दलित साहित्य और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) भारतीय समाज में शोषित वर्गों के उत्थान और उनकी आवाज को सशक्त करने के दो प्रभावशाली माध्यम रहे हैं। जहां दलित साहित्य ने साहित्यिक और सांस्कृतिक मंचों के जरिए दलित चेतना को उभारा, वहीं बसपा राजनीतिक क्षेत्र में इन वर्गों के अधिकारों और सम्मान के लिए संघर्ष कर रही है। दोनों का वैचारिक आधार बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर का दर्शन है, जो समानता और आत्म-सम्मान की नींव पर टिका है। मान्यवर कांशीराम साहेब और बहन मायावती जी के नेतृत्व में बसपा ने न केवल दलितों को राजनीतिक शक्ति प्रदान की, बल्कि दलित साहित्य को प्रतिरोध की सीमाओं से आगे सृजनात्मक ऊंचाइयों तक पहुंचाया। यह लेख बसपा और इसके नेतृत्व के योगदान को केंद्र में रखकर उनके दलित साहित्य पर प्रभाव को सुसंगठित रूप में प्रस्तुत करता है।
दलित साहित्य भारतीय साहित्य का वह स्वर है, जो समाज के हाशिए पर खड़े लोगों की पीड़ा, संघर्ष और आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करता है। इसकी नींव 20वीं सदी के मध्य में बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में शुरू हुए दलित आंदोलन से पड़ी। 1970 के दशक में महाराष्ट्र के दलित पैंथर आंदोलन ने इसे और मुखर बनाया। नामदेव ढसाल, बाबूराव बागुल और शरणकुमार लिंबाले जैसे लेखकों ने अपनी रचनाओं में दलित जीवन की कठोर वास्तविकता को उकेरा। ओमप्रकाश वाल्मीकि की “जूठन” और “मुर्दाहिया” जैसी आत्मकथाएं जाति व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध, जाति उन्मूलन और आत्म-सम्मान का प्रतीक बनीं। शुरू में यह साहित्य शोषण की कहानियों और विद्रोह तक सीमित था, लेकिन बसपा के प्रभाव ने इसे सृजनात्मक और समग्र दृष्टिकोण की ओर प्रेरित कर समतामूलक समाज सृजन का साहित्य बना दिया।
14 अप्रैल, 1984 को मान्यवर कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों—यानी बहुजन समाज—को संगठित करने का बीड़ा उठाया। मान्यवर साहेब ने स्पष्ट किया कि बसपा पहले “सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति” का आंदोलन है, उसके बाद ही एक राजनीतिक दल। उनका नारा “85 बनाम 15” बहुजन समाज को उच्च वर्ग के शोषण से मुक्त कर सत्ता तक पहुंचाने का संकल्प है। यह एक सकारात्मक व सृजनात्मक आन्दोलन है। यह आंदोलन ‘बदले’ का नहीं, बल्कि ‘बदलाव’ का आंदोलन है। बहनजी ने इस विरासत को आगे बढ़ाया और उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बनाकर न केवल दलित नेतृत्व की क्षमता सिद्ध की, बल्कि भारतीय राजनीति के लिए नए मापदंड स्थापित किए। लखनऊ में डॉ आंबेडकर स्मारक और मान्यवर कांशीराम साहेब स्मारक जैसे तमाम प्रतीकों के जरिए बसपा ने दलित स्वाभिमान को मजबूत किया, जिसने समाज में जागरूकता का प्रसार किया और साहित्य को प्रभावित किया।
मान्यवर कांशीराम साहेब और बहन मायावती जी ने अपनी लेखनी से दलित साहित्य को नए आयाम प्रदान किए। कांशीराम की पुस्तक “चमचा युग” ने बहुजन समाज के चमचों के चरित्र को उजागर करते हुए शोषण की मानसिकता पर प्रहार किया। वहीं, बहनजी की “बहुजन समाज और उसकी राजनीति” ने बहुजन विचारधारा को साहित्यिक स्वरूप दिया। उनकी वार्षिक पुस्तक “मेरे संघर्षमय जीवन एवं बीएसपी मूवमेंट का सफरनामा” देश की घटनाओं, मनुवादी षड्यंत्रों और दलित-बहुजन मुद्दों का दस्तावेजीकरण करती है, जो दलित साहित्य में अनूठी कृतियां है। मान्यवर साहेब द्वारा शुरू किए गए अखबार और पत्रिकाएं, जो अब पुस्तक रूप में उपलब्ध हैं, तथा बहनजी द्वारा संपादित “माया युग” ने बसपा की उपलब्धियों को साहित्य का हिस्सा बनाया। इन रचनाओं ने दलित साहित्य को वैश्विक पटल पर चर्चा का विषय बनाया।
बसपा और इसके पूर्ववर्ती संगठन बामसेफ व डीएस-4 ने समाज में जागरूकता की अलख जगायी। रैदास, कबीर, शाहू, फुले, आंबेडकर, पेरियार और घासीदास जैसे बहुजन नायकों को जन-जन तक पहुंचाकर इन्होंने दलित इतिहास और दर्शन को पुनर्जन्म दिया। इस चेतना ने दलित साहित्य को नई ऊर्जा प्रदान की। बहनजी के भाषण, प्रेस विज्ञप्तियां और समय-समय पर उठाए गए कदमों ने साहित्य को प्रतिरोध से आगे सृजन की ओर प्रेरित किया। ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की नीति से बसपा ने बंधुत्व भाव को सुदृढ़ किया, जो भारत के राष्ट्र निर्माण के लिए अनिवार्य है। यह प्रगतिशील सोच दलित साहित्य को राष्ट्र निर्माण के साहित्य के रूप में स्थापित करती है। बसपा के बाद से ही दलित साहित्य केवल अत्याचार की दास्तानों से आगे बढ़कर भविष्य के समतामूलक भारत की परिकल्पना करने लगा।
सर्वविदित है कि साहित्य समाज का दर्पण है और राजनीति समाज को बेहतर बनाने का औजार। बसपा की राजनीति व इसकी नीतियों ने लोगों को आत्म-सम्मान और स्वाभिमान से जीना सिखाया। उत्तर प्रदेश में सत्ता के जरिए दलितों को मनोबल मिला, जिसने साहित्य में सकारात्मकता और सृजन को जन्म दिया। डॉ. आंबेडकर द्वारा रचित संविधान, जो सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समानता का दस्तावेज है, दलित साहित्य का अभिन्न अंग बन गया। इस प्रकार संविधान-केंद्रित आंदोलन और बसपा की नीतियों ने साहित्य को गहराई दी। बसपा के बिना दलित साहित्य केवल प्रतिरोध तक सीमित रह जाता, जो इसके व्यापक साहित्य स्वरूप को नकारता।
“जूठन” और “मुर्दाहिया” जैसी रचनाएं प्रतिरोध की प्रतीक थीं, लेकिन बसपा ने दलित साहित्य को सृजनात्मक ऊंचाइयों तक पहुंचाया। मान्यवर साहेब, बहनजी और बसपा ने अपनी लेखनी, भाषण और पत्रिकाओं के जरिए साहित्य को सकारात्मक एजेंडा और आत्मनिर्भरता का आधार दिया। परिणामस्वरूप आज लोग डॉ. आंबेडकर, फुले, शाहू, कांशीराम और मायावती पर कविताएं, कहानियां और नाटक लिखकर दलित साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं। यह साहित्य अब केवल रुदन या पीड़ा का नहीं, बल्कि भारत के राष्ट्र निर्माण का स्वर बन गया है। बसपा ने इसे दुख की अभिव्यक्ति से आगे समता के सपनों का साहित्य बनाया।
बसपा, मान्यवर कांशीराम साहेब और बहन मायावती जी ने दलित साहित्य को प्रतिरोध से सृजन तक की संनाद यात्रा पर ले जाकर इसे पूर्णता प्रदान की। उनकी रचनाएं जैसे “बहुजन समाज और उसकी राजनीत”, “माया युग”, “चमचा यु” “बहुजन संगठक” और संविधान-केंद्रित विचारधारा ने दलित साहित्य को नई पहचान दी। बसपा की सत्ता और जागरूकता ने दलित साहित्य को वैश्विक मंच पर स्थापित किया, जो अब समतामूलक समाज का स्वप्न देख रहा है, उसके लिए संघर्ष कर रहा है। यह साझा प्रयास बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर के सपनों को साकार करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है, जहां साहित्य और राजनीति (बसपा) मिलकर समाज को एक नई दिशा दे रहे हैं।