आडंबर या छल-कपट में लिपटी होती है? क्या उसे अपने अस्तित्व को सिद्ध करने के...

सतीश चंद्र मिश्रा: बहुजन आंदोलन का एक निष्ठावान सिपाही

बहुजन समाज पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और कानूनी सलाहकार सतीश चंद्र मिश्रा पर अक्सर सवाल उठाए जाते हैं। कुछ लोग उनके बीएसपी के प्रति...