अगर सरल भाषा में कहा जाये तो लोकतंत्र का मतलब एक ऐसी व्यवस्था जिसमें देश के सभी लोगों के लिए समानता, समता, स्वतंत्रता, प्रतिनिधित्व, भाईचारा और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों पर बिना लाग लपेट के तकरीबन सभी एकमत हों, सहमत हों और जिसको चुनी हुई सरकारों के विधायक या सांसद एवं विपक्ष में बैठे विधायक या सांसद किसी भी तरह की उलझन में ना हो. अगर हमारी जनता का बड़ा हिस्सा इस बात को समझ रहा है, तो हमें बड़े फक्र के साथ कहना चाहिये कि हमारा देश सचमुच में ही दुनिया का सबसे बड़ा जिन्दा लोकतंत्र है.
लेकिन मुझे लगता है कि जहाँ भेदभाव और जातिवादी मानसिकता वाला समाज हो, जहाँ अल्पसंख्यकों को उनकी आबादी के हिसाब से चुने हुए सांसद विधायक 75 साल की आजादी के बाद भी नसीब ना हुए हो, जहाँ लगभग 50% आबादी यानि औरतों का प्रतिनिधित्व उनकी आबादी का एक चौथाई भी ना हो, जहाँ सुप्रीम कोर्ट व हाई कोर्टो में एक ही जाति का आज तक वर्चस्व रहा हो और समाज को मुर्ख बनाने के लिये कुछ पाखण्डी टीवी पर रोज सुबह से शाम आपको भविष्य बताने के नाम पर मुर्ख बना रहा हो, ऐसे पितृसतात्मक, पुरूषप्रधान, जातिवादी और पाखण्ड़ों में जीने के आदी समाज को लोकतंत्र की क्या सही में ही कद्र करनी आई होगी, क्या वोट के अधिकार का मतलब सच में ही समझ आया होगा- मुझे तो शक है और गहरा शक हैं.
कहने को तो देश संविधान से चल रहा है लेकिन क्या आपको सच में ही लगता है कि देश में 1950 में संविधान लागू होने के बाद से देश को चलाने वाले लोग संविधान के हिसाब से ही चला रहे है. अगर चला रहे है तो 75 साल के बाद भी संसद, विधानसभाओं, विधानपरिषदों, न्यायपालिकाओं, मीडिया चैनलों, अखबारों, विश्वविद्यालयों आदि के शक्तिशाली पदों में शक्ति संतुलन क्यो नही दिख रहा हैं? क्यों सिर्फ मनुस्मृति वाला जातिय कुचक्र ही हर जगह दिखता हैं? लोकतंत्र पर जातितंत्र आज भी हावी हैं. हिन्दु धर्म की छत्रछाया में अगर जातितंत्र शक्ति संतुलन बिगाड़ता आया है तो फिर आपको लोकतंत्र में उम्मीद किस से करनी हैं. आपका प्रतिनिधित्व ही आपके अधिकारों की रक्षा कर सकता है और बिना जातितंत्र टूटे 75 नही अगले 175 साल भी समानता, समता और स्वतंत्रता के अधिकारों के लिये वंचित समुह हाथ जोड़े ही खड़ा मिलेगा.
लोकतंत्र में आपके द्वारा चुने हुए मजबूत प्रतिनिधियों की बदौलत राजनीती की असीमित ताकत 5-10 सालों में ही सारे सामाजिक और राजनैतिक समीकरण बदलने में सक्षम है. सत्ता में असीमित ताकत हैं, जिसकी सत्ता होती हैं, उनके साथ भेदभाव जारी रखना आसान नही होता और फिर भी कोई जाति के सामने संविधान की ताकत न समझे तो उसको ढ़ग से शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से तोड़ा जाता हैं, मरोड़ा जाता हैं, निचोड़ा जाता हैं.
लोकतंत्र पर हावी जातितंत्र को तोड़ने के लिए हर बार आपको दलितों आदिवासियों व पिछड़ों में अपनी वोट की ताकत का अहसास दिलाने वाले मान्यवर कांशीराम और मायावती जैसे जुझारू नेता हर बार नही मिल सकते. वो अलग बात है आज के युवा ना इनको जानना चाहते हैं और ना इनके संघर्षो को जानना समझना चाहते हैं.
प्रतिनिधित्व का मतलब अपने हिस्से को लेने की लड़ाई है, आप किसी का हिस्सा छीन नही रहे हो बल्कि अपना पाने की जंग लड़ रहे हो. आपकी योग्यता पर सवालों की झड़ी लगाना ये जातितंत्र मतलब मनुवाद का षड़यंत्र है, अपने सवालों को जिन्दा करो, लोगों को अपना कम्फर्ट जोन छोड़ने में थोड़ा बहुत कष्ट होगा लेकिन जिनको देश की समझ है, वो आपके अधिकारों को मारने वाली परम्परा के पक्ष में ज्यादा लम्बे समय तक खड़े नही होगें. मान्यवर कांशीराम का नारा, ” ज़िसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी” आज लोकतंत्र के लिए जरूरी है, इस जातितंत्र को तोड़ने के लिए जरूरी है ताकि एक श्रेष्ट भारत बने, समानतावादी व समतावादी भारत बने.
(लेखक: एन दिलबाग सिंह; यह लेखक के अपने विचार हैं)