भारत की सामाजिक-राजनीतिक वीथियों में दलित नेतृत्व का हाशियाकरण एक ऐसी करुण गाथा है, जो हृदय को मथ डालती है। यह गाथा उन अनकहे दुखों का काव्य रचती है, जहाँ स्वतंत्रता और समानता के स्वप्न मनुवादी संरचना के काँटों से रक्तरंजित होकर तड़पते हैं। बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर, मान्यवर कांशीराम साहेब और बहनजी—ये युगद्रष्टा, जिन्होंने दलित समाज की मुक्ति के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया, एक ऐसी ज्योति प्रज्वलित की, जो मानवता की सनातन गरिमा के पुनर्जनन का अमर राग सुनाती है। किंतु, ये तारक नक्षत्र, जो आकाश को आलोकित करने वाले हैं, मुख्यधारा की राजनीति के स्याह हाशिए में धूमकेतु बनकर रह गए। यह लेख दलित राजनीति के इस हाशियाकरण के मूल कारणों, इसके सामाजिक-मनोवैज्ञानिक कराहों और मुक्ति के आलोकमय पथ का गहनता और संवेदना के साथ पड़ताल प्रस्तुत करता है।
हाशियाकरण का करुण राग
डॉ. आंबेडकर, जिन्होंने भारतीय संविधान के शिल्पी बनकर सामाजिक परिवर्तन का एक प्रखर इतिहास रचा, दलित समाज की पीड़ित चेतना को स्वतंत्रता और आत्मसम्मान के आँसुओं से सींचा, उनकी शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया एक सशक्त स्वप्न की विजयमाला बुन रही थीं, किंतु मनुवादी संरचना की क्रूर लहरों ने इन स्वप्नों को भग्नावशेष में बदल दिया, जैसे कोई दीपक तूफान में बुझ जाए। मान्यवर साहेब, जिन्होंने बहुजन समाज पार्टी के ताने-बाने में शोषित हृदयों की एकता का राग रचा, “जाति तोड़ो, समाज जोड़ो”; “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” और “वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा” जैसे उद्घोषों से दलित चेतना को जागृत किया। किंतु, उनके महापरिनिर्वाण के पश्चात यह राग मंद पड़ गया, जैसे कोई सितार का तार टूटकर चुप हो जाए।
बहनजी, जिन्होंने उत्तर प्रदेश जैसे विशाल साम्राज्य में चार-चार बार मुख्यमंत्री बनकर दलित नेतृत्व का अमर इतिहास रचा, आज तिरस्कार और उपेक्षा की स्याह रात में अकेली खड़ी हैं, जैसे कोई चाँदनी तारों के बीच अनदेखी रह जाए। यह हाशियाकरण एक ऐसी करुण गाथा है, जो दलित समाज के आंतरिक दुखों का मूक क्रंदन गाती है।
मनुवादी संरचना: एक रक्तरंजित शृंखला
भारतीय समाज की गहरी जड़ों में बसी मनुवादी विचारधारा एक ऐसी रक्तरंजित श्रृंखला है, जो दलित नेतृत्व को सदा लांछन और तिरस्कार के कटघरे में जकड़ती रही है। यह विचारधारा केवल सामाजिक व्यवस्था तक सीमित नहीं, अपितु उसने बौद्धिक विमर्श, साहित्य और मीडिया को भी अपने विषैले पाश में बाँध लिया। डॉ. आंबेडकर को “अंग्रेजों का पिट्ठू” कहकर अपमानित किया गया, मान्यवर कांशीराम को “सीआईए का एजेंट” जैसे कुत्सित तानों से नवाजा गया, और बहनजी को व्यक्तिगत अपमान की आँधी में झुलसना पड़ा। यह क्रम केवल सवर्ण समाज की देन नहीं; दलित समाज का एक वर्ग, चाहे मनुवादी प्रभाव के वशीभूत हो या अपनी हीनता ग्रंथि के बोझ तले कराहता हो, अपने ही नेताओं को कमजोर करने में मनुवादियों का सह-गायक बन गया। यह वैचारिक दासता, जो सवर्ण स्वीकृति को बौद्धिक प्रगतिशीलता का मुकुट मानती है, दलित समाज की स्वतंत्र चेतना को ऐसे कुचलती है जैसे कोई पुष्प अपनी ही जड़ों में विष डालकर खुद मुरझा जाए।
दलित समाज की आत्मघाती कराह
दलित समाज की सबसे मार्मिक त्रासदी उसकी वह मानसिकता है, जो जीवित महापुरुषों को सशक्त बनाने के बजाय, उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी मूर्तियों को पूजने का व्रत लेती है। यह मानसिकता, जिसे मान्यवर साहेब ने “चमचापन” का नाम दिया, एक ऐसी आत्मघाती कराह है, जो समाज की प्रगति को बाधित करती है। दलित समाज का एक बड़ा वर्ग सवर्णों की ‘हाँ में हाँ’ मिलाने को ही आधुनिकता का राग मानता है, जो एक प्रकार की मानसिक गुलामी है। यह गुलामी समाज को स्वतंत्र चिंतन और संगठित राजनीतिक शक्ति के निर्माण से वंचित रखती है, जैसे कोई पक्षी अपने ही पंखों को काटकर आकाश छूने का स्वप्न भूल जाए।
इसके अतिरिक्त, दलित समाज का पढ़ा-लिखा वर्ग, जो स्वयं को आंबेडकरवादी और आदर्शवादी घोषित करता है, प्रायः आंतरिक विमर्शों और व्यक्तिगत विरोध में उलझकर अपनी शक्ति का अपक्षय करता है। यह वर्ग बहनजी जैसे नेताओं की आलोचना में तो तत्पर रहता है, किंतु अन्य दलों—जैसे कांग्रेस, भाजपा, सपा, या आप—में शामिल होकर आंबेडकरवादी विचारधारा को कैसे जीवित रखता है, इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ रहता है। यह विडंबना तब और गहरी हो जाती है, जब हम देखते हैं कि बाबासाहेब के आरक्षण के कारण चुने गए सैकड़ों सांसद और विधायक आंबेडकरवादी सिद्धांतों को व्यवहार में लाने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाते, और समाज उनसे जवाबदेही माँगने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाता। यह एक ऐसा राग है, जो अपनी ही धुन में बेसुरा होकर हृदय को चीर देता है।
मनुवादी मीडिया और छद्म आंबेडकरवाद का दुखद स्वर
मनुवादी विचारधारा से संचालित मीडिया एक ऐसी विषैली सरिता है, जो दलित नेताओं के विचारों को या तो पूर्णतः नजरअंदाज करती है (ब्लैक आउट) या उन्हें विकृत रूप में प्रस्तुत करती है (ब्लैकमेल)। इनके द्वारा बहनजी और मान्यवर साहेब जैसे नेताओं के योगदान को कभी सकारात्मक स्वरों में नहीं गाया गया। इस मीडिया प्रभाव के चलते दलित समाज का एक वर्ग “छद्म आंबेडकरवादी” बनकर अपने ही नेताओं के विरुद्ध खड़ा होता जा रहा है। सोशल मीडिया पर “जय भीम” का उद्घोष तो अंतरिक्ष तक पहुँचने का दावा करता है, किंतु यह उद्घोष प्रायः खोखला सिद्ध होता है, क्योंकि यह बहनजी जैसे महान नेताओं के अपमान और अनैतिक भाषा के साथ संनादति है। यह भाषा इतनी निम्नस्तरीय होती है कि मनुवादी वर्ग भी इससे परहेज करने लगा है, क्योंकि उसे अब दलित समाज के भीतर से ही “मुफ्त के सह-गायक” उपलब्ध हो गए हैं। यह एक ऐसी कविता है, जो अपने ही शब्दों से स्वयं को मिटाकर हृदय को रुला देती है।
केकड़ों का समाज : आत्मविनाश का मूक क्रंदन
दलित समाज की तुलना प्रायः केकड़ों से की जाती है, जो एक-दूसरे को ऊपर उठने से रोकते हैं (मान्यवर साहेब)। यह मानसिकता एक ऐसी आत्मघाती कराह है, जिसने पहले बाबासाहेब को राजनीति में असफल किया, फिर मान्यवर साहेब को कमजोर किया, और अब बहनजी को हाशिए पर धकेलने में संलग्न है। सवर्ण समाज के अलावा बहुजन समाज के ही कुछ गुमराह युवा नेता और उनके भ्रमित समर्थक बहनजी को अपमानजनक शब्दों से संबोधित करते हैं, जो न केवल नैतिक पतन का द्योतक है, बल्कि दलित समाज की एकता को और अधिक खंडित करता है। यह विडंबना है कि ऐसी भाषा का उपयोग अब मनुवादी वर्ग भी कम करने लगा है, क्योंकि उसे दलित समाज के भीतर से ही विरोध के स्वर मिल रहे हैं। यह एक ऐसा काव्य है, जिसमें समाज स्वयं अपने पतन का गीत रचता है, जैसे कोई दीपक अपनी ही लौ से जलकर राख हो जाए, और उसकी राख हवा में बिखरकर मूक क्रंदन करे।
मुक्ति का मार्ग : आत्मचिंतन और सकारात्मकता का पुनर्जनन
दलित समाज को इस हाशियाकरण से उबरने के लिए गहन आत्मचिंतन और सकारात्मकता के पुनर्जनन की आवश्यकता है। सर्वप्रथम, समाज को अपनी मानसिक गुलामी से मुक्त होकर स्वतंत्र चिंतन का आलोक अपनाना होगा। बहनजी जैसे स्वतंत्र राजनेताओं को सशक्त बनाने और पार्टी पदाधिकारियों एवं कार्यकर्ताओं की कमियों को रचनात्मक आलोचना के प्रेममय स्पर्श से सुधारने की संस्कृति विकसित करनी होगी। आंबेडकरवादी विचारधारा को केवल नारों तक सीमित न रखकर, उसे जीवन का सनातन राग बनाना होगा। दलित समाज को अपने चुने हुए प्रतिनिधियों से जवाबदेही माँगनी होगी और उनकी राजनीतिक सक्रियता को आंबेडकरवादी सिद्धांतों के अनुरूप बनाना होगा।
मनुवादी मीडिया का मुकाबला करने के लिए दलित समाज को अपनी स्वयं की वैकल्पिक मीडिया और बौद्धिक मंच बनाने होंगे। सोशल मीडिया का उपयोग नकारात्मक आलोचना के बजाय सकारात्मक विचारों और एकता को बढ़ावा देने के लिए करना होगा। 17 अप्रैल 2025 को अपने ट्विटर हैंडल से बहनजी ने आह्वान किया कि दलितों को दूसरे के इतिहास पर टीका-टिप्पणी करने के बजाय अपने इतिहास, अपनी संस्कृति, अपने अम्बेडकरी आन्दोलन, अम्बेडकरी वैचारिकी और इसके महानायकों एवं महानायिकाओं के संदेशों, संघर्षो एवं शौर्य गाथाओं का प्रचार-प्रसार करना चाहिए। साथ ही, दलित समाज को अपनी आंतरिक एकता को सुदृढ़ करना होगा, ताकि वह बाह्य शक्तियों के षड्यंत्रों का सामना कर सके। यह एक ऐसा संगीत है, जो तभी साकार होगा, जब समाज अपने भीतर के बेसुरे स्वरों को प्रेम और एकता के समनाद में बाँध ले।
निष्कर्ष :
दलित राजनीति का हाशियाकरण भारतीय समाज की गहरी जड़ों में बसी मनुवादी संरचना और दलित समाज की आंतरिक कमजोरियों की एक करुण गाथा है। बाबासाहेब, मान्यवर साहेब और बहनजी जैसे युग प्रवर्तकों ने जो वैचारिक और राजनीतिक विरासत रची, उसे साकार करने के लिए दलित समाज को अपनी मानसिकता में आमूल-चूल परिवर्तन लाना होगा। यह समाज तभी सशक्त होगा, जब वह बहनजी जैसे स्वतंत्र राजनीति के खेवैया को प्रेम और सम्मान दे, पार्टी के पदाधिकारियों एवं कार्यकर्ताओं की कमियों को रचनात्मक ढंग से सुधारे, और आंबेडकरवादी विचारधारा को हृदय का आधार बनाए। केवल तभी दलित समाज वह सामाजिक-राजनीतिक शक्ति बन सकता है, जो बाबासाहेब के स्वप्नों का साकार रूप होगी—एक ऐसा समाज, जहाँ मानवता और समानता का सूर्य सदा प्रज्वलित रहे, और जहाँ स्वतंत्रता का राग हर हृदय में गूँजे, जैसे कोई अमर आवाज़ सृष्टि के कण-कण में समा कर अनंत तक गूँजता रहे।