Dalit Politics: दलितों की स्वतंत्र राजनीति किसी को भी नही जमती, ना सवर्णो को, ना पिछड़ों को और तो और दलित-आदिवासी समाज के बुद्धिजीवियों तक को भी दलितों की स्वतंत्र राजनीति रास नही आती.
जातियों की उँच-नीच लोगों के दिमाग से हटती ही नही हैं. टीवी-अखबार वाले, यूट्यूबर पत्रकार, प्रोफेसर, फेसबुकिये लेखक जिसको देंखे बहनजी (बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती जी) को सलाह देने निकल पड़ते हैं कि वो कांग्रेस वाले गुट (I.N.D.I.A.) में शामिल होकर कांग्रेस की दासता स्वीकार करे. कोई संविधान को खत्म करने की बात करता हैं, तो कोई संविधान खत्म होने का डर दिखाकर दासता स्वीकार करने के लिए न्यौता देता हैं.
यही सलाह, यही डर आप तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव (केसीआर), आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रैड्डी, उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक जैसे बहुत से ताकतवर लोगों के लिए क्यों नही देते?
वो दलित नही हैं; क्या इसीलिए उनको दासता स्वीकार करने का दबाव नही बना पा रहे हो या कुछ और कारण हैं? अब नीतिश कुमार, ममता बैनर्जी, केजरीवाल, जयंत चौधरी आदि पर तो कोई सवाल भी नही कर सकता, चाहे वो कितने भी स्टैंड बदलते रहें. संविधान खत्म होने का खतरा चिराग पासवान, रामदास अठावले, औमप्रकाश राजभर, जीतनराम मांझी, अनुप्रिया पटेल, संजय निषाद, उपेंद्र कुशवाह, मुकेश मल्लाह आदि को काहे नही दिखाते ये ज्यादा स्याणे लोग. ये प्रोफेसर रतनलाल या लक्ष्मण यादव या बहुत से दलित-पिछड़े समाज के यूट्यूबर सिर्फ दलितों को ही डराकर कांग्रेस के पीछे-पीछे चलने वाला ही क्यों देखना चाहते हैं?
ये कौनसा अम्बेड़़करवाद हैं जो दलितों की स्वतंत्र राजनीति से चिढ़ खाये बैठा हैं, जो रोज फ्री में सलाह देने लगते हैं. बाबासाहेब और मान्यवर जैसे लोगों को अगर कांग्रेस की नीति और विचारधारा पसंद आती तो वो राजनीति में उनके खिलाफ चुनाव नही बल्कि कांग्रेस में मिलकर चुनाव लड़ते. हे पतनलाल जी, हे दक्ष्मण यादव जी और अन्य फलाने ढ़िमकाने जी, मान्यवर तो इनके लिए नागनाथ और सांपनाथ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया करते थे, उनके जीवन की मुख्य लड़ाई दलितों के लिए राजनीति में स्वतंत्र अस्तित्व पैदा करने की थी, लोगों को गुमराह करना छोड़ दो.
(लेखक: एन दिलबाग सिंह; ये लेखक के अपने विचार हैं)