पुणे में साहेब के संघर्ष भरे दिनों की कहानी. साहेब को नौकरी से इस्तीफा देने के बाद पुणे के पंजा मोहल्ले डिंकन जिमखाना के भंडारकर इंस्टीट्यूट के बॉयज होस्टल में किराए पर लेने वाले कमरे का किराया देना मुश्किल हो गया. क्योंकि साहेब सुबह पांच बजे बिना कुछ खाए उठकर मिशन पर जाते थे. Movement Work Sun.
असल में उस संस्थान का डायरेक्टर ब्राह्मण था जिसका नाम ब्रिस्कर है. मालिक ने कमरा किराए पर लिया था, लेकिन मालिक कभी किराया देने नहीं आया. यही कारण है कि मालिक ने हर महीने शहर से किराया वसूलने के लिए विशेष रूप से अपनी मुनीम की ड्यूटी लगाई थी.
एक दिन साहेब 142, रास्तापेठ, पुणे स्थित बामसेफ के खुले कार्यालय में पहुंचे और मनोहर अटे से सदासिव पेठ स्थित एक छोटी सी प्रेस चलाने को कहा. बमसेफ संगठन का बुलेटिन इस प्रेस पर प्रकाशित किया गया. असल में साहेब देखना चाहते थे कि उस बुलेटिन की छपाई कैसे चल रही है.
साहेब का हुक्म सुनते ही मनोहर आटा तैयार हो गया. साहेब और मनोहर आते ही अपनी साइकिल से मेन रोड से सदासिव पेठ पहुंचे. बुलेटिन की छपाई देखकर साहब साइकिल पर वापस सड़क पर जा रहे थे. और साइकिल चलाते समय मनोहर अटे को भी बता रहे थे कि पुणे बहुत पुराना शहर है. बहुत सी गलियां हैं. लेकिन सबसे व्यस्त सड़कें भी यहीं हैं. अचानक साहेब ने छोटी सी गली में मनोहर अटे को जल्दी काट दिया और यह कहकर छुप जाते हैं कि मनोहर अटे जल्दी भागो!
पहले तो मनोहर अटे को इस बारे में कुछ समझ में नहीं आया. फिर ये भी साहेब के पीछे भागने लगे. साहेब के पास पहुँच कर मनोहर अटे ने पूछा कि इस भरी गली में छुप कर क्यों खड़े हो? साहेब ने जवाब दिया पीछे से कौन आ रहा है. मनोहर अटे ने पीछे मुड़कर देखा तो साहेब ने कहा कि उनके ऑफिस के मालिक का मुनीम कमरे का किराया लेने मेरे पीछे भाग रहा है. चलो दौड़े मनोहर अटे.
खैर कांशीराम की जेब में किराया नहीं है. ये कहकर साहेब भीड़ भरी गलियों से साइकिल चलाते हुए मेन रोड पर चले गए. याद रहे मनोहर अटे बहुजन आंदोलन के चिंतक और साहेब के संघर्ष भरे दिनों के साथी थे. अटे साहेब से 14 साल छोटा था. नागपुर के मनोहर अटे चार भाई और दो बहनों में सबसे छोटे थे.
(स्रोत: मैं कांशीराम बोल रहा हूँ का अंश; लेखक: पम्मी लालोमजारा, किताब के लिए संपर्क करें: 95011 43755)