लोकसभा चुनाव चल रहे हैं. बसपा को छोड़कर पूरा विपक्ष गहरी नींद में सोया हुआ है. अखिलेश यादव और राहुल गांधी की निष्क्रियता तो चिंतित करने वाली है कि क्या ये वास्तव में चुनाव लड़ भी रहे हैं या सिर्फ चुनाव लड़ने का दिखावा कर रहे हैं!
जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह धुआंधार प्रचार कर रहे हैं तो राहुल गांधी और अखिलेश यादव चुनावी परिदृश्य से गायब हैं. इंडि गठबंधन (Indi Alliance) की बैठक में इनके दर्शन जरूर हुए थे लेकिन वो रैलियां भी उत्तर प्रदेश के बाहर बिहार और मुंबई में थी. जबकि एक रैली भ्रष्टाचार के समर्थन में दिल्ली में करते हुए दिखाई दिए थे. ऐसे में सवाल उठता है कि इनकी निष्क्रियता कोई बड़ा जवाब देती है.
गोमती रिवर फ्रंट घोटाला, अनाज घोटाला, लैपटॉप घोटाला और नेशनल हेराल्ड जैसे घोटाले तो इसके पीछे का कारण नही है? मालूम हो कि राहुल गांधी, सोनिया गांधी नेशनल हेराल्ड केस में जमानत पर हैं और अखिलेश यादव को गोमती रिवर फ्रंट केस में गवाह के तौर पर बुलाया गया था.
जब बहुजन समाज पार्टी पूरे जी जान से चुनावी जनसभाएं कर रही है. आकाश आनंद पूरे उत्तर प्रदेश में ताबड़तोड़ रैली कर रहे हैं. उनकी रैलियां नगीना, बुलंदशहर, गाजियाबाद और बरेली में हो चुकी हैं. 11 अप्रैल से बहनजी का भी देशव्यापी अभियान नागपुर से शुरू हो जायेगा और उत्तर प्रदेश में उनकी पहली रैली 14 अप्रैल को होगी. ऐसे में सपा, कांग्रेस की निष्क्रियता विचलित करने वाली है.
आखिर एक ऐसी पार्टी जो उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. उसने भाजपा के सामने आत्मसमर्पण क्यों कर दिया? आखिर वो अपने प्रत्याशी ही निश्चित क्यों नही कर पा रही? गठबंधन करने के बावजूद समाजवादी पार्टी आत्मविश्वास हासिल क्यों नही कर पा रही है? वो बार-बार अपने प्रत्याशियों को बदल रही है. उसमे इतना कन्फ्यूजन है कि उस पर मीम बनने लगे हैं.
जिन मुस्लिम वोटों के सहारे वो राजनीति करती आई है वो उनको टिकट तक देने की हिम्मत नही कर पा रही है. अब तक के घोषित 47 उम्मीदवारों में से मात्र 4 मुस्लिम उम्मीदवार ही वो चुनावो में अभी तक उतार पाई है. मुस्लिम समाजवादी पार्टी की ताकत रहे हैं और मुस्लिम नाम लेने से भी अखिलेश यादव परहेज करते रहे हैं. वो नमाज तक का नाम लेने से परहेज करते हैं. अभी दिल्ली में जो पुलिस कर्मचारी के द्वारा नमाजियों पर लात मारने की कार्यवाही हुई थी तो वो (अखिलेश यादव) नमाज के स्थान पर प्रार्थना लिखते हैं. वो घटना का विरोध तक नहीं कर पाते. वो सिर्फ इतना लिखते हैं कि प्रार्थनाओं पर प्रहार ठीक नहीं. वो मुख्तार अंसारी की मौत पर बड़ा लंबा चौड़ा ट्विट करते हैं लेकिन मुख्तार अंसारी का नाम तक नहीं लिखते. आखिर इतना डर किससे? आखिर इतना डर क्यों?
उधर राहुल गांधी को जिस समय इंडिया गठबंधन की मजबूती के लिए काम करना था उस समय वो भारत जोड़ो न्याय यात्रा के बहाने घूमने निकल पड़ते हैं. भारत जोड़ते-जोड़ते उनका गठबंधन और पार्टी दोनों टूटती जाती हैं. हर फिक्र को भारत जोड़ो न्याय यात्रा में उड़ाता चला गया, शायद इसी सिद्धांत पर वो कार्य कर रहे हैं.
बिहार में नीतीश कुमार छोड़कर चले गए. उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी छोड़कर चले गए. उनके पास समय नहीं था कि वो तृणमूल कांग्रेस से सीट शेयरिंग पर बात करते तो पश्चिमी बंगाल में ममता बनर्जी छोड़कर चली गईं. महाराष्ट्र में वंचित बहुजन अघाड़ी छोड़कर चली गई. उनके साथियों की तो बात ही क्या करना. लेकर मिलिंद देवड़ा, संजय निरुपम, गौरव वल्लभ, विजेंद्र सिंह तक कांग्रेस के इतने नेता भाजपा में समा गए कि अगर इन पर किताब भी लिखी जाए तो एक दो नहीं बल्कि कई किताब लिखी जाएंगी.
सवाल यही है कि आखिर ये लोग इतने निष्क्रिय होकर भाजपा को लाभ क्यों पहुंचाना चाहते हैं? ये आखिर भाजपा को एज क्यों देना चाहते हैं? आखिर इनकी खामोशी खलती क्यों नही है? क्या ये संविधान को बदलने की भाजपा की मंशा को पूरा करने के लिए खामोश हैं? क्या ये अपने अधूरे काम भाजपा के जरिए पूरा करना चाहते हैं? आज ये लोग बेशक खामोश हों लेकिन कल को इतिहास इनको जरूर जवाब देगा.
(लेखक: सुधीर कुमार जाटव, ये लेखक के अपने विचार हैं)