कोलकाता बलात्कार कांड: महिला सुरक्षा, सामाजिक असमानता और सुनियोजित षड्यंत्र का सच
कोलकाता में हाल ही में हुए बलात्कार और हत्या के मामले ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। यह अमानवीय और जघन्य कृत्य केवल कोलकाता तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरे भारत में महिला सुरक्षा की बदहाल स्थिति को उजागर करता है। चाहे भाजपा हो, कांग्रेस हो, या तथाकथित सेकुलर दल जैसे सपा, आप और टीएमसी—सभी महिला सुरक्षा के मुद्दे पर नाकाम साबित हुए हैं। लेकिन इस घटना ने न केवल सुरक्षा व्यवस्था की विफलता को सामने लाया, बल्कि भारतीय समाज में गहरे बैठे जातिवादी और मनुवादी पूर्वाग्रहों को भी उजागर किया है। यह लेख कोलकाता कांड के बहाने महिला सुरक्षा, दलित-आदिवासी समाज की उपेक्षा और एक सुनियोजित षड्यंत्र की पड़ताल करता है।
कोलकाता कांड और राजनीतिक नौटंकी
कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज में हुई इस घटना के बाद जिस तरह का राजनीतिक और सामाजिक तमाशा देखने को मिला, वह हैरान करने वाला है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, जिनकी पार्टी टीएमसी सत्ता में है, खुद सड़कों पर प्रदर्शन करती नजर आईं। यह विडंबना नहीं तो क्या है कि जिस सरकार के पास पुलिस और प्रशासन की पूरी शक्ति है, उसकी मुखिया सड़क पर नौटंकी कर रही है? यह किसके खिलाफ था? क्या ममता बनर्जी इस कांड की जिम्मेदारी अमेरिका या किसी बाहरी ताकत पर थोपना चाहती हैं? वहीं, कांग्रेस, जो टीएमसी के साथ इंडिया गठबंधन में शामिल है, इस मामले में चुप्पी साधे हुए है। सपा, आप जैसे दलों के नेता भी अपने वोट बैंक को साधने में व्यस्त हैं, और कोई ठोस बयान देने से बच रहे हैं। स्पष्ट है कि यह सब देश को गुमराह करने की एक कोशिश मात्र है।
सीबीआई इस मामले की जांच कर रही है, और उम्मीद है कि असली दोषियों को सजा मिलेगी। लेकिन सवाल यह है कि जब सीबीआई जांच चल रही है, तो रोज-रोज धरना, प्रदर्शन और कैंडल मार्च की क्या जरूरत है? क्या यह सब बहुजन समाज को भटकाने और उनके असल मुद्दों को दबाने का सुनियोजित प्रयास नहीं है?
सवर्ण बनाम दलित : दोहरे मापदंड का खेल
इस घटना ने एक कड़वा सच सामने ला दिया कि भारतीय समाज और मीडिया में सवर्ण और दलित महिलाओं के साथ हुए अत्याचारों को लेकर दोहरा रवैया अपनाया जाता है। जब सवर्ण महिला के साथ बलात्कार होता है, तो यह राष्ट्रीय मुद्दा बन जाता है। अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय मीडिया लगातार अपडेट देता है, संसद से सुप्रीम कोर्ट तक हलचल मच जाती है। लेकिन जब दलित महिला या बच्ची के साथ इससे भी भयानक अपराध होता है, तो सन्नाटा छा जाता है। हाल ही में फर्रुखाबाद में दो दलित बच्चियों के साथ बलात्कार और हत्या हुई, उनकी लाशें पेड़ पर लटकी मिलीं। क्या इस मामले को मुख्यधारा के मीडिया ने फ्रंट पेज पर जगह दी? क्या इसके लिए सीबीआई जांच की मांग उठी? क्या कभी किसी दलित महिला के लिए निर्भया या अभया जैसे प्रदर्शन हुए? जवाब है—नहीं।
यह दोहरा मापदंड मनुवादी सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा है, जहां दलितों के साथ जघन्य अपराध को सामान्य मान लिया जाता है, लेकिन सवर्णों को खरोंच भी आए तो व्यवस्था के हर स्तर पर हंगामा मच जाता है। यह सवाल दलित और बहुजन समाज को सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर ऐसा क्यों है?
21 अगस्त 2024 का भारत बंद और उसकी उपेक्षा
21 अगस्त 2024 को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के नेतृत्व में हुए भारत बंद ने दलित-आदिवासी समाज के आरक्षण और अधिकारों के लिए एक मजबूत आवाज उठाई थी। यह बंद अनुशासित और सफल रहा, लेकिन अगले दिन मुख्यधारा के अखबारों के फ्रंट पेज से यह खबर गायब थी। टीवी चैनलों ने इसे राष्ट्र-विरोधी करार दिया। क्या स्वतंत्र भारत में दलित अपनी आवाज भी नहीं उठा सकते? यह घटना इस बात का प्रमाण है कि दलित-आदिवासी समाज की आवाज को दबाने के लिए व्यवस्था कितनी तत्पर है। कोलकाता कांड को लगातार हवा देकर इस भारत बंद के मुद्दे को जानबूझकर दबाया गया।
षड्यंत्र का असल मकसद : आरक्षण विरोधी एजेंडा
कोलकाता कांड को जिस तरह से हर चैनल, अखबार और सिविल सोसाइटी द्वारा चर्चा का केंद्र बनाया जा रहा है, उसका एकमात्र उद्देश्य सुप्रीम कोर्ट के 1 अगस्त 2024 के उस फैसले को दबाना है, जिसमें एससी-एसटी आरक्षण के संदर्भ में महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया था। इस फैसले ने दलित-आदिवासी समाज के अधिकारों को कमजोर किया है, लेकिन कोलकाता कांड की सनसनीखेज कवरेज ने इसे पूरी तरह से हाशिए पर डाल दिया। कांग्रेस, भाजपा, सपा, आप और टीएमसी जैसे दल इस मुद्दे को हवा देकर बहुजन समाज के असल संघर्ष को दफन करने में जुटे हैं। मीडिया और आम जनता भी इस सनसनी में मशगूल है, जबकि आरक्षण जैसे गंभीर मुद्दे दब गए हैं।
दलित-आदिवासी समाज के लिए सबक
यह स्थिति स्पष्ट करती है कि दलित और आदिवासी समाज के साथ होने वाले अत्याचारों को व्यवस्था सामान्य मानती है। सदियों से उनके साथ बलात्कार, हत्या और शोषण होता आ रहा है, लेकिन सरकार, सुप्रीम कोर्ट, राज्यपाल या राष्ट्रपति तक के कानों में जूं नहीं रेंगती। यह राज्य और राष्ट्र द्वारा दलितों पर किया गया जघन्य अत्याचार है। बहुजन समाज को यह समझना होगा कि कांग्रेस जिताओ, भाजपा हराओ जैसे नकारात्मक एजेंडे या इन दलों की चमचागीरी उनकी मुक्ति का रास्ता नहीं है। कोलकाता कांड जैसे मामलों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना और दलित मुद्दों को दबाना एक सुनियोजित षड्यंत्र है, जिसका मकसद आरक्षण और अधिकारों की लड़ाई को कमजोर करना है।
निष्कर्ष :
कोलकाता बलात्कार कांड एक गंभीर अपराध है, जिसके दोषियों को सजा मिलनी चाहिए। लेकिन इसे राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर जिस तरह से दलित-आदिवासी समाज के संघर्ष को दबाया जा रहा है, वह चिंताजनक है। बहुजन समाज को इस षड्यंत्र को समझने और अपनी आवाज को मजबूती से उठाने की जरूरत है। यह समय है कि दलित और आदिवासी समाज अपने हितों को प्राथमिकता दें और मनुवादी व्यवस्था के दोहरे मापदंडों को चुनौती दें। महिला सुरक्षा एक गंभीर मुद्दा है, लेकिन इसे सवर्ण-केंद्रित बनाकर दलित महिलाओं की अनदेखी करना और आरक्षण जैसे अधिकारों को कुचलना इस देश के भविष्य के लिए खतरनाक है।