आज हम एक ऐसी सच्चाई से पर्दा उठाने जा रहे हैं, जो न केवल हमारी चेतना को झकझोर देती है, बल्कि हमारे समाज की ऐतिहासिक समझ, धार्मिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विरासत पर भी गहरे सवाल खड़े करती है। सवाल यह है: क्या भारत के वे बौद्ध स्थल, जिनसे कभी ज्ञान और शांति की रोशनी फूटी थी, आज पाखंड, व्यापार और उपेक्षा का शिकार हो चुके हैं?
2600 साल पुरानी विरासत की आज की विडंबना
बोधगया, सारनाथ, कुशीनगर—ये वे तीर्थ स्थल हैं जहाँ तथागत बुद्ध ने क्रमशः ज्ञान प्राप्त किया, पहला उपदेश दिया और परिनिर्वाण प्राप्त किया। लेकिन आज की रिपोर्टें बता रही हैं कि इन स्थलों पर भिक्षुओं की जगह टूरिज्म प्रोजेक्ट्स को प्राथमिकता दी जा रही है। बोधगया के महाबोधी मंदिर का 10 करोड़ रुपये का बजट भिक्षुओं की सेवा या ध्यान केंद्रों पर नहीं, बल्कि पर्यटन सुविधाओं पर खर्च हो रहा है। सारनाथ में शराब की दुकानें खुल रही हैं और कुशीनगर में बाज़ारों की भीड़ ने शांति को विस्थापित कर दिया है।
इतिहास को फिर से पढ़ने का वक्त
अशोक महान ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इन बौद्ध स्थलों को अंतरराष्ट्रीय ज्ञान केंद्र बनाया था। लेकिन गुप्त काल के बाद जैसे ही ब्राह्मणिक ताकतें हावी हुईं, विहारों पर हमले शुरू हो गए। नालंदा को जलाने का दोष जहां बख्तियार खिलजी पर डाला गया, वहीं इतिहासकार डी.एन. झा बताते हैं कि हिंदू कट्टरपंथियों ने भी इसकी भूमिका निभाई। महाबोधी मंदिर पर कब्ज़ा, बोधिवृक्ष की कटाई, बुद्ध की मूर्तियों की जगह शिवलिंगों की स्थापना—ये सभी घटनाएं योजनाबद्ध सांस्कृतिक अपहरण की ओर इशारा करती हैं।
विहार से मंदिर तक: एक लंबी लिस्ट
पुरी का जगन्नाथ मंदिर, बद्रीनाथ, कांचीपुरम, एहोल, एलोरा, मथुरा, रत्नागिरी—ऐसे कई स्थल हैं जो कभी बौद्ध विहार थे और अब हिंदू मंदिरों में परिवर्तित कर दिए गए हैं। यह केवल धार्मिक स्थल नहीं थे, बल्कि शिक्षा और तर्क का आधार थे, जो अब पौराणिकता के बोझ तले दबा दिए गए हैं।
आधुनिक पाखंड की मिसाल: हैदराबाद का आईटी पार्क
आज भी यह पाखंड थमा नहीं है। हैदराबाद में आईटी पार्क जंगलों को काट कर बनाया जा रहा है, जो न केवल पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहा है बल्कि बुद्ध के करुणा आधारित दर्शन के भी विरुद्ध है। चील, मोर, हिरण जैसे जीव मर रहे हैं और जल स्रोत सूखते जा रहे हैं।
संघर्ष जारी है: क्या सरकार सुन रही है?
भदंत सुरई ससई जैसे बौद्ध नेताओं की अगुआई में हजारों लोग सड़कों पर हैं। 37 आंदोलन हो चुके हैं, सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएँ लंबित हैं, और अंतरराष्ट्रीय समर्थन बढ़ रहा है। फिर भी सरकार चुप क्यों है? क्या यह ‘गोदी मीडिया’ की चुप्पी है, या फिर वोट बैंक की राजनीति?
यह सिर्फ इतिहास नहीं, वर्तमान की चुनौती है
बुद्ध का संदेश था—लोभ, द्वेष और मोह से ऊपर उठकर सत्य और करुणा के रास्ते पर चलो। लेकिन आज उन्हीं स्थलों पर लोभ का नृत्य, द्वेष का प्रभुत्व और मोह का जाल फैलाया जा रहा है। यह सवाल सिर्फ बुद्धिस्ट समुदाय का नहीं, पूरे भारत के विवेकशील नागरिकों का है।
समाप्ति नहीं, शुरुआत है
जब तक संघ एकजुट है, जब तक सत्य की मशाल बुझी नहीं, तब तक पाखंड हारता रहेगा। यह लेख एक शुरुआत है उस यात्रा की, जो हमारे सांस्कृतिक आत्मसम्मान और ऐतिहासिक न्याय की ओर जाती है।
(लेखक: डॉ लाला बौद्ध; ये लेखक के अपने विचार हैं)