पंडित ज्योतिष और व्यापारी की चालाक धूर्त सांठगांठ के सबसे सटीक उदाहरण है धार्मिक त्योहार. मेहनतकशों के सारे लोक पर्वों को धर्म का जामा पहना कर बारह महीने खूब मजे से लूटा जा रहा है और भ्रमित भोले लोग भी मजे से लूटे जा रहे है.
आड़े दिन एक एक घड़ी का मुहूर्त निकालने वाला ज्योतिषी धन तेरस व दिवाली के नाम पर व्यापारियों को पूरी छूट देने के लिए सप्ताह भर का मुहूर्त बताता है और हर साल वही घोषणा करता है कि खरीदारी का ऐसा शुभ संयोग तो कई सालों मे एक बार आता है.
मिठाई और साजो सामान के व्यापारी अपना जाल फैला कर तैयार रहते है. ग्राहक कहीं से भी बच कर इनके चंगुल से निकल नहीं सकता. मिलावटी मिठाइयां बेचने वालों की तो पांचों अंगुलियां घी में रहती है.
मिलावटी मार्केट चिल्लाता है शुभ मुहूर्त है त्योहार है. शॉपिंग करो वरना जीवन व्यर्थ है. यदि पैसा नहीं हो तो व्यापारी के ही भाई की फाइनेंस कंपनी से कर्ज लो लेकिन खरीदो. टीवी खरीदो, ड्राइंग रूम से लेकर संडास तक में 56 इंच का टीवी लगाओ. डायमंड सोने के गहने खरीदो, भले पहले से ही बैंक लॉकर लबालब हो.
कपड़े रखने के लिए भले ही दूसरा मकान खरीदना पड़े लेकिन नई फैशन के कपड़ें खरीदो. घर में रखने की जगह नहीं हो तो भी लोन लेकर लंबी-लंबी कारें खरीदो. बर्तन भांडों से रसोई भर दो, पिज्जा बर्गर से पेट भरो, खूब फूलो… लेकिन शॉपिंग जरूर करो.
व्यापारी अच्छी तरह जानता है कि व्यापार करने से ही धन आता है. लेकिन मेहनतकश भोले समाज को यह भ्रम है कि धन लक्ष्मी पूजन से आता है. इसलिए वह हर दिवाली घर के दरवाजे रात भर खुले रखता है लेकिन धन कभी नहीं आता है उल्टा चला जाता है.
गरीब मेहनतकश के श्रम का शोषण कर अमीर बने रईस की देखादेखी मध्यम वर्ग व मेहनतकश दलित किसान बहुजन आदिवासी भी दिखावे के लिए धर्म त्योहार के ढोंग में शामिल हो जाता है. फुले, साहू, अंबेडकर की नेक कमाई को वह आडंबरों व पाखंडों में लूटाता है. उसे नहीं पता कि वह चाहे कितना ही बड़ा अफसर है लेकिन जेब तो मंदिर व मार्केट में ही खाली होती हैं. धन उधर सिर्फ़ जाता ही जाता है, कभी आता नहीं है.
हम मेहनतकश श्रमण संस्कृति के लोग धरती की कोख मे भांत-भांत के फल, फूल और अन्न उपजाते है. हर फसल पकने की खुशी में लोक पर्व को उमंग व उल्लास से मनाते थे. बाजार की अनावश्यक चीजों को खरीदने का न ढोंग था न दिखावा, न धर्म का लबादा. धान्य तेरस के दिन ही हम बच्चे, माता बहनों के साथ गांव की पहाड़ी की कोख से सफेद मिट्टी में आवल झाड़ी के पीले फूलों के गुच्छे को लगाकर लाते थे और उसी से घर की लिपाई पुताई करते थे. प्रकृति का वंदन और संस्कृति का सृजन का दौर था वह. लेकिन धर्म व व्यापार के धंधेबाजों ने सबकुछ विकृत कर दिया है.
खास बात यह भी है कि धर्म व धन का यह गठजोड़ ही मजबूत होकर हर बार सत्ता के सिंहासन तक पहुंचता है. फिर गरीब, मेहनतकश व शोषित समाज को हांसिएं पर पटक कर धन सम्पदा के सारे संसाधनों पर सांप की तरह कुंडली मारे बैठा रहता हैं. इसी कारण देश में आर्थिक विषमता की खाई दिनोंदिन बढती जा रही हैं. देश की अकूत सम्पत्ति या तो मंदिरों में हैं या कुछ धन्ना सेठों के पास. धर्म के नाम पर मेहनतकश के श्रम का धन यूं ही लूटा जा रहा है.
अब ज़रूरत है वैज्ञानिक चेतना की, मानवतावादी मानव कल्याण के धम्म की. सच तो यह है कि धनवंतरी तो गुप्ताकाल में एक भिक्खु आरोग्य सदन के मुख्य वैद्य थे लेकिन बाद में काल्पनिक कहानी गढ़ कर उनके स्वरूप को ही विकृत कर दिया.
सबका मंगल हो…सभी प्राणी सुखी हो
(लेखक: डॉ एम एल परिहार, ये लेखक के अपने विचार हैं)