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Sunday, April 20, 2025

किस्सा कांशीराम का #13: मैं पहली बार 1973 में पुणे से भीमा कोरेगांव साइकिल पर गया था

साहेब ने एक बार सफर करते हुए अपने एक साथी से कहा था कि जब मैं पुणे में अपने आंदोलन के लिए जद्दो जहद कर रहा था. तब भीमा कोरेगांव का इतिहास जानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. 1973 में पहली बार साइकिल पर तीन-चार साथियों के साथ पुणे से कोरेगांव गया था.

6 दिसंबर 1981 को DS4 के गठन के बाद साहब ने 10 प्रमुख कार्यक्रमों के तहत बहुसंख्यक समाज के लिए संघर्ष के रूप में राष्ट्रव्यापी आंदोलन शुरू किए. इनमें से 6 कार्यक्रम अंबायोगाई, अमरावती, नांदेड़, मुंबई, औरंगाबाद और नागपुर (महाराष्ट्र) में आयोजित किए गए थे. उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद, वाराणसी और लखनऊ में तीन कार्यक्रम और एक कार्यक्रम मध्य प्रदेश के शहर रायपुर में.

गौर करने वाली बात ये है कि नागपुर में 6 वें कार्यक्रम के बाद यानी 26 वें दिन 1 जनवरी 1982 को अपने 500 साथियों के साथ भीमा कोरेगांव की धरती पर महार योद्धाओं को नमन करने पहुँचे. यहाँ पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि यह पहला मौका था जब विजय स्तंभ पर बहुजन नायक साहेब कांशीराम जी के मार्गदर्शन में 500 लोग एकत्र हुए थे. इससे पहले नए साल की पूर्व संध्या पर यहां मुश्किल से 10-20 लोग इकट्ठा हुए थे.

साहेब के जाने से पहले यहां स्थापित खंभों को ‘महारों का मंदिर’ के रूप में याद किया जाता था. उनसे अगले साल यानी 1983 में साहेब के नेतृत्व में यहां हजारों की भीड़ के रूप में अपनी ताकत दिखाई.

वैसे साहेब उन दिनों बहुत व्यस्त जीवन से गुजर रहे थे फिर भी 1 जनवरी की जगह 2 जनवरी 1983 को भीमा कोरेगांव की धरती पर पहुँचे. लाख टके का सवाल ये है कि साहेब कांशीराम की भीमा कोरेगांव की धरती पर जाने के बाद ही लाखों बहुजन समाज के लोग यहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगे. हां बाबासाहेब जीते जी यहां जरूर आते ही रहे.

इसलिए 1 जनवरी को भीमा कोरेगांव स्थान पर लाखों लोग जमा होते हैं इसका सारा श्रेय साहेब कांशीराम के नाम पर हैं. क्योंकि बाबासाहेब के निधन के बाद बहुसंख्यक समाज ने भीमा कोरेगांव का इतिहास अपने दिमाग से लगभग भुला दिया था. याद करो 1 जनवरी 1818 को पुणे के कोरेगांव स्थान पर 500 महारों ने पेशवाओं के 25,000 सैनिकों का सफाया कर दिया था.

लड़ाई का असली कारण महार योद्धा सिद्धनायक ने पेशवाओं के खिलाफ़ ये शर्त रखी थी कि हम अंग्रेजों से लड़ेंगे लेकिन हमारी गर्दन में मटकी और कमर में झाडू नहीं होना चाहिए. तब पेशवा ने मजाक में कहा था कि हमें सुईं की नोक पर बैठे योगी जग्गा जितना सम्मान करना पसंद नही है और पीठ पीछे झाडू बांधने की तुम्हारी आदत है.

ये शब्द महारों के लिए इतने अपमानजनक थे कि पेशवाओं का घमंड तोड़ने के लिए वें रातों-रात अंग्रेजों के साथ शामिल हो गए और उनके (पेशवा) 25000 सैनिकों को गाजर मूली की तरह काटकर पेशवा शासन का अंत कर दिया. वास्तव में यह आजादी का पहला युद्ध था जिसने महारों को गले से मटका हटाने और पीठ से झाडू हटाने का साहस दिया.


(स्रोत: मैं कांशीराम बोल रहा हूँ का अंश; लेखक: पम्मी लालोमजारा, किताब के लिए संपर्क करें: 95011 43755)

Me Kanshiram Bol Raha Hu
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