अत्याचारों का अंत और बहुजन सत्ता का उदय
आज बहुजन समाज—दलित, आदिवासी और पिछड़े—जातिगत अत्याचारों के दंश से कराह रहा है। उनकी बच्चियों की अस्मिता तार-तार हो रही है, नन्हे बच्चों को पानी के लिए प्राण गँवाने पड़ रहे हैं। विगत दस वर्षों में वंचित समाज पर अत्याचारों में भयावह वृद्धि हुई है। यह समाज त्रस्त है—एक अत्याचार के खिलाफ धरना समाप्त नहीं होता कि दूसरा आघात उसे सड़कों पर ला खड़ा करता है। यह शोषण की परंपरा अनवरत चली आ रही है। संविधान लागू होने के तीन दशकों तक भी बहुजन समाज राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक उत्पीड़न के खिलाफ सुसंगठित आवाज नहीं उठा सका।
किंतु सत्तर के दशक में मान्यवर कांशीराम ने अपने शोध से प्राप्त पाँच सिद्धांतों और दस सूत्रों की नींव पर बहुजन समाज को संगठित किया। पहले नौकरीपेशा लोगों को, फिर डीएस-4 और बाद में बसपा के बैनर तले अखिल भारतीय स्तर पर तैयार कर एक दशक में ही परिवर्तन के संकेत दिखाई दिए। इससे बहुजन समाज में सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना जागृत हुई और उनकी राजनैतिक अस्मिता को मान्यता मिली। भारतीय राजनीति की दिशा और दशा में अभूतपूर्व बदलाव आया। कल तक जिस वंचित समाज की पुकार अनसुनी थी, वह बसपा के नेतृत्व में शोषकों को घुटने टेकने पर मजबूर करने लगा। इसका परिणाम मंडल आयोग का कार्यान्वयन, अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम और बाबासाहेब को भारत रत्न के रूप में सामने आया (स्रोत: बहुजन संगठक, 15 अगस्त 1992)।
इसके बाद वंचित समाज स्वशासित सरकार बनाने को तैयार हुआ। मान्यवर साहेब ने मुलायम सिंह यादव को, जो पहले चंद्रशेखर जैसे नेताओं के पिछलग्गू थे, समाजवादी पार्टी बनाने और उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया, जिसे उन्होंने पूरा किया। बसपा-सपा गठबंधन ने चुनाव लड़ा और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने। बहनजी ने दोनों दलों के बीच तालमेल की जिम्मेदारी संभाली, जबकि मान्यवर साहेब अन्य राज्यों को संगठित करने में जुट गए। किंतु 1990 के अंत में लालू प्रसाद यादव ने आडवाणी का रथ रोककर मुस्लिम मसीहा बनने का प्रयास किया, जिससे भाजपा की हिंदू समाज में पकड़ मजबूत हुई। मुलायम सिंह यादव ने बाबरी मस्जिद की सुरक्षा का दावा कर हिंदुओं को ललकारा, जिसके पीछे दो उद्देश्य थे : हिंदुओं को भड़काकर बाबरी विध्वंस करवाना और मुस्लिमों को अपने वोट बैंक में बाँधना। दोनों में वह सफल रहे, जिससे उनका अहंकार बढ़ा।
इस प्रकार सत्ता के नशे में मुलायम सिंह यादव निरंकुश हो गए। उनकी जाति के लोगों ने उत्तर प्रदेश में दलितों और अति-पिछड़ों पर अत्याचार शुरू कर दिए। राज्य जंगलराज में तब्दील हो गया। बहनजी ने बार-बार चेतावनी दी, किंतु मुलायम सिंह यादव ने पंचायती चुनाव में बसपा की एक महिला सदस्य का अपहरण करवा दिया। मान्यवर साहेब लखनऊ पहुँचे और मुलायम सिंह यादव को अपराधियों को सजा देने की हिदायत दी। मुलायम सिंह यादव ने इसे अनसुना किया। 31 मई 1995 को अल्टीमेटम समाप्त हुआ और मान्यवर ने उनकी सरकार गिरा दी। 2 जून 1995 को मुलायम सिंह यादव ने अपने गुंडों से गेस्टहाउस में बहनजी पर हमला करवाया, जो राज्यपाल के हस्तक्षेप से विफल हुआ (स्रोत: द हिंदू, 3 जून 1995)। इसके बाद भाजपा, कांग्रेस और अन्य दलों ने गुंडाराज से मुक्ति के लिए बसपा को बिना शर्त समर्थन दिया। 3 जून 1995 को बहुजन समाज पहली बार सत्ता में आया।
बहनजी ने गुंडाराज, माफियाराज और जंगलराज का अंत किया। एक माह में 1,45,000 से अधिक अपराधी जेल में बंद कर दिए गए—स्वतंत्र भारत में पहली बार ऐसा हुआ। “अंबेडकर ग्राम” और “पट्टा कब्जा” जैसे कदमों से वंचित समाज का आर्थिक-सामाजिक सशक्तिकरण शुरू हुआ। कहार, कोहार, लोहार, खटीक, पासी, धोबी, गड़रिया, मल्लाह जैसी अति-पिछड़ी जातियों ने पहली बार कानून का शासन देखा। बहनजी ने स्मारकों के निर्माण से वंचितों को उनके इतिहास और संस्कृति से जोड़ा, जिसे इतिहासकार सम्राट अशोक से तुलनीय मानते हैं। किंतु भाजपा ने हिंदुत्ववादी एजेंडा थोपने की कोशिश की, जिसके चलते बहनजी ने इस्तीफा दे दिया। 1997 और 2002 में भाजपा से समझौता हुआ, पर बसपा का “अंबेडकरीकरण” भाजपा और सपा को स्वीकार्य नहीं हुआ। अंततः दोनों ने गठजोड़ कर बसपा विधायकों को तोड़ा और मुलायम सिंह यादव ने स्पीकर की मदद से सरकार बनाई। यह भाजपा के लिए लाभकारी था, क्योंकि मुलायम सिंह यादव का हिंदुत्व में विश्वास, उसे खतरा नहीं था। सपा ने मुस्लिम तुष्टिकरण से हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया, जिससे भाजपा को सत्ता मिली।
9 अक्टूबर 2006 को मान्यवर का परिनिर्वाण हुआ। बहनजी ने आंदोलन और बसपा की कमान संभाली। 2007 में उत्तर प्रदेश ने गुंडाराज से मुक्ति के लिए बसपा को चुना। “उत्तर प्रदेश की मजबूरी है, बहनजी जरूरी हैं” का नारा गूँजा। बहनजी ने सोशल इंजीनियरिंग से पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई, जो “सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय” की नीति पर चली। कानून का राज स्थापित हुआ, आधारभूत ढाँचा मजबूत हुआ, और वंचितों में नई ऊर्जा का संचार हुआ। किंतु 2012 के बाद जनता सपा-भाजपा के ध्रुवीकरण में फँस गई। सपा के जंगलराज से त्रस्त जनता ने भाजपा को सत्ता सौंप दी, जो केंद्र में पहले से थी। परिणामस्वरूप, अत्याचारों—गैंगरेप, हत्याएँ, उत्पीड़न—में भयावह वृद्धि हुई। फिर क्या? बहुजन समाज धरना और कैंडल मार्च में उलझ गया।
अब प्रश्न है : यह कब तक चलेगा? बहुजन समाज को गंभीरता से चिंतन करना होगा। बाबासाहेब ने कहा, “सत्ता की मास्टर चाबी अपने हाथ में लो” (स्रोत: आंबेडकर, “अनहिलेशन ऑफ कास्ट,” 1936)। मान्यवर बोले, “हुक्मरान बनो, उन पर कोई अत्याचार नहीं कर सकता” (स्रोत: बहुजन संगठक, 10 मई 1990)। बहनजी कहती हैं, “शासक बनो, वोट से अपनी सरकार बनाओ।” धरनों से नहीं, बल्कि बसपा को वोट, धन और प्रचार से मजबूत कर सत्ता हासिल करनी होगी। तभी रविदास का बेगमपुरा संभव होगा। बहुजन समाज को तय करना है: धरने और मार्च, या अपनी सरकार बनाकर अत्याचारमुक्त समाज का सृजन?
स्रोत और संदर्भ :
- मान्यवर कांशीराम, “हुक्मरान बनो,” बहुजन संगठक, 10 मई 1990।
- डॉ. बी.आर. आंबेडकर, “अनहिलेशन ऑफ कास्ट,” 1936, संकलित रचनाएँ, खंड 1।
- “गेस्टहाउस कांड,” द हिंदू, 3 जून 1995।
- “मंडल और भारत रत्न,” बहुजन संगठक, 15 अगस्त 1992।
- प्रो. विवेक कुमार, “बहुजन सत्ता,” इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 2015।