पिछले कुछ चुनावों की बात करें तो बसपा के पास युपी में 22 फीसदी दलितों के लगभग एकतरफा वोट हर हाल में आ रहे हैं (2022 अपवाद है). लेकिन, एंटी बीजेपी का झंडा लिए 20% मुस्लिमों को दलितों के साथ जुड़ने में क्या परहेज है?
जबकि, इनके आधे वोट आने से भी ये सत्ता में साझेदार तक हो सकते हैं. इनकी राजनैतिक समझ इनकी दुश्मन है या कट्टरता इनकी दुश्मन हैं. ये तो यही जाने लेकिन देश की इतनी बड़ी आबादी आज भी दिशाहीन सी नजर आती है.
मुझे कभी-कभी तो लगता है कि हिन्दुओं में जो जातिवाद है, उसका अनुसरण हिन्दू ही नही बल्कि कुछ हद तक मुस्लिम सम्प्रदाय भी करता है. मैं फेसबुक पर मायावती का नाम आते ही अक्सर मुस्लिमों के मायावती पर लगाए गए आरोपों की बाढ़ सी देखता हूँ कि वो तो भाजपा की “बी” टीम है, वो भरोसे लायक नही है, वो मौकापरस्त है.
लेकिन, जब इतिहास की नजरों से हकीकत को समझने की कोशिश करता हूँ तो कुछ और ही समझ आता है. जिसने (मायावती बहनजी) अपने 4-4 बार के मुख्यमंत्री काल (कुल मिलाकर लगभग 7 साल) में एक बार भी मुस्लिमों को दंगे की आग में जलने नही दिया हो, हर चुनाव में उनको आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व दिया हो, मंत्रीपद दिये हो, संगठन में पद दिए गए हो. जबकि, लगभग सभी पार्टियों में जिस हिसाब से इन्होने धड़ाधड़ वोट दिए, उन पार्टियों ने उसी रफ्तार से धड़ाधड़ धोखे भी दिए.
बसपा ने आजतक किसी राज्य में या केंद्र में भाजपा की सरकार के साथ मिलकर चुनाव नही लडा. इसके विपरीत अनेक मौकों पर कांग्रेस की सरकारों को बाहर से समर्थन देती आई है. उतराखंड में कांग्रेस की हरीश रावत सरकार को समर्थन देकर भाजपा की सरकार नही बनने दी, सबसे बड़े प्रदेश और 80 लोकसभा सीटों वाले यूपी में भाजपा को हराने के लिए 1995 में जान से मरवाने के लिए हमला करवाने वाले मुलायम सिंह यादव तक को माफ करके गठबंधन किया ताकि भाजपा की सरकार ना बने. फिर भी अटल बिहारी वाजपेई की एक वोट से सरकार तक गिरवाने वाली मायावती की बजाय हमेशा मुस्लिम समाज बाकी पार्टीयों की तरह बसपा पर यकीन क्यों नही करता?
इनकी राजनैतिक समझ कहें या मुर्खता! कुछ और उदाहरण नीचे दिए है:
1) मायावती को मौकापरस्त और भाजपा की बी टीम कहने वाले मुस्लिम ममता बैनर्जी पर यकीन कैसे कर लेते हैं? जबकि, वो तो भाजपा की सरकार में कैबिनेट मंत्री तक रही है लेकिन वोट तो उनको आजतक भी धड़ाधड़ मिलते आये हैं.
2) मायावती को मौकापरस्त कहने वाले मुस्लिम नीतिश कुमार पर यकीन कैसे कर लेते है? जबकि वो तो भाजपा की सरकार में कैबिनेट मंत्री तक रहे है और मिलकर बिहार में भी सरकार चला रहे हैं लेकिन वोट तो उनको अच्छे खासे मिलते आये है.
3) मायावती को मौकापरस्त कहने वाले मुस्लिम महबुबा मुफ्ती पर यकीन कैसे कर लेते है? जबकि वो तो भाजपा के साथ मिलकर सरकार चला चुकी है लेकिन वोट तो उनको धड़ाधड़ मिलते आये है.
4) मायावती को मौकापरस्त कहने वाले मुस्लिम उमर अब्दुल्ला/फारूख अबदुल्ला पर यकीन कैसे कर लेते है? जबकि वो तो भाजपा की सरकार में शामिल रहे है लेकिन वोट तो उनको धड़ाधड़ मिलते आये है.
5) मायावती को मौकापरस्त कहने वाले मुस्लिम चंद्रबाबु नायड़ु पर यकीन कैसे कर लेते है? जबकि वो तो भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाये है लेकिन वोट तो उनको धड़ाधड़ मिलते आये है.
6) इसी प्रकार उद्धव ठाकरे की शिवसेना, जयललिता की ए.आई.डी.एम.के. चंद्रशेखर राव की टी.आर.सी चौटाला की इनैलो, दुष्यंत की जजपा, अजीत सिंह की रालोद, बादल की अकाली दल, पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी जैसी अनेकों पार्टियों को मुस्लिम वोट मिलता आया है जो भाजपा की सहयोगी भी रही है और मंत्रीपद लेकर सरकारों में शामिल भी रही है.
लेकिन मौकापरस्ती और भाजपा की “बी” टीम का लेबल सिर्फ मायावती पर ही लगता आया है. जबकि सच्चाई ये है कि अपनी इसी प्रकार की बेवकूफियाना सोच के कारण ही मुस्लमान राजनीति में सिर्फ एक वोट बनके रह गया है.
मायावती से उनकी चिढ़ का कारण भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बनना तो बिल्कुल भी नही होना चाहिए क्योकि वो मुस्लिमों के लिए दंगा रहित और सबसे सुरक्षित शासनों में से था. फिर ये जो चिढ़ दिखती है वो हिन्दुत्व में विद्यमान जातियों में उँच-नीच से प्रेरित चिढ़ है या कुछ और जिसमे मुस्लिमो को भी हिन्दुओं की देखादेखी दलितों के प्रति मौजूद जाति भेदभाव में खुद को सवर्णो जैसा दिखाने की होड़ में तो नही है?
मेरा मानना है दलित मुस्लिम वोटों का मजबूत गठजोड़ मुस्लमानों को भारत की राजनीति का तेज-पत्ता बनने से रोक सकता हैं.
(लेखक: एन दिलबाग सिंह, ये लेखक के अपने विचार हैं)