धर्म और राजनीति का बहुत ही गहरा गठजोड़ रहा है, इससे ना भारत अछूता है और ना ही रोम, अमेरिका, अफ्रीका आदि. अछुतों और शोषितों के लिए पृथक निर्वाचन की माँग करते हुए लंदन मे हुए गोलमेज कांफ्रेसों मे डॉ. अम्बेड़कर प्राचीन रोम का उदाहरण देते हुए कहते है कि रोम मे राजनीति और धार्मिक मसलों पर रोम के उच्च वर्ग पैट्रिशियन्स का पुर्ण कब्जा था और सामान्य वर्गो के समुह यानि प्लेबियन्स को कोई अधिकार नही था.
लेकिन, प्लेबियन्स के लगातार विरोध और अपने प्रतिनिधित्व की मांग ने रोम मे राजतन्त्र की जगह सारे राजनैतिक अधिकार कांसुल्स या इंपीरियम की सभा को दे दिए गए और धार्मिक मसलों के अधिकार मैक्समस की सभा को दिए गए और इन दोनो सभाओ मे 50% पैट्रिशियन्स और 50% प्लेबियन्स होने का नियम बना दिया गया जबकि संख्या के हिसाब से रोम का उच्च वर्ग पैट्रेशियन्स बहुत कम था.
रोम मे डेल्फी की देवी का बहुत बड़ा राजनैतिक महत्व था और इनका संबंध ग्रीक देवता अपोलो से था. रोम की ये धार्मिक आस्था थी कि जो भी आदमी सरकारी पद सम्भाले, उसके लिए डेल्फी देवी की स्वीकृति बहुत जरूरी थी.
बकायदा डेल्फी की देवी के मंदिर से आकाशवाणी की जाती थी कि ये आदमी सरकारी पद पर डेल्फी की देवी को स्वीकार है या नही.
हैरानी की बात ये थी कि डेल्फी की देवी मंदिर की सारी व्यवस्था उच्च वर्ग पैट्रिशियन्स के हाथों मे ही थी और डेल्फी देवी की इच्छा बताने वाली ये आकाशवाणी या घोषणा भी यही उच्च वर्ग के पैट्रिशियन्स लोग ही किया करते थे. उन पर कोई सवाल या शक नही कर सकते थे वरना डेल्फी की देवी नाराज हो सकती थी. सवाल पैट्रिशियन्स और प्लेबियन्स दोनो की आस्था का था. हकीकत ये थी कि डेल्फी की देवी को वही प्लेबियन्स स्वीकार होते थे जो पैट्रिशियन्स की हाँ मे हाँ मिलाने के लिए प्रसिद्ध थे.
डॉ. अम्बेड़कर ने संयुक्त निर्वाचन के तहत अछुतों और शोषितों के लिए भारत की राजनैतिक और धार्मिक डेल्फी की देवियों की नीयत पर शक था कि वो अगर संयुक्त निर्वाचन के तहत चुनेंगे भी तो ऐसे-ऐसे सांसदों और विधायकों को चुनेगे जो आज भी सवर्णो के घर चाय पीने के लिए कप अपनी जेब मे डालकर रखते है और जहाँ कहेगे वही अंगुठा लगाने को तैयार हो जायेगे.
भारतीय डेल्फी देवियों को शोषितों के हकों के लिए लड़ने वाले लाल कभी स्वीकृत नही होंगे बल्कि शोषित वर्गो के दलाल ही स्वीकृत होगे.
डॉ. अम्बेड़कर की दलीलों और तर्को को मानकर इंग्लैंड सरकार ने अछुतों और आदिवासियों को पृथक निर्वाचन कानुन बनाने का काम 1932 मे पुरा कर दिया था. लेकिन, जाति और वर्ण समर्थक गाँधी के आमरण अनसन और अछुतों की हिन्दु धर्म के तहत मिली मानसिक गुलामी ने डॉ. अम्बेड़कर को पुना पैक्ट समझौता करने को मजबूर कर दिया जिसके तहत आज की संयुक्त निर्वाचन मे आरक्षण वाली सांसद व विधायक चुनने पद्धति मिली.
सवाल आज भी वही पुराना है कि क्या भारत के शोषित वर्ग शोषण करने वालों द्वारा संचालित डेल्फी देवियों के सामने अपनी बुद्धि को बाहर जूतों मे रखकर युँ ही नतमस्तक होते रहेगें? या फिर राजनीति और धर्म के गठजोड़ से हम भी भारतीय डेल्फी देवियों की आकाशवाणी मे स्वीकृति पाने के लिए युँ ही दलाल बने रहेगें?
आपको मालुम होगा कि आज संसद मे भारतीय डेल्फी देवी को स्वीकार्य सांसद निजीकरण जैसे मुद्दों पर भी जोर-जोर से मेज थपथपाने का काम कर रहे है. शोषित वर्गो की अपनी डेल्फी की देवी होनी चाहिए वरना लाल और दलाल मे फर्क ही नही समझ पायेंगे. डेल्फी देवी के किस्से का संदर्भ बाबा साहब द्वारा लिखी किताब “ऐनिहिलेशन ऑफ कास्ट” यानि “जाति का विनाश” मे दिया गया है.
(लेखक – एन दिलबाग सिंह: यह लेखक के निजी विचार हैं)