देश में दलित आन्दोलन और दलित राजनीति की शुरूवात प्रभावी तरीके से 1927-28 से मानी जा सकती है. जब बाबासाहेब डॉ अम्बेड़कर के प्रयासों से इंग्लैंड की अंग्रेज़ी सरकार ने भारत में अछुतों की सामाजिक और आर्थिक हालात पर रिपोर्ट देने के लिए साइमन कमीशन को भारत भेजा था.
गाँधी, कांग्रेस एवं अन्य हिन्दुवादी गुटों ने साइमन कमीशन का जबरदस्त विरोध किया, ताकि ये कमीशन अछुतों की सामाजिक और आर्थिक हालात पर ग्राउन्ड रिपोर्ट ना दे पाये. कमीशन को निष्पक्ष रिपोर्ट देने के लिए उसमें एक भी भारतीय नही रखा गया था. देश में हिन्दुओं और कांग्रेस समेत अन्य गुटों के भारी विरोध के चलते साइमन कमीशन भी चलता बना.
1930, 1931 और 1932 में लंदन मे हुए तीनों गोलमेज़ कांफ्रेस में बाबासाहेब हाजिर हुए लेकिन गाँधी, कांग्रेस और अन्य हिन्दुवादी गुटों की अछुतों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक अधिकारों के मुद्दे पर छल कपट के रवैये ने अछुतों को वहीं सड़ने के लिए छोड़ दिया.
बाबासाहेब डॉ अम्बेड़कर के पृथक निर्वाचन की माँग से परेशान गाँधी की आमरण अनसन की जिद ने गाँधी और अम्बेड़कर को एक मजबुरी का इतिहास थमा दिया. जिसको “पुना पैक्ट” नाम से जानते हैं और जहाँ से शिक्षा और नौकरी आदि में प्रतिनिधित्व के नाम पर दलितों और आदिवासीयों को आरक्षण मिलने पर सहमति की बात हुई. गाँधी की आमरण अनसन से जान बच गई लेकिन अछुतों ने क्या खो दिया, उसका अहसास आज तक भी नही हैं. अछुतों को गाँधी ने हरिजन नाम दे दिया, हरि को पाकर हरिजन भी खुश. अम्बेड़कर के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक संघर्ष पर कांग्रेस ने हरिजनवादी घोल के नए-नए नेता इन हरि के लिए तड़फते हुए हरिजनों को दिए.
बाबू जगजीवन राम उसी दौर का तेज तर्रार गाँधी का हरिजन नेता था, जो कांग्रेस ने डॉ अम्बेड़कर की काट के तौर पर तैयार कर लिया था. दलितों का चिंतक सिर्फ चिंतक बन कर ही रह गया, डॉ अम्बेड़कर राजनीति में फेल हो गया और गाँधी का हरिजन नेता दलितों का ताउम्र बड़ा नेता बना रहा.
बाबासाहेब को कभी काजोलकर ने हरा दिया तो कभी बोरकर ने लेकिन, बाबू जगजीवन राम को हरिजनों ने कभी हारने ही नही दिया. डॉ अम्बेड़कर को जलील करने के लिए कांग्रेस ने उसको उसके चपरासी से ही हरवाया था. दलित, आदिवासी कांग्रेस की ऐसी जीत पर फुले नही समा पा रहे थे और डॉ अम्बेड़कर उनकी बुद्धि पर और उनके भविष्य को देखकर शायद ज्यादा परेशान रहने लगे होंगे. दलित और आदिवासियों ने ही बाबासाहेब डॉ अम्बेड़कर की राजनीति को बेमौत मार दिया. डॉ अम्बेड़कर अपने समाज के इस धोखे के साथ इस दुनिया से 1956 में विदा हो गए.
उनकी मौत के बहुत साल बाद कांशीराम नाम का एक बीज फूटा और उन्होने दलित आदिवासी की राजनीति को देश में वहाँ तक फैलाया जहाँ तक बाबासाहेब कभी नही पहुँचा पाये थे. लेकिन, इस बार उनको मायावती के रूप मे एक मजबूत सेनापति भी मिली थी. उनके मिशन को रोकने के लिए फिर हरिजनी घोल वाले अनेक दलित नेता आये, उनमे सबसे ज्यादा मशहुर हुए रामराज. जो रैलीयों के मंचो से ही हिन्दुओं के आराध्य राम के खिलाफ बोलते थे और जिन्होने अपने नाम से राम शब्द तक निकालवाकर अपना नाम रामराज की जगह उदित राज रख लिया था. लेकिन इस बार कोई कांशीराम और मायावती की मजबूत किलेबंदी में घुस ही नही पाया. समय का फेर देखिये यही रामराज/उदितराज हिन्दुत्वी भाजपा की टिकट से 2014 में सांसद चुने गए और 2019 में टिकट कटने से नाराज होकर अब कांग्रेसी हो गए.
अब जब दलित राजनीति 2014 से हासिये में जा रही है और दलित आदिवासी भी मंदिर बनाने निकल ही पड़े हैं, ऐसे में दलित राजनीति को बर्बाद करने के लिए एक और ताबड़तोड़ युवा सामने आया है, जिसका मुख्य टारगेट दलित युवा वर्ग है जो मान्यवर कांशीराम की बनाई हुई पार्टी को बर्बाद करने के लिए उनका ही फोटो लेकर बहनजी को भद्दी- भद्दी गालियाँ दिलवाने में व्यस्त है. कुछ लोगों को लगा था कि ये युवा डॉ अम्बेड़कर और मान्यवर कांशीराम के संघर्ष को आगे लेकर जायेगा लेकिन इसके सपोर्टर तो अक्सर कांग्रेस, अखिलेश यादव, केजरीवाल, तेजस्वी यादव, जयंत चौधरी के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर वोट माँग रहे होते हैं.
मायावती को सत्ता का लालच सच में ही होता तो वो पासवान, अठावले या उदितराज आसानी से बन सकती थी, कौन रोकने वाला था. लेकिन, उन्होने कठिन रास्ता चुना है – डॉ अम्बेड़कर वाला, मान्यवर कांशीराम वाला फिर ये समाज इनकी पीठ मे छुरा क्यों नही घोपेगा.
इस समाज को गाँधी का हरिजन बनना ही जमता है, डॉ अम्बेड़कर या मान्यवर कांशीराम बनना आता तो 70 -75 साल का समय कम नही होता. बेहतर है कि तुम हरिजन ही रहो, मंदिर ही बनाओ, कावड़ ही ढ़ोवो और केकड़े ही बनो – तुम्हारा उद्धार करने के लिए तो एक दिन राम जरूर आयेगें, बस तुम हजार दो हजार साल तक मरना मत.
(लेखक: एन दिलबाग सिंह; यह लेखक के अपने विचार हैं)